श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गउड़ी गुआरेरी महला ३ ॥ सतिगुरु मिलै वडभागि संजोग ॥ हिरदै नामु नित हरि रस भोग ॥१॥ गुरमुखि प्राणी नामु हरि धिआइ ॥ जनमु जीति लाहा नामु पाइ ॥१॥ रहाउ ॥ गिआनु धिआनु गुर सबदु है मीठा ॥ गुर किरपा ते किनै विरलै चखि डीठा ॥२॥ करम कांड बहु करहि अचार ॥ बिनु नावै ध्रिगु ध्रिगु अहंकार ॥३॥ बंधनि बाधिओ माइआ फास ॥ जन नानक छूटै गुर परगास ॥४॥१४॥३४॥ {पन्ना 162}

पद्अर्थ: वडभागि = बड़ी किस्मत से।1।

गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के। जीति = जीत के। लाहा = लाभ, कमाई।1। रहाउ।

गिआनु = धर्म चर्चा। धिआनु = समाधि। चखि = चख के।2।

करम कांड = वह कर्म जो शास्त्रों अनुसार जनम समय विवाह के समय, मरने के समय और जनेऊ आदि और समयों में करने जरूरी समझे जाते हैं। आचार = धार्मिक रस्में। ध्रिगु = धृग, धिक्कारयोग्य।3।

बंधनि = बंधन में। फास = फांसी। परगास = रोशनी।4।

अर्थ: जो प्राणी गुरू की शरण पड़ कर परमात्मा का नाम सिमरता रहता है, वह मानस जनम की बाजी जीत के (जाता है, और) परमात्मा के नाम-धन की कमाई कमा लेता है।1। रहाउ।

जिस मनुष्य को बड़ी किस्मत से भले संजोगों से गुरू मिल जाता है, उसके दिल में परमात्मा का नाम बस जाता है। वह सदा परमात्मा के नाम रस का आनंद लेता है।1।

जिस मनुष्य को सत्गुरू का शबद मीठा लगता है, गुरू का शबद ही (उसके वास्ते) धर्म-चर्चा है (गुरू शबद ही उस वास्ते) समाधि है। पर किसी विरले भाग्यशाली मनुष्य ने गुरू की कृपा से (गुरू के मीठे शबद का रस) चख के देखा है।2।

जो लोग (जनम, जनेऊ, विवाह, किरिया आदिक समय शास्त्रों के अनुसार माने हुए) धार्मिक कर्म करते हैं व अन्य अनेको धार्मिक रस्में करते हैं, पर परमात्मा के नाम से वंचित रहते हैं (ये कर्मकाण्ड उनके अंदर) अहंकार (पैदा करता है और उनका जीवन) धिक्कारयोग्य ही (रहता है)।3।

हे दास नानक! (परमात्मा से विछुड़ा मनुष्य) माया की फांसी में, माया के बंधन में बंधा रहता है (ये तभी इस बंधन से) आजाद होता है जब गुरू (के शबद) का प्रकाश (उसे प्राप्त होता) है।4।14।34।

नोट:
गउड़ी गुआरेरी महला 3------14
गउड़ी महला 1----------------20
कुल----------------------------34


महला ३ गउड़ी बैरागणि ॥ जैसी धरती ऊपरिमेघुला बरसतु है किआ धरती मधे पाणी नाही ॥ जैसे धरती मधे पाणी परगासिआ बिनु पगा वरसत फिराही ॥१॥ बाबा तूं ऐसे भरमु चुकाही ॥ जो किछु करतु है सोई कोई है रे तैसे जाइ समाही ॥१॥ रहाउ ॥ इसतरी पुरख होइ कै किआ ओइ करम कमाही ॥ नाना रूप सदा हहि तेरे तुझ ही माहि समाही ॥२॥ इतने जनम भूलि परे से जा पाइआ ता भूले नाही ॥ जा का कारजु सोई परु जाणै जे गुर कै सबदि समाही ॥३॥ तेरा सबदु तूंहै हहि आपे भरमु कहाही ॥ नानक ततु तत सिउ मिलिआ पुनरपि जनमि न आही ॥४॥१॥१५॥३५॥ {पन्ना 162}

पद्अर्थ: ऊपर मेघुला = ऊपर का बादल। मधे = मध्य में, बीच में। बिनु पगा = पैरों के बगैर, बादल। फिराही = फिरते हैं।1।

बाबा = हे भाई! अैसे = इस तरह, ये श्रद्धा बना के। चुकाही = दूर करके। सोई = वह ही, वैसा ही। तैसे = उसी तरफ। जाइ = जा के। समाही = समा के, व्यस्त रहते हैं।1। रहाउ।

नाना = अनेकों।2।

भूलि परे से = भूले पड़े थे। जा = जब। ता = तब। जा का = जिस (प्रभू) का। कारजु = जगत रचना। परु जाणै = अच्छी तरह जानता है। सबदि = शबद में।3।

सबदु = हुकम। कहा ही = कहां? (भाव, कहीं नहीं रह जाता)। सिउ = साथ। पुनरपि = मुड़ मुड़ के। न आही = नहीं आते।4।

अर्थ: हे भाई! (आम भुलेखा ये है कि जीव, प्रभू से अलग अपनी हस्ती मान के अपने आप को कर्मों के करने वाले समझते हैं पर) तू अपना (ये) भुलेखा ये श्रद्धा बना के दूर कर कि प्रभू जैसा भी जिस जीव को बनाता है वैसा वह जीव बन जाता है, और उसी तरफ जीव व्यस्त रहते हैं।1। रहाउ।

(धरती और बादल का दृष्टांत ले के देख) जैसी धरती है वैसा ही ऊपर का बादल है, जो बरखा करता है। धरती में भी (वैसा ही) पानी है (जैसा बादलों में है)। (कूआँ खोदने से) जैसे धरती में से पानी निकल आता है वैसे ही बादल भी (पानी की) बरखा करते फिरते हैं। (जीवात्मा व परमात्मा में भी ऐसा ही फर्क समझो जैसे धरती के पानी और बादलों के पानी का है। पानी एक ही वही पानी है। जीव चाहे माया में फंसा हुआ है चाहे ऊँची उड़ाने भर रहा है– है एक ही परमात्मा का अंश)।1।

क्या स्त्री, क्या मर्द - तुझसे आकी हो के कोई कुछ नहीं कर सकते। (ये सब सि्त्रयां और मर्द) सदा तेरे ही अलग अलग रूप हैं, और आखिर में तेरे में ही समां जाते हैं।2।

(परमात्मा की याद से) भूल के जीव अनेकों जन्मों में पड़े रहते हैं। जब परमात्मा का ज्ञान प्राप्त हो जाता है तब गलत रास्ते से हट जाते हैं। यदि जीव गुरू के शबद में टिके रहें तो ये समझ आ जाती है कि जिस परमात्मा का ये जगत बनाया हुआ है, वही इसे अच्छी तरह समझता है।3।

(हे प्रभू!हर जगह) तेरा (ही) हुकम (बरत रहा) है। (हर जगह) तू खुद ही (मौजूद) है - (जिस मनुष्य के अंदर ये निश्चय बन जाए, उसे) भुलेखा कहां रह जाता है? हे नानक! (जिन मनुष्यों के अंदर से अनेकता का भुलेखा दूर हो जाता है, उनकी सुरति परमात्मा की ज्योति में मिली रहती है जैसे, हवा, पानी आदि हरेक) तत्व (अपने) तत्व से मिल जाता है। ऐसे मनुष्य मुड़-मुड़ के जन्मों में नहीं आते।4।1।15।35।

गउड़ी बैरागणि महला ३ ॥ सभु जगु कालै वसि है बाधा दूजै भाइ ॥ हउमै करम कमावदे मनमुखि मिलै सजाइ ॥१॥ मेरे मन गुर चरणी चितु लाइ ॥ गुरमुखि नामु निधानु लै दरगह लए छडाइ ॥१॥ रहाउ ॥ लख चउरासीह भरमदे मनहठि आवै जाइ ॥ गुर का सबदु न चीनिओ फिरि फिरि जोनी पाइ ॥२॥ गुरमुखि आपु पछाणिआ हरि नामु वसिआ मनि आइ ॥ अनदिनु भगती रतिआ हरि नामे सुखि समाइ ॥३॥ मनु सबदि मरै परतीति होइ हउमै तजे विकार ॥ जन नानक करमी पाईअनि हरि नामा भगति भंडार ॥४॥२॥१६॥३६॥ {पन्ना 162}

पद्अर्थ: कालै वसि = मौत के वश में, आत्मिक मौत के वश में। बाधा = बंधा हुआ। दूजै भाइ = माया के मोह में। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य।1।

मन = हे मन! गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के। निधानु = खजाना।1।

हठि = हठ से। मन हठि = मन के हठ के कारण। चीनिओ = पहचाना।2।

आपु = अपने आत्मिक जीवन को। पछाणिआ = परखा। मनि = मन में। अनदिनु = हर रोज। सुखि = आत्मिक आनंद में।3।

सबदि = शबद में। मरै = अहंकार से मरता है, अहंकार दूर करता है। परतीति = प्रतीति, श्रद्धा। करमी = (परमात्मा की) मेहर से ही (करम = बख्शिश)। पाईअनि = पाए जाते हैं, मिलते हैं। भण्डार = खजाने।4।

अर्थ: हे मेरे मन! गुरू के चरणों में सुरति जोड़। गुरू की शरण पड़ के परमात्मा का नाम खजाना इकट्ठा कर ले। (ये तूझे) परमात्मा की हजूरी में (तेरे किए कर्मों का लेखा करने के समय) सुर्खरू करेगा।1। रहाउ।

(जब तक) ये जगत माया के मोह में बंधा रहता है (तब तक ये) सारा जगत आत्मिक मौत के काबू में आया रहता है। अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य (सारे) काम अहंकार के आसरे करते हैं और उन्हें (आत्मिक मौत की ही) सजा मिलती है।1।

(माया के मोह में बंधे हुए जीव) चौरासी लाख जोनियों में फिरते रहते हैं। अपने मन के हठ के कारण (माया के मोह में फंसा जीव) जनम मरण के चक्कर में पड़ा रहता है। जो मनुष्य गुरू के शबद (की कद्र) को नहीं समझता वह मुड़ मुड़ जोनियों में पड़ता है।2।

जो मनुष्य गुरू के सन्मुख रहके आत्मिक जीवन को पड़तालता रहता है, उसके मन में परमात्मा का नाम आ बसता है। हर रोज परमात्मा की भगती (के रंग में) रंगा रहने के कारण वह परमात्मा के नाम में लीन रहता है वह आत्मिक आनंद में टिका रहता है।3।

जिस मनुष्य का मन गुरू के शबद में जुड़ने के कारण स्वै-भाव की ओर से मर जाता है, उसकी (गुरू के शबद में) श्रद्धा बन जाती है और वह अपने अंदर से अहंकार (आदि) विकार त्यागता है। हे दास नानक! परमात्मा के नाम के खजाने, परमात्मा की भगती के खजाने, परमात्मा की मेहर से ही मिलते हैं।4।2।16।36।

गउड़ी बैरागणि महला ३ ॥ पेईअड़ै दिन चारि है हरि हरि लिखि पाइआ ॥ सोभावंती नारि है गुरमुखि गुण गाइआ ॥ पेवकड़ै गुण समलै साहुरै वासु पाइआ ॥ गुरमुखि सहजि समाणीआ हरि हरि मनि भाइआ ॥१॥ ससुरै पेईऐ पिरु वसै कहु कितु बिधि पाईऐ ॥ आपि निरंजनु अलखु है आपे मेलाईऐ ॥१॥ रहाउ ॥ आपे ही प्रभु देहि मति हरि नामु धिआईऐ ॥ वडभागी सतिगुरु मिलै मुखि अम्रितु पाईऐ ॥ हउमै दुबिधा बिनसि जाइ सहजे सुखि समाईऐ ॥ सभु आपे आपि वरतदा आपे नाइ लाईऐ ॥२॥ मनमुखि गरबि न पाइओ अगिआन इआणे ॥ सतिगुर सेवा ना करहि फिरि फिरि पछुताणे ॥ गरभ जोनी वासु पाइदे गरभे गलि जाणे ॥ मेरे करते एवै भावदा मनमुख भरमाणे ॥३॥ मेरै हरि प्रभि लेखु लिखाइआ धुरि मसतकि पूरा ॥ हरि हरि नामु धिआइआ भेटिआ गुरु सूरा ॥ मेरा पिता माता हरि नामु है हरि बंधपु बीरा ॥ हरि हरि बखसि मिलाइ प्रभ जनु नानकु कीरा ॥४॥३॥१७॥३७॥ {पन्ना 162-163}

पद्अर्थ: पेइअड़ै = पिता के घर में, इस लोक में। दिन चारि है = चार दिन (रहने के वास्ते) मिले हैं, थोड़े दिन। लिखि = लिख के। पाइआ = (हरेक जीव के माथे पे) रख दिया है। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख हो के। पेवकड़ै = पिता के घर में, इस लोक में। संमलै = संभालती है। वासु = जगह। सहजि = आत्मिक अडोलता में। मनि = मन में।1।

ससुरे = ससुराल घर में, परलोक में। पेईअै = इस लोक में। कहु = बताओ। कितु बिधि = किस तरीके से? निरंजनु = माया के प्रभाव से रहित। अलखु = अदृष्ट। आपे = खुद ही।1। रहाउ।

देहि = तू देता है (देइ = देय, देता है)। मुखि = मुंह में। दुबिधा = दुचित्तापन, डाँवाडोल मानसिक अवस्था। सहजे = सहज, आत्मिक अडोलता में। सुखि = आत्मिक आनंद में। नाइ = नाम में।2।

गरबि = अहंकार के कारण। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। गरभे = गर्भ में। ऐवै = इस तरह।3।

प्रभि = प्रभू ने। धुरि = धुर से, अपनी हजूरी से। मसतकि = माथे पे। सूरा = सूरमा। बंधपु = रिश्तेदार। बीरा = वीर, भाई। प्रभ = हे प्रभू! कीरा = कीड़ा, नाचीज, विनम्र भाव में।4।

अर्थ: (हे सत्संगी! हे बहिन!) बता, वह पति प्रभू किस ढंग से मिल सकता है जो इस लोक में और परलोक में (हर जगह) बसता है? (हे जिज्ञासु जीव स्त्री!) वह प्रभू पति (हर जगह पर मौजूद होते हुए भी) माया के प्रभाव से परे है, और अदृश्य भी है। वह स्वयं ही अपना मेल कराता है।1। रहाउ।

परमात्मा ने (हरेक जीव के माथे पे यही लेख) लिख के रख दिए हैं कि हरेक को इस लोक में रहने के वास्ते थोड़े ही दिन मिले हुए हैं (फिर भी सब जीव माया के मोह में फंसे रहते हैं)। वह जीव स्त्री (लोक परलोक में) शोभा कमाती है, जो गुरू की शरण पड़ के परमात्मा के गुण गाती है। जो जीव-स्त्री इस पिता के घर में रहने के समय परमात्मा के गुण अपने दिल में संभालती है उसे परलोक में (प्रभू की हजूरी में) आदर मिल जाता है। गुरू के सन्मुख रहके वह जीवस्त्री (सदा) आत्मिक अडोलता में लीन रहती है। परमात्मा (का नाम) उसे अपने मन में प्यारा लगता है।1।

(हे परमात्मा!) तू स्वयं ही (सब जीवों का) मालिक है। जिस जीव को तू स्वयं ही मति देता है, उसीसे हरि नाम सिमरा जा सकता है। जिस मनुष्य को बड़े भाग्यों से गुरू मिल जाता है, उसके मुँह में आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस पड़ता है। उस मनुष्य के अंदर से अहंकार दूर हो जाता है। उसकी मानसिक डाँवाडोल दशा समाप्त हो जाती है। वह आत्मिक अडोलता में टिका रहता है। वह आत्मिक आनंद में मगन रहता है। (हे भाई!) हर जगह प्रभू स्वयं ही स्वयं मौजूद है। वह स्वयं ही जीवों कोअपने नाम में जोड़ता है।2।

अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य ज्ञान से हीन होते हैं (जीवन जुगति से) अंजान होते हैं। वे अहंकार में रहते हैं उन्हें परमात्मा का मेल नहीं होता। वे (अपने गुमान में रह के) सतिगुरू की शरण नहीं पड़ते (गलत रास्ते पर पड़ के) बार बार पछताते रहते हैं। वे मनुष्य जनम मरण के चक्कर में पड़े रहते हैं। इस चक्कर में उनका आत्मिक जीवन गल जाता है। मेरे करतार को यही अच्छा लगता है कि अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य जनम-मरण के चक्कर में भटकते रहें।3।

(जिस भाग्यशाली मनुष्य के) माथे पे मेरे हरि प्रभू ने अपनी धुर दरगाह से (बख्शिश का) अटॅल लेख लिख दिया, उसे (सब विकारों से हाथ दे के बचाने वाला) शूरवीर गुरू मिल जाता है, (गुरू की कृपा से) वह सदा परमात्मा का नाम सिमरता है।

(हे भाई!) परमात्मा का नाम ही मेरा पिता है नाम ही मेरी माँ है। परमात्मा (का नाम) ही मेरा संबंधी है मेरा भाई है। (मैं सदा परमात्मा के दर पर ही आरजू करता हूँ कि) हे प्रभू! हे हरी! ये नानक तेरा निमाणा दास है, इस पे बख्शिश कर और इसे (अपने चरणों में) जोड़े रख!4।13।17।37।

गउड़ी बैरागणि महला ३ ॥ सतिगुर ते गिआनु पाइआ हरि ततु बीचारा ॥ मति मलीण परगटु भई जपि नामु मुरारा ॥ सिवि सकति मिटाईआ चूका अंधिआरा ॥ धुरि मसतकि जिन कउ लिखिआ तिन हरि नामु पिआरा ॥१॥ हरि कितु बिधि पाईऐ संत जनहु जिसु देखि हउ जीवा ॥ हरि बिनु चसा न जीवती गुर मेलिहु हरि रसु पीवा ॥१॥ रहाउ ॥ हउ हरि गुण गावा नित हरि सुणी हरि हरि गति कीनी ॥ हरि रसु गुर ते पाइआ मेरा मनु तनु लीनी ॥ धनु धनु गुरु सत पुरखु है जिनि भगति हरि दीनी ॥ जिसु गुर ते हरि पाइआ सो गुरु हम कीनी ॥२॥ गुणदाता हरि राइ है हम अवगणिआरे ॥ पापी पाथर डूबदे गुरमति हरि तारे ॥ तूं गुणदाता निरमला हम अवगणिआरे ॥ हरि सरणागति राखि लेहु मूड़ मुगध निसतारे ॥३॥ सहजु अनंदु सदा गुरमती हरि हरि मनि धिआइआ ॥ सजणु हरि प्रभु पाइआ घरि सोहिला गाइआ ॥ हरि दइआ धारि प्रभ बेनती हरि हरि चेताइआ ॥ जन नानकु मंगै धूड़ि तिन जिन सतिगुरु पाइआ ॥४॥४॥१८॥३८॥

पद्अर्थ: ते = से। गिआनु = परमात्मा की जान पहिचान, गहरी सांझ। ततु = असलियत। बीचारा = विचारु। परगटु भई = प्रगट हुई। मुरारा = मुरारि (मुर+अरि, मुर दैंत का वैरी) परमात्मा। सिवि = शिव ने, कल्याण स्वरूप प्रभू ने। सकति = शक्ति, माया। धुरि = धुर से।1।

कितु = किस के द्वारा? कितु बिधि = किस तरीके से? देखि = देख के। हउ = मैं। जीवा = जी पड़ता है, मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा हो जाता है। चसा = पल का तीसवां हिस्सा, समय, रत्ती भर भी। गुर मेलहु = गुरू (से) मिला दो।1। रहाउ।

गावा = मैं गाऊँ। सुणी = मैं सुनूँ। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। ते = से। लीनी = लीन हो गया। धनु धनु = सलाहने योग (ष्)। जिनि = जिसने।2।

मूढ़ मुगध = मूर्ख, महा मूर्ख। निसतारे = निस्तारा, पार लंघाना।3।

सहजु = आत्मिक अडोलता। मनि = मन में। घरि = घर में, हृदय घर में। सोहिला = सिफत सालाह के गीत, खुशी के गीत। प्रभु = हे प्रभू! नानक मंगै = नानक मांगता है (नानक = हे नानक!)। जिन = जिन्होंने (शब्द ‘जिन’ बहुवचन है, ‘जिनि’ एकवचन है)।4।

अर्थ: हे संत जनो!जिस परमात्मा का दर्शन करके मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा होता है (बताओ) उसे किस तरीके से मिला जा सकता है? उस प्रभू से बिछुड़ के मैं रत्ती भर समय के लिए भी (आत्मिक जीवन) जी नहीं सकती। (हे संत जनों!) मुझे गुरू (से) मिलाओ (ता कि गुरू की कृपा से) मैं परमात्मा के नाम का रस पी सकूँ।1। रहाउ।

जिन मनुष्यों ने गुरू से (परमात्मा के साथ) गहरी सांझ (डालनी) सीख ली, (जगत के) मूल परमात्मा (के गुणों) को विचारना (सीख लिया)। परमात्मा का नाम सिमर सिमर के उनकी मति (जो पहले विकारों के कारण) मैली (हुई पड़ी थी) निखर उठी। कल्याण-स्वरूप परमात्मा ने (उनके अंदर से) माया का (प्रभाव) मिटा दिया, (उनके अंदर से माया के मोह का) अंधेरा दूर हो गया। (पर) परमात्मा का नाम उन्हें ही प्यारा लगता है जिनके माथे पे धुर से ही (खुद परमात्मा ने अपने नाम की दाति का लेख) लिख दिया।1।

(हे संत जनों! प्यारे गुरू की मेहर से) मैं नित्य परमात्मा के गुण गाता रहता हूँ। मैं नित्य परमात्मा का नाम सुनता रहता हूँ। उस परमात्मा ने मुझे ऊँची आत्मिक अवस्था बख्श दी है। गुरू के द्वारा मैंने परमात्मा के नाम का स्वाद हासिल किया है, (अब) मेरा मन मेरा तन (उस स्वाद में) मगन रहता है। (हे संत जनो!) जिस गुरू ने (मुझे) परमात्मा की भक्ति (की दाति) दी है (मेरे वास्ते तो वह) सत्पुरख गुरू (सदा ही) सलाहने योग्य है। जिस गुरू के द्वारा मैंने परमात्मा का नाम प्राप्त किया है उस गुरू को मैंने अपना बना लिया है।2।

(हे भाई!सारे जगत का) शहनशाह परमात्मा (सब जीवों को सब) गुणों की दाति देने वाला है। हम (जीव) उवगुणों से भरे रहते हैं। (जैसे) पत्थर (पानी में डूब जाते हैं, वैसे ही हम) पापी (जीव विकारों के समुंद्र में) डूबे रहते हैं। परमात्मा (हमें) गुरू की मति दे कर (उस समुंद्र से) पार लंघाता है।

हे प्रभू! तू पवित्र स्वरूप है। तू गुण बख्शने वाला है। हम जीव अवगुणों से भरे पड़े हैं। हे हरी! हम तेरी शरण आए हैं, (हमें अवगुणों से) बचा ले। (हम) मूर्खों को महामूर्खों को (विकारों के समुंद्र में से) पार लंघा ले।3।

जिन मनुष्यों ने परमात्मा को (अपने) मन में (सदा) सिमरा है, वे गुरू की मति पर चल कर सदैव आत्मिक अडोलता में रहते हैं, (आत्मिक) आनंद लेते हैं। जिन्हें हरी प्रभू सज्जन मिल जाता है, वह अपने हृदय घर मेंपरमात्मा के सिफत सालाह के गीत गाते रहते हैं।

हे हरी! हे प्रभू! मिहर कर, (मेरी) विनती (सुन)। (मुझे) अपने नाम का सिमरन दे। (हे प्रभू! तेरा) दास नानक (तेरे दर से) उन मनुष्यों के चरणों की धूड़ मांगता है जिन्हें (तेरी मेहर से) गुरू मिल गया है।4।4।18।38।

नोट:
गउड़ी बैरागणि महला ३ के --------4 शबद
गउड़ी गुआरेरी महला ३ के -------14 शबद
कुल:----------------------------------18
गउड़ी महला १----------------------20 शबद
कुल----------------------------------38

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh