श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 160 गउड़ी गुआरेरी महला ३ ॥ तूं अकथु किउ कथिआ जाहि ॥ गुर सबदु मारणु मन माहि समाहि ॥ तेरे गुण अनेक कीमति नह पाहि ॥१॥ जिस की बाणी तिसु माहि समाणी ॥ तेरी अकथ कथा गुर सबदि वखाणी ॥१॥ रहाउ ॥ जह सतिगुरु तह सतसंगति बणाई ॥ जह सतिगुरु सहजे हरि गुण गाई ॥ जह सतिगुरु तहा हउमै सबदि जलाई ॥२॥ गुरमुखि सेवा महली थाउ पाए ॥ गुरमुखि अंतरि हरि नामु वसाए ॥ गुरमुखि भगति हरि नामि समाए ॥३॥ आपे दाति करे दातारु ॥ पूरे सतिगुर सिउ लगै पिआरु ॥ नानक नामि रते तिन कउ जैकारु ॥४॥८॥२८॥ {पन्ना 160} पद्अर्थ: अकथु = जिसके गुण बयान ना किए जा सकें। मारणु = मसाला।1। जिस की = जिस (परमात्मा) की। बाणी = सिफति सालाह की बाणी, सिफत सालाह। तिसु माहि = उस (परमात्मा) में । गुर सबदि = गुरू के शबद ने।1। रहाउ। (नोट: संबंधक‘की’ के कारण ‘जिसु’ में से ‘ु’ की मात्रा लोप हो गई है, पर संबंध ‘माहि’, ‘तिसु’ पर ऐसा असर नहीं डाल सका। देखें–गुरबाणी व्याकरण)। जह = जहां, जिस हृदय में। सहजे = सहजि, आत्मिक अडोलता में।2। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख हो के। महली = प्रभू की हजूरी में। नामि = नाम में।3। दातारु = दातें देने वाला प्रभू। सिउ = साथ। जैकारु = वडिआई।4। अर्थ: ये सिफत सालाह जिस (परमात्मा) की है उस (परमात्मा) में (ही) लीन रहती है। (भाव, जैसे परमात्मा बेअंत है वैसे ही उसकी सिफत सालाह भी बेअंत है, वैसे ही परमात्मा के गुण भी बेअंत हैं)। हे प्रभू! तेरे गुणों की कहानी बयान नहीं हो सकती। गुरू के शबद ने यही बात बताई है।1। रहाउ। हे प्रभू! तू कथन से परे है। तेरा स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता। जिस मनुष्य के पास गुरू का शबद रूपी मसाला है (उसने अपने मन को मार लिया है, उसके) मन में तू आ बसता है। हे प्रभू! तेरे अनेकों ही गुण हैं, जीव तेरे गुणों का मूल्य नहीं पा सकते।1। जिस हृदय में सतिगुरू बसता है वहां सत्संगति बन जाती है (क्यूँकि) जिस मनुष्य के हृदय में गुरू बसता है वह मनुष्य आत्मिक अडोलता में टिक के हरी के गुण गाता है। जिस दिल में गुरू बसता है, उसमें से गुरू के शबद ने अहंकार जला दिया है।2। गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य परमात्मा की सेवा-भक्ति करके परमात्मा की हजूरी में स्थान प्राप्त कर लेता है। गुरू के सन्मुख रहके मनुष्य अपने अंदर परमात्मा का नाम बसा लेता है। गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य प्रभू-भक्ति की बरकत से प्रभू के नाम में (सदा) लीन रहता है।3। दातें देने वाला समर्थ परमात्मा खुद ही (जिस मनुष्य को सिफत सालाह की) दाति देता है उसका प्यार पूरे गुरू से बन जाता है। हे नानक! जो मनुष्य परमात्मा के नाम (-रंग) में रंगे रहते हैं, उनको (लोक-परलोक में) वडिआई मिलती है (आदर मिलता है)।4।8।28। गउड़ी गुआरेरी महला ३ ॥ एकसु ते सभि रूप हहि रंगा ॥ पउणु पाणी बैसंतरु सभि सहलंगा ॥ भिंन भिंन वेखै हरि प्रभु रंगा ॥१॥ एकु अचरजु एको है सोई ॥ गुरमुखि वीचारे विरला कोई ॥१॥ रहाउ ॥ सहजि भवै प्रभु सभनी थाई ॥ कहा गुपतु प्रगटु प्रभि बणत बणाई ॥ आपे सुतिआ देइ जगाई ॥२॥ तिस की कीमति किनै न होई ॥ कहि कहि कथनु कहै सभु कोई ॥ गुर सबदि समावै बूझै हरि सोई ॥३॥ सुणि सुणि वेखै सबदि मिलाए ॥ वडी वडिआई गुर सेवा ते पाए ॥ नानक नामि रते हरि नामि समाए ॥४॥९॥२९॥ {पन्ना 160} पद्अर्थ: ते = से। ऐकसु ते = एक (परमात्मा) से ही। सभि = सारे। बैसंतरु = आग। सहलंगा = सह+लग्न, मिले हुए, जुड़े हुए। भिंन = भिन्न, अलग।1। सोई = वह (परमात्मा) ही। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख हो के।1। रहाउ। सहजि = आत्मिक अडोलता में। कहा = कहां। प्रभि = प्रभू ने। देइ = देता है।2। किनै = किस (जीव) से। कहि कहि = कह कह के। सभु कोई = हरेक जीव।3। सुणि = सुन के। वेखै = संभाल करता है। ते = से। नामि = नाम में।4। अर्थ: ये एक आश्चर्यजनक चमत्कार है कि परमात्मा स्वयं ही (इस बहुरंगी संसार में हर जगह) मौजूद है। कोई विरला मनुष्य ही गुरू की शरण पड़ के (इस आश्चर्यजनक चमत्कार को) विचारता है।1। रहाउ। (संसार में दिखते ये) सारे (विभिन्न) रूप और रंग उस परमात्मा से ही बने हैं। उस एक से ही हवा पैदा हुई है पानी बना है आग पैदा हुई है और ये सारे (तत्व अलग अलग रूप रंग वाले सब जीवों में) मिले हुए हैं। वह परमातमा (स्वयं ही) विभिन्न रंगों (वाले जीवों) की संभाल करता है।1। (अपनी) आत्मिक अडोलता में (टिका हुआ ही वह) परमात्मा सभी जगहों व्यापक हो रहा है। कहीं वह गुप्त है कहीं प्रत्यक्ष है। ये सारा जगत खेल प्रभू ने खुद ही बनाया है। (माया के मोह की नींद में) सोए हुए जीव को वह परमात्मा खुद ही जगा देता है।2। हरेक जीव (अपनी ओर से परमात्मा के गुण) कह कह के (उन गुणों का) वर्णन करता है, पर किसी जीव द्वारा उसका मोल नहीं पड़ सकता। हां, जो मनुष्य सत्गुरू के शबद में जुड़ता है, वह परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाल लेता है।3। (इस बहुरंगी संसार का मालिक परमात्मा हरेक जीव की आरजू) सुन सुन के (हरेक की) संभाल करता है। (और अरदास सुन के ही जीव को) गुरू के शबद में जोड़ता है। (गुरू-शबद में जुड़ा मनुष्य) गुरू की बताई हुई सेवा से (लोक परलोक में) बहुत आदर मान प्राप्त करता है। हे नानक! (गुरू के शबद की बरकति से ही अनेकों जीव) परमात्मा के नाम (रंग) में रंगे जाते हैं, परमात्मा के नाम में लीन हो जाते हैं।4।9।29। गउड़ी गुआरेरी महला ३ ॥ मनमुखि सूता माइआ मोहि पिआरि ॥ गुरमुखि जागे गुण गिआन बीचारि ॥ से जन जागे जिन नाम पिआरि ॥१॥ सहजे जागै सवै न कोइ ॥ पूरे गुर ते बूझै जनु कोइ ॥१॥ रहाउ ॥ असंतु अनाड़ी कदे न बूझै ॥ कथनी करे तै माइआ नालि लूझै ॥ अंधु अगिआनी कदे न सीझै ॥२॥ इसु जुग महि राम नामि निसतारा ॥ विरला को पाए गुर सबदि वीचारा ॥ आपि तरै सगले कुल उधारा ॥३॥ इसु कलिजुग महि करम धरमु न कोई ॥ कली का जनमु चंडाल कै घरि होई ॥ नानक नाम बिना को मुकति न होई ॥४॥१०॥३०॥ {पन्ना 160} पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। मोहि = मोह में। पिआरि = प्यार में। बीचारि = विचार में। नामि = नाम में।1। सहजे = आत्मिक अडोलता में। कोइ = कोई विरला।1। रहाउ। असंतु = विकारी मनुष्य। अनाड़ी = अमोड़, विकारों से ना पलटने वाला, बेसमझ। तै = और। लूझै = झगड़ता है, खचित होता है। सीझै = कामयाब होता है।2। इसु जुग महि = इस मनुष्य जनम में। नामि = नाम से।3। चण्डाल = कुकर्मी मनुष्य। घरि = हृदय में।4। अर्थ: जो कोई (भाग्यशाली मनुष्य) पूरे गुरू से आत्मिक जीवन की सूझ प्राप्त करता है, वह आत्मिक अडोलता में टिक के (माया के हमलों की ओर से) सुचेत रहता है। वह माया के मोह की नींद में नहीं फंसता।1। रहाउ। अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य माया के मोह में माया के प्यार में (आत्मिक जीवन की ओर से) गाफिल हुआ रहता है। गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य परमात्मा के गुणों के साथ जान पहिचान की विचार में (टिक के माया की तरफ से) सुचेत रहता है। जिस मनुष्य का परमात्मा के नाम में प्यार पड़ जाता है, वह मनुष्य (माया के मोह से) सुचेत रहते हैं।1। विकारी मनुष्य, विकारों की ओर अड़ी करने वाले बेसमझ मनुष्य कभी आत्मिक जीवन की समझ प्राप्त नहीं कर सकते। वह ज्ञान की बातें (भी) करते रहते हैं, माया में भी खचित रहते हैं। (ऐसे माया के मोह में) अंधे व ज्ञान हीन मनुष्य (जिंदगी की बाजी में) कभी कामयाब नहीं होते।2। इस मनुष्य जनम में आ के परमात्मा के नाम के द्वारा ही (संसार समुंद्र से) पार उतारा हो सकता है। कोई विरला मनुष्य ही गुरू के शबद में जुड़ के ये विचारता है। ऐसा मनुष्य खुद (संसार समुंद्र से) पार लांघ जाता है, अपने सारे कुलों को भी पार लंघा लेता है।3। कुकर्मी मनुष्य के हृदय में (जैसे) कलियुग आ जाता है। इस कलियुग (भाव, कुकर्म दशा) के पंजे में फंसने से कोई कर्म-धर्म छुड़ा नहीं सकता। हे नानक! परमात्मा के नाम के बिना कोई मनुष्य (कलियुग से) मुक्ति नहीं पा सकता।4।10।30। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |