श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 159 गउड़ी गुआरेरी महला ३ ॥ मनु मारे धातु मरि जाइ ॥ बिनु मूए कैसे हरि पाइ ॥ मनु मरै दारू जाणै कोइ ॥ मनु सबदि मरै बूझै जनु सोइ ॥१॥ जिस नो बखसे दे वडिआई ॥ गुर परसादि हरि वसै मनि आई ॥१॥ रहाउ ॥ गुरमुखि करणी कार कमावै ॥ ता इसु मन की सोझी पावै ॥ मनु मै मतु मैगल मिकदारा ॥ गुरु अंकसु मारि जीवालणहारा ॥२॥ मनु असाधु साधै जनु कोइ ॥ अचरु चरै ता निरमलु होइ ॥ गुरमुखि इहु मनु लइआ सवारि ॥ हउमै विचहु तजे विकार ॥३॥ जो धुरि राखिअनु मेलि मिलाइ ॥ कदे न विछुड़हि सबदि समाइ ॥ आपणी कला आपे ही जाणै ॥ नानक गुरमुखि नामु पछाणै ॥४॥५॥२५॥ {पन्ना 159} पद्अर्थ: मारे = बस में कर लेता है। धातु = भटकना (संस्कृत: धा)।1। जिस नो: शब्द ‘जिसु’ में से ‘ु’ की मात्रा संबोधक ‘नो’ के कारण अलोप हो गई है। देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’ । परसादि = कृपा से।1। रहाउ। करणी = (करणीय) करतब, आचरण। मै मतु = मय मस्त, शराब से मस्त। मै = मय,शराब। मिकदारा = की तरह। अंकसु = अंकुश, कुंडा (जिससे हाथी को चलाया जाता है)।2। कोइ = कोई, विरला। अचरु = (अचर = immovable) अमोड़पन। चरै = (चर = to consume) खत्म कर लेता है।3। राखिअनु = राखे उनि, उस (प्रभू) ने रख लिए। कला = ताकत,शक्ति।4। अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य पे परमात्मा मेहर करता है उसे (ये) आदर देता है (कि) गुरू की कृपा से वह प्रभू उसके मन में आ बसता है।1। रहाउ। (गुरू की शरण पड़ के जो मनुष्य अपने) मन को काबू कर लेता है, उस मनुष्य की (माया वाली) भटकन समाप्त हो जाती है। मन वश में आए बिना परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती। उसी मनुष्य का मन बस में आता है, जो इसे वश में लाने की दवा जानता है। (जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है) वही समझता है कि मन गुरू के शबद में जुड़ने से ही वश में आ सकता है।1। जब मनुष्य गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्यों वाला आचरण बनाने की कार करता है, तब उसको इस मन (के स्वभाव) की समझ आ जाती है, (तब वह समझ लेता है कि) मन अहम् में मस्त रहता है जैसे कोई हाथी शराब में मस्त हो। गुरू ही (आत्मिक मौत मरे हुए इस मन को अपने शबद का) अंकुश मार के (पुनः) आत्मिक जीवन देने के समर्थ है।2। (ये) मन (आसानी से) वश में नहीं आ सकता। कोई विरला मनुष्य (गुरू की शरण पड़ के इसे) वश में लाता है। जग मनुष्य (गुरू की सहायता से अपने मन के) अमोड़ पने को खत्म कर लेता है,तब मन पवित्र हो जाता है। गुरू की शरण पड़ने वाला मनुष्य इस मन को सुंदर बना लेता है। वह (अपने अंदर से) अहंकार त्याग के विकारों को छोड़ देता है।3। जिन मनुष्यों को परमात्मा ने अपनी धुर दरगाह से ही गुरू के चरणों में जोड़ के (विकारों से) बचा लिया है, वह गुरू के शबद में लीन रह के कभी उस परमात्मा से विछड़ते नहीं। हे नानक! परमात्मा अपनी ये असीम ताकत खुद ही जानता है। (ये बात प्रत्यक्ष है कि) जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है, वह परमात्मा के नाम को पहचान लेता है (नाम के साथ गहरी सांझ बना लेता है)।4।5।25। गउड़ी गुआरेरी महला ३ ॥ हउमै विचि सभु जगु बउराना ॥ दूजै भाइ भरमि भुलाना ॥ बहु चिंता चितवै आपु न पछाना ॥ धंधा करतिआ अनदिनु विहाना ॥१॥ हिरदै रामु रमहु मेरे भाई ॥ गुरमुखि रसना हरि रसन रसाई ॥१॥ रहाउ ॥ गुरमुखि हिरदै जिनि रामु पछाता ॥ जगजीवनु सेवि जुग चारे जाता ॥ हउमै मारि गुर सबदि पछाता ॥ क्रिपा करे प्रभ करम बिधाता ॥२॥ से जन सचे जो गुर सबदि मिलाए ॥ धावत वरजे ठाकि रहाए ॥ नामु नव निधि गुर ते पाए ॥ हरि किरपा ते हरि वसै मनि आए ॥३॥ राम राम करतिआ सुखु सांति सरीर ॥ अंतरि वसै न लागै जम पीर ॥ आपे साहिबु आपि वजीर ॥ नानक सेवि सदा हरि गुणी गहीर ॥४॥६॥२६॥ पद्अर्थ: बउराना = बउरा, पागल हो रहा है। भाइ = भाउ के कारण। दूजै भाइ = माया के प्यार के कारण। भरमि = भटकन में (पड़ कर)। भुलाना = कुमार्ग पर पड़ गया है। चिंता चितवै = सोचें सोचता है। आपु = अपने आत्मिक जीवन को। अनदिनु = हरेक दिन।1। रमहु = सिमरो। भाई = हे भाई! रसना = जीभ। रसाई = रसीली बना।1। रहाउ। जिनि = जिस ने। जगजीवनु = जगत का जीवन परमात्मा। जाता = प्रगट हो गया। करम बिधाता = (जीवों के किए) कर्मों अनुसार पैदा करने वाला।2। सचे = सदा स्थिर प्रभू का रूप। वरजे = रोक ले। ठाकि = रोक के। नव निधि = नौ खजाने।3। सुखु = आत्मिक आनंद। न लागै = नहीं छू सकता। जम पीर = यम का दुख। गुणी = गुणों का मालिक। गहीर = गहरा, जिगरे वाला।4। अर्थ: हे मेरे भाई!अपने हृदय में परमात्मा का नाम सिमरता रह। गुरू की शरण पड़ के अपनी जीभ को परमात्मा के नाम रस से रसीली बना।1। रहाउ। (हे भाई! प्रभू नाम से वंचित हो के) अहंकार में (फस के) सारा जगत झल्ला (बउरा) हो रहा है, माया के मोह के कारण भटकना में पड़ के गलत रास्ते पे जा रहा है। और ही कई प्रकार की सोचें सोचता रहता है पर अपने आत्मिक जीवन को नहीं पड़तालता। (इस तरह) माया की खातिर दौड़-भाग करते हुए (मायाधारी जीव का) हरेक दिन बीत रहा है।1। जिस मनुष्य ने गुरू की शरण पड़ कर अपने हृदय में परमात्मा के साथ जान पहिचान बना ली, वह मनुष्य जगत की जिंदगी के आसरे परमात्मा की सेवा भक्ति करके सदा के लिए प्रगट हो जाता है। (जीवों के किए) कर्मों अनुसार (जीवों को) पैदा करने वाला परमात्मा जिस मनुष्य पर कृपा करता है वह मनुष्य (अपने अंदर से) अहंकार को दूर करके गुरू के शबद के द्वारा (परमात्मा के साथ) सांझ डाल लेता है।2। जिन मनुष्यों को परमात्मा गुरू के शबद से जोड़ता है, जिनको माया के पीछै दौड़ने से वर्जता है और रोक के रखता है, वे मनुष्य परमातमा का रूप हो जाते हैं। वे मनुष्य गुरू से परमात्मा का नाम हासिल कर लेते हैं जो उनके वास्ते (जैसे, धरती के) नौ ही खजाने हैं। अपनी मेहर से परमात्मा उनके मन में आ बसता है।3। (हे भाई!) परमात्मा का नाम सिमरने से शरीर को आनंद मिलता है शांति मिलती है। जिस मनुष्य के अंदर (हरि-नाम) आ बसता है, उसे जम का दुख छू नहीं सकता। हे नानक! जो परमात्मा खुद जगत का मालिक है और खुद ही (जगत की पालना आदि करने में) सलाह देने वाला है। जो सारे गुणों का मालिक है जो बड़े जिगरे वाला है, तू सदा उसकी सेवा-भक्ति कर।4।6।26। गउड़ी गुआरेरी महला ३ ॥ सो किउ विसरै जिस के जीअ पराना ॥ सो किउ विसरै सभ माहि समाना ॥ जितु सेविऐ दरगह पति परवाना ॥१॥ हरि के नाम विटहु बलि जाउ ॥ तूं विसरहि तदि ही मरि जाउ ॥१॥ रहाउ ॥ तिन तूं विसरहि जि तुधु आपि भुलाए ॥ तिन तूं विसरहि जि दूजै भाए ॥ मनमुख अगिआनी जोनी पाए ॥२॥ जिन इक मनि तुठा से सतिगुर सेवा लाए ॥ जिन इक मनि तुठा तिन हरि मंनि वसाए ॥ गुरमती हरि नामि समाए ॥३॥ जिना पोतै पुंनु से गिआन बीचारी ॥ जिना पोतै पुंनु तिन हउमै मारी ॥ नानक जो नामि रते तिन कउ बलिहारी ॥४॥७॥२७॥ {पन्ना 159-160} पद्अर्थ: सो = वह (परमात्मा)। जीअ पराना = जिंद प्राण। माहि = में। जितु = जिसके द्वारा। जितु सेविअै = जिसकी सेवा भक्ति करने से। पति = इज्जत। परवाना = कबूल।1। विटहु = से। बलि जाउ = मैं कुर्बान जाता हूँ। मरि जाउ = मैं मर जाता हूँ।1। रहाउ। जि = जो लोग। तुधु = तू। दूजै भाऐ = माया के मोह में। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले।2। इक मनि = खास ज्ञान से। तुठा = प्रसंन्न हुआ। तिन मंनि = उनके मन में। नामि = नाम में।3। पोतै = पल्ले, खजाने में। पुंन = भलाई, अच्छे भाग्य।4। अर्थ: मैं परमात्मा के नाम से (सदा) सदके जाता हूँ। (हे प्रभू!) जब तू मुझे बिसर जाता है, उस वक्त मेरी आत्मिक मौत हो जाती है।1। रहाउ। (हे भाई!) जिस परमात्मा के दिए हुए ये जिंद-प्राण हैं जो परमात्मा सब जीवों में व्यापक है, जिसकी सेवा-भक्ति करने से उसकी दरगाह में आदर मिलता है, दरगाह में कबूल हो जाते हैं, उसे कभी भी (मन से) भुलाना नहीं चाहिए।1। (हे प्रभू!) जिन लोगों को तूने खुद ही गलत रास्ते पर डाल दिया है, जो (सदा) माया के मोह में ही (फसे रहते हैं) उनके मन से तू बिसर जाता है। उन अपने मन के पीछे चलने वाले ज्ञानहीन लोगों को तू जूनों में डाल देता है।2। (हे भाई!) जिन मनुष्यों पर परमात्मा खास ध्यान से प्रसंन्न होता है, उन्हें वह गुरू की सेवा में जोड़ता है। उनके मन में परमात्मा (अपना आप) बसा देता है। वह मनुष्य गुरू की मति पर चल कर परमात्मा के नाम में (सदा) लीन रहते हैं।3। (हे भाई!) जिन मनुष्यों के सौभाग्य होते हैं, वही मनुष्य परमात्मा के साथ गहरी सांझ डालते है। वही श्रेष्ठ विचार के मालिक बनते हैं। वह (अपने अंदर से) अहंकार को दूर कर लेते हैं। हे नानक! (कह–) मैं उन मनुष्यों से सदा सदके हूँ, जो परमात्मा के नाम (-रंग) में रंगे रहते हैं।4।7।27 |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |