श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 161 गउड़ी महला ३ गुआरेरी ॥ सचा अमरु सचा पातिसाहु ॥ मनि साचै राते हरि वेपरवाहु ॥ सचै महलि सचि नामि समाहु ॥१॥ सुणि मन मेरे सबदु वीचारि ॥ राम जपहु भवजलु उतरहु पारि ॥१॥ रहाउ ॥ भरमे आवै भरमे जाइ ॥ इहु जगु जनमिआ दूजै भाइ ॥ मनमुखि न चेतै आवै जाइ ॥२॥ आपि भुला कि प्रभि आपि भुलाइआ ॥ इहु जीउ विडाणी चाकरी लाइआ ॥ महा दुखु खटे बिरथा जनमु गवाइआ ॥३॥ किरपा करि सतिगुरू मिलाए ॥ एको नामु चेते विचहु भरमु चुकाए ॥ नानक नामु जपे नाउ नउ निधि पाए ॥४॥११॥३१॥ {पन्ना 161} पद्अर्थ: सचा = सदा स्थिर कायम रहने वाला, अटॅल। अमरु = हुकम। मनि = मन से। सचै = सदा स्थिर प्रभू में। महलि = महल में। समाहु = समाई, लीनता।1। मन = रे मन! वीचारि = सोच मंडल में टिकाए रख।1। रहाउ। भरमे = भटकना में ही। आवै = पैदा होता है। जाइ = मरताहै। दूजै भाइ = और और प्यार में।2। कि = या, चाहे। प्रभि = प्रभू ने। विडाणी = बेगानी।3। नउनिधि = नौ खजाने।4। अर्थ: हे मेरे मन! (गुरू की शिक्षा) सुन। गुरू के शबद को (अपने) सोच मण्डल में बसा के रख। अगर तू परमात्मा का नाम सिमरेगा, तो संसार समुंद्र से पार लांघ जाएगा।1। रहाउ। परमात्मा (जगत का) सदा स्थिर रहने वाला पातशाह है, उसका हुकम अटॅल है। जो मनुष्य (अपने) मन से सदा स्थिर परमात्मा (के नाम रंग) में रंगे जाते हैं, वे उस वेपरवाह हरी का रूप हो जाते हैं। वह उस सदा कायम रहने वाले परमात्मा की हजूरी में रहते हैं। उसके सदा स्थिर नाम में लीनता प्राप्त कर लेते हैं।1। पर ये जगत (अपने मन के पीछे चल के) माया के मोह में फंस के जनम-मरण के चक्र में पड़ा रहताहै। माया की भटकना में ही पैदा होता है और माया की भटकना में ही मरता है। अपने मन के पीछे चलने वाला जगत परमात्मा को याद नहीं करता और पैदा होता, मरता रहता है।2। ये जीव खुद ही गलत रास्ते पर पड़ा है या परमात्मा ने खुद इसे गलत रास्ते पर डाला हुआ है (ये बात स्पष्ट है कि ये अपनी असलियत भुलाए बैठा है और माया के मोह में फंस के) ये जीव बेगानी नौकरी हीकर रहा है (जिससे) ये बहुत दुख ही कमाता है और मानस जन्म व्यर्थ गवा रहा है।3। परमात्मा अपनी मेहर करके जिस मनुष्य को गुरू मिलाता है, वह मनुष्य (माया का मोह छोड़ के) केवल परमात्मा का नाम सिमरता है, तथा, अपने अंदर से माया वाली भटकना दूर कर लेता है। हे नानक! वह मनुष्य सदा हरि नाम सिमरता है और हरी-नाम-खजाना प्राप्त करता है जो (उसके वास्ते, जैसे, जगत के सारे) नौ खजाने हैं।4।11।31। गउड़ी गुआरेरी महला ३ ॥ जिना गुरमुखि धिआइआ तिन पूछउ जाइ ॥ गुर सेवा ते मनु पतीआइ ॥ से धनवंत हरि नामु कमाइ ॥ पूरे गुर ते सोझी पाइ ॥१॥ हरि हरि नामु जपहु मेरे भाई ॥ गुरमुखि सेवा हरि घाल थाइ पाई ॥१॥ रहाउ ॥ आपु पछाणै मनु निरमलु होइ ॥ जीवन मुकति हरि पावै सोइ ॥ हरि गुण गावै मति ऊतम होइ ॥ सहजे सहजि समावै सोइ ॥२॥ दूजै भाइ न सेविआ जाइ ॥ हउमै माइआ महा बिखु खाइ ॥ पुति कुट्मबि ग्रिहि मोहिआ माइ ॥ मनमुखि अंधा आवै जाइ ॥३॥ हरि हरि नामु देवै जनु सोइ ॥ अनदिनु भगति गुर सबदी होइ ॥ गुरमति विरला बूझै कोइ ॥ नानक नामि समावै सोइ ॥४॥१२॥३२॥ {पन्ना 161} पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के। पूछउ = मैं पूछता हूँ। जाइ = जा के। पतीआइ = पतीजता है। ते = से।1। घाल = मेहनत। थाइ पाई = कबूल करता है।1। रहाउ। आपु = अपने आत्मिक जीवन को। पछाणै = पड़तालता है। सहजे = आत्मिक अडोलता में।2। दूजै भाइ = माया के प्यार में। महा बिखु = बड़ा जहर। खाइ = खा जाता है। पुति = पुत्र (के मोह) से। कुटंबि = परिवार (के मोह) से। ग्रिहि = घर (के मोह) से। माइ = माया।3। जनु = सेवक। अनदिनु = हर रोज।4। अर्थ: हे मेरे भाई! (गुरू की शरण पड़ के) सदा परमात्मा का नाम सिमरते रहो। गुरू के द्वारा की हुई सेवा भक्ति की मेहनत परमात्मा कबूल कर लेता है।1। रहाउ। जिन मनुष्यों ने गुरू के राह पर चल कर परमात्मा का नाम सिमरा है (जब) मैं उनसे (सिमरन की जाच) पूछता हूँ (तो वह बताते हैं कि) गुरू की बताई हुई सेवा से (ही) मनुष्य का मन (प्रभू सिमरन में) पतीजता है। (गुरू की शरण पड़ने वाले) वे मनुष्य परमात्मा का नाम-धन कमा के धनाढ हो जाते हैं। ये सद्बुद्धि पूरे गुरे से ही मिलती है।1। (गुरू के द्वारा जो मनुष्य) अपने आत्मिक जीवन की पड़ताल करता है, उसका मन पवित्र हो जाता है। वह इस जनम में ही माया के बंधनों से मुक्ति हासिल कर लेता है और परमात्मा को मिल जाता है। जो मनुष्य (गुरू की शरण पड़ के) परमात्मा के गुण गाता है, उसक बुद्धि श्रेष्ठ हो जाती है। वह सदैव आत्मिक अडोलता में टिका रहता है।2। (हे मेरे भाई!) माया के मोह में फंसे रहने से ईश्वर की सेवा-भक्ति नहीं हो सकती। अहंकार एक बड़ा जहर है। माया का मोह बड़ा जहर है (ये जहर मनुष्य के आत्मिक जीवन को) समाप्त कर देता है। माया (मनुष्य को) पुत्र (के मोह) के द्वारा, परिवार (के मोह) के द्वारा, घर (के मोह) के द्वारा ठगती रहती है। (माया के मोह में) अंधा हुआ मनुष्य अपने मन के पीछे चल के जनम मरण के चक्र में पड़ा रहता है।3। परमात्मा (गुरू के द्वारा जिस मनुष्य को) अपने नाम की दाति देता है, वह मनुष्य (उसका) सेवक बन जाता है। गुरू के शबद द्वारा ही हर रोज परमात्मा की भक्ति हो सकती है। गुरू की मति लेकर ही कोई विरला मनुष्य (जीवन उद्देश्य को) समझता है। और, हे नानक! वह मनुष्य परमात्मा के नाम में लीन रहता है।4।12।32। गउड़ी गुआरेरी महला ३ ॥ गुर सेवा जुग चारे होई ॥ पूरा जनु कार कमावै कोई ॥ अखुटु नाम धनु हरि तोटि न होई ॥ ऐथै सदा सुखु दरि सोभा होई ॥१॥ ए मन मेरे भरमु न कीजै ॥ गुरमुखि सेवा अम्रित रसु पीजै ॥१॥ रहाउ ॥ सतिगुरु सेवहि से महापुरख संसारे ॥ आपि उधरे कुल सगल निसतारे ॥ हरि का नामु रखहि उर धारे ॥ नामि रते भउजल उतरहि पारे ॥२॥ सतिगुरु सेवहि सदा मनि दासा ॥ हउमै मारि कमलु परगासा ॥ अनहदु वाजै निज घरि वासा ॥ नामि रते घर माहि उदासा ॥३॥ सतिगुरु सेवहि तिन की सची बाणी ॥ जुगु जुगु भगती आखि वखाणी ॥ अनदिनु जपहि हरि सारंगपाणी ॥ नानक नामि रते निहकेवल निरबाणी ॥४॥१३॥३३॥ {पन्ना 161} पद्अर्थ: गुर सेवा = गुरू की बताई सेवा भक्ति। अैथै = इस लोक मे। दरि = प्रभू की हजूरी में।1। भरमु = शक। अंम्रित रसु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस।1। रहाउ। संसारे = संसार में। उर = हृदय (उरस्)। भउजल = संसार समुंद्र।2। मनि = मन में। कमलु = हृदय कमल। अनहदु = एक रस (अनाहत् = बिना बजाए)।3। सची = सदा स्थिर। भगती = भक्तों ने। आखि = कह के, उचार के। सारंगपाणी = परमात्मा (सारंग = धनुष; पाणि = हाथ; जिसके हाथ में धनुष है, धर्नुधारी)। निरबाणी = निर्वाण, वासना रहित। निहकेवल = (निष्कैवल्य) शुद्ध।4। अर्थ: हे मेरे मन! (गुरू की बताई शिक्षा पर) शक नहीं करना चाहिए। गुरू की बताई सेवा-भक्ति करके आत्मिक जीवन देने वाला हरि नाम रस पीना चाहिए।1। रहाउ। गुरू की बताई सेवा करने का नियम सदा से ही चला आ रहा है (चारों युगों में ही परवान है)। कोई पूर्ण मनुष्य ही गुरू की बताई सेवा (पूरी श्रद्धा से) करता है। (जो मनुष्य गुरू की बताई कार पूरी श्रद्धा से करता है वह) कभी ना खत्म होने वाला हरि नाम धन (एकत्र कर लेता है, उस धन में कभी) घाटा नहीं पड़ता। (ये नाम धन एकत्र करने वाला मनुष्य) इस लोक में सदा आत्मिक आनंद पाता है, प्रभू की हजूरी में भी उसे शोभा मिलती है।1। जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ते हैं, वे संसार में महापुरुष माने जाते हैं। अपनी सारी कुलों को भी पार लंघा लेते हैं। वे परमात्मा का नाम सदा अपने दिल में संभाल के रखते हैं। प्रभू-नाम (के रंग) में रंगे हुए वो मनुष्य संसार समुंद्र से पार लांघ जाते हैं।2। जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ते हैं, वो अपने मन में सदा (सभी के) दास बन के रहते हैं, वे अपने अंदर से अहंकार दूर कर लेते हैं और उनका कमल रूपी हृदय खिला रहता है। उनके अंदर (सिफत सालाह का, जैसे, बाजा) एक रस बजता रहता है। उनकी सुरति प्रभू चरणों में टिकी रहती है। प्रभू नाम में रंगे हुए वे मनुष्य गृहस्थ में रहते हुए भी माया के मोह से निर्लिप रहते हैं।3। जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ते हैं (परमात्मा की सिफत सालाह में उचारी हुई) उनकी बाणी सदा ही अटल हो जाती है। हरेक युग में (सदा ही) भक्तजन वह बाणी उचार के (औरों को भी) सुनाते हैं। वह मनुष्य हर रोज सारंग पाणी प्रभू का नाम जपते हैं। हे नानक! जो मनुष्य (गुरू की शरण पड़ कर) प्रभू के नाम में रंगे जाते हैं, उनका जीवन पवित्र हो जाता है, वे वासना रहित हो जाते हैं।4।13।33। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |