श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 158 गउड़ी गुआरेरी महला ३ ॥ गुर ते गिआनु पाए जनु कोइ ॥ गुर ते बूझै सीझै सोइ ॥ गुर ते सहजु साचु बीचारु ॥ गुर ते पाए मुकति दुआरु ॥१॥ पूरै भागि मिलै गुरु आइ ॥ साचै सहजि साचि समाइ ॥१॥ रहाउ ॥ गुरि मिलिऐ त्रिसना अगनि बुझाए ॥ गुर ते सांति वसै मनि आए ॥ गुर ते पवित पावन सुचि होइ ॥ गुर ते सबदि मिलावा होइ ॥२॥ बाझु गुरू सभ भरमि भुलाई ॥ बिनु नावै बहुता दुखु पाई ॥ गुरमुखि होवै सु नामु धिआई ॥ दरसनि सचै सची पति होई ॥३॥ किस नो कहीऐ दाता इकु सोई ॥ किरपा करे सबदि मिलावा होई ॥ मिलि प्रीतम साचे गुण गावा ॥ नानक साचे साचि समावा ॥४॥२॥२२॥ {पन्ना 158} पद्अर्थ: ते = से। गिआनु = गहरी सांझ। सीझै = कामयाब हो जाता है। सहजु = आत्मिक अडोलता।1। भागि = किस्मत से। सहजि = आत्मिक अडोलता में। साचि = सदा स्थिर प्रभू में।1। रहाउ। आऐ = आ के। सुचि = पवित्रता।2। भरमि = भटकना में। भुलाई = गलत रास्ते पर पड़ी हुई। पति = पत, इज्जत।3। ने = को। इकु सोई = सिर्फ वह प्रभू ही। मिलि = मिल के। गावां = मैं गाऊूं।4। अर्थ: जिस मनुष्य को पूरी किस्मत से गुरू आ के मिल जाता है, वह सदा स्थिर प्रभू में लीन हो जाता है। वह सदा स्थिर रहने वाली आत्मिक अडोलता में टिका रहता है।1। रहाउ। कोई (भाग्यशाली) मनुष्य गुरू के द्वारा परमात्मा से गहरी सांझ हासिल करता है। जो मनुष्य गुरू से ये राज समझ लेता है वह (जीवन के खेल में) कामयाब हो जाता है। वह मनुष्य गुरू से स्थायित्व वाली आत्मिक अडोलता प्राप्त कर लेता है। सदा स्थिर (के गुणों) की विचार हासिल कर लेता है वह मनुष्य गुरू की सहायता से (विकारों से) मुक्ति (हासिल करने) का दरवाजा ढूँढ लेता है।1। अगर गुरू मिल जाए तो (मनुष्य अपने अंदर से) तृष्णा की आग बुझा लेता है। गुरू के द्वारा ही (मनुष्य के) मन में शांति आ बसती है। गुरू के द्वारा ही आत्मिक पवित्रता व आत्मिक स्वच्छता मिलती है। गुरू के द्वारा ही गुरू के शबद में जुड़ के परमात्मा से मिलाप होता है।2। गुरू के बिना सारी लुकाई भटकी हुई कुमार्ग पर पड़ी रहती है (और प्रभू के नाम से वंचित रहती है), प्रभू के नाम के बिना (संसार) बहुत दुख नपाता है। जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है, वह परमात्मा का नाम सिमरता है। परमात्मा के दर्शन में लीन होने से सदा स्थिर प्रभू में टिकने से उसे सदा स्थिर रहने वाला मान सम्मान प्राप्त हो जाता है।3। (पर, हे भाई!प्रभू नाम की इस दाति के वास्ते प्रभू के बिना और) किससे बिनती की जाए? सिर्फ परमात्मा ही ये दाति देने के स्मर्थ है। जिस मनुष्य पे वह मेहर करता है गुरू के शबद के द्वारा उसका प्रभू के साथ मिलाप हो जाता है। नानक (की भी यही प्रार्थना है कि) प्रीतम गुरू को मिल के मैं (भी) सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के गुण गाता रहूँ, और सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा में लीन रहूँ।4।2।22। गउड़ी गुआरेरी महला ३ ॥ सु थाउ सचु मनु निरमलु होइ ॥ सचि निवासु करे सचु सोइ ॥ सची बाणी जुग चारे जापै ॥ सभु किछु साचा आपे आपै ॥१॥ करमु होवै सतसंगि मिलाए ॥ हरि गुण गावै बैसि सु थाए ॥१॥ रहाउ ॥ जलउ इह जिहवा दूजै भाइ ॥ हरि रसु न चाखै फीका आलाइ ॥ बिनु बूझे तनु मनु फीका होइ ॥ बिनु नावै दुखीआ चलिआ रोइ ॥२॥ रसना हरि रसु चाखिआ सहजि सुभाइ ॥ गुर किरपा ते सचि समाइ ॥ साचे राती गुर सबदु वीचार ॥ अम्रितु पीवै निरमल धार ॥३॥ नामि समावै जो भाडा होइ ॥ ऊंधै भांडै टिकै न कोइ ॥ गुर सबदी मनि नामि निवासु ॥ नानक सचु भांडा जिसु सबद पिआस ॥४॥३॥२३॥ {पन्ना 158} पद्अर्थ: सु = वह। सचु = सदा स्थिर। सचि = सदा स्थिर प्रभू में। जापै = प्रगट होती है। आपै = अपने आप से।1। करमु = मेहर। सतसंगि = सत्संग में। बैसि = बैठ के। थाऐ = जगह में।1। रहाउ। जलउ = जल जाए। दूजै भाइ = माया के प्यार में, और और स्वाद में। अलाइ = बोलती है। बिनु बूझै = (हरी रस का स्वाद) समझे बिना। रोइ = रो के, दुखी हो के।2। रसना = जीभ। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्रेम में।3। भांडा = योग पात्र, शुद्ध हृदय। ऊँधे भांडै = हृदय में, उस हृदय में जो उस प्रभू की ओर से उलटा हुआ है। नामि निवासु = नाम का निवास।4। अर्थ: (जिस मनुष्य पर परमात्मा की) कृपा हो (उसे वह) सत्संग में मिलाता है, उस जगह पर वह मनुष्य बैठ के परमात्मा के गुण गाता है।1। रहाउ। वह (सत्संग) स्थान, सच्चा स्थान है, (वहां बैठने से मनुष्य का) मन पवित्र हो जाता है। सदा स्थिर प्रभू में (मनुष्य का मन) निवास करता है (सत्संग की बरकति से मनुष्य) सदा स्थिर प्रभू का रूप हो जाता है। (सत्संग में रहके) सदा स्थिर प्रभू की सिफत सालाह की बाणी की बरकति से मनुष्य चारों युगों में प्रसिद्ध हो जाता है। (उसे यकीन हो जाता है कि) ये सारा आकार सदा स्थिर प्रभू खुद ही अपने आप से बनाने वाला है (स्वयंभू या सैभं)।1। जल जाए ये जीभ अगर ये और और स्वादों में ही रहती है। अगर ये प्रभू के नाम का स्वाद तो चखती नहीं, उल्टा (निंदा आदि के) फीके बोल ही बोलती है। परमातमा के नाम का स्वाद समझे बिना मनुष्य का मन फीका (प्रेम से विहीन) हो जाता है। शरीर भी फीका हो जाता है (भाव, ज्ञानेंद्रियां भी दुनिया के होछे पदार्थों की तरफ दौड़ने के आदी हो जाते हैं)। नाम से विहीन मनुष्य दुखी जीवन व्यतीत करता है, दुखी हो के ही आखिर यहां से चला जाता है।2। (जिस मनुष्य की) जीभ ने हरि नाम का स्वाद चखा है, वह आत्मिक अडोलता में, प्रभू प्रेम में मगन रहता है। गुरू की मेहर से वह सदा स्थिर प्रभू (सिफत सालाह) में रंगी रहती है। गुरू का शबद ही उसकी विचार बना रहता है। वह मनुष्य आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस पीता है, नाम जल की पवित्र धार पीता है।3। (गुरू की कृपा से) जो हृदय शुद्ध हो जाता है, वह प्रभू के नाम में ही लीन रहता है। परमात्मा की ओर से पलटे हुए हृदय में कोई गुण नहीं टिकता। गुरू के शबद की बरकति से मनुष्य के मन में परमात्मा के नाम का निवास हो जाता है। हे नानक! उस मनुष्य का हृदस असल हृदय है जिसे परमात्मा की सिफत सालाह की बाणी की तांघ लगी रहती है।4।3।23। गउड़ी गुआरेरी महला ३ ॥ इकि गावत रहे मनि सादु न पाइ ॥ हउमै विचि गावहि बिरथा जाइ ॥ गावणि गावहि जिन नाम पिआरु ॥ साची बाणी सबद बीचारु ॥१॥ गावत रहै जे सतिगुर भावै ॥ मनु तनु राता नामि सुहावै ॥१॥ रहाउ ॥ इकि गावहि इकि भगति करेहि ॥ नामु न पावहि बिनु असनेह ॥ सची भगति गुर सबद पिआरि ॥ अपना पिरु राखिआ सदा उरि धारि ॥२॥ भगति करहि मूरख आपु जणावहि ॥ नचि नचि टपहि बहुतु दुखु पावहि ॥ नचिऐ टपिऐ भगति न होइ ॥ सबदि मरै भगति पाए जनु सोइ ॥३॥ भगति वछलु भगति कराए सोइ ॥ सची भगति विचहु आपु खोइ ॥ मेरा प्रभु साचा सभ बिधि जाणै ॥ नानक बखसे नामु पछाणै ॥४॥४॥२४॥ {पन्ना 158-159} पद्अर्थ: इकि = (‘इक’ का बहुवचन) कई। मनि = मन में। सादु = आनंद, स्वाद। जाइ = जाता है।1। सतिगुर भावै = गुरू को ठीक लगे। नामि = नाम में। सुहावै = सोहने जीवन वाला बन जाता है।1। रहाउ। भगति करेहि = रास डालते हैं। असनेह = (स्नेह) प्यार। पिआरि = प्यार में। उरि = हृदय में।2। आपु = अपने आप को। आपु जणावहि = अपने आप को भक्त जाहर करते हैं। मरै = स्वै भाव की ओर से मरता है। सोइ = वह ही।3। वछलु = (वात्सल्य) प्यार करने वाला। सची = सदा स्थिर रहने वाली, परवान। सभ बिधि = हरेक ढंग।4। अर्थ: अगर गुरू को ठीक लगे (अगर गुरू मेहर करे तो उसकी मेहर सदका उसकी शरण आया मनुष्य) परमात्मा के गुण गाता रहता है। उसका मन उसका तन प्रभू के नाम में रंगा जाता है और उसका जीवन सुंदर बन जाता है।1। रहाउ। कई मनुष्य ऐसे हैं जो (भक्ति के गीत) गाते (तो) रहते हैं (पर उनके) मन में कोई आनंद पैदा नहीं होता (क्योंकि वे अपने भक्त होने के) अहंकार में (भक्ति के गीत) गाते हैं (उनका ये उद्यम) व्यर्थ चला जाता है। (सिफत सालाह के गीत) असल में वह मनुष्य गाते हैं, जिनका परमात्मा के नाम से प्यार है, जो सदा प्रभू की सिफत सालाह की बाणी का, शबद का विचार (अपने हृदय में टिकाते हैं)।1। कई मनुष्य ऐसे हैं जो (भक्ति के गीत) गाते हैं और रास करते हैं, पर प्रभू के चरणों में प्यार के बिना उन्हें परमात्मा का नाम प्राप्त नहीं होता। उनकी ही भक्ति परवान होती है, जो गुरू के शबद के प्यार में जुड़े रहते हैं, जिन्होंने अपने प्रभू पति को सदा अपने हृदय में टिका के रखा हुआ है।2। मूर्ख लोग रास डालते हैं और अपने आप को भक्त जतलाते हैं, (वे मूर्ख रास डालने के वक्त) नाच नाच के कूदते हैं (पर अंतरात्मे अहंकार के कारण आत्मिक आनंद की जगह) दुख ही दुख पाते हैं। नाचने-कूदने से भक्ति नहीं होती। परमात्मा की भक्ति वही मनुष्य प्राप्त कर सकता है, जो गुरू के शबद में जुड़ के (स्वैभाव, अहम् से) स्वयं को मार लेता है।3। (पर जीवों के भी क्या बस?) भक्ति से प्यार करने वाला वह परमात्मा सब जीवों के ढंग जानता है (कि ये भक्ति करते हैं या पाखण्ड)। हे नानक! जिस मनुष्य पर प्रभू कृपा करता है वह मनुष्य उसके नाम को पहचानता है (नाम के साथ) गहरी सांझ डाल लेता है।4।4।24। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |