श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 171 गउड़ी पूरबी महला ४ ॥ इहु मनूआ खिनु न टिकै बहु रंगी दह दह दिसि चलि चलि हाढे ॥ गुरु पूरा पाइआ वडभागी हरि मंत्रु दीआ मनु ठाढे ॥१॥ राम हम सतिगुर लाले कांढे ॥१॥ रहाउ ॥ हमरै मसतकि दागु दगाना हम करज गुरू बहु साढे ॥ परउपकारु पुंनु बहु कीआ भउ दुतरु तारि पराढे ॥२॥ जिन कउ प्रीति रिदै हरि नाही तिन कूरे गाढन गाढे ॥ जिउ पाणी कागदु बिनसि जात है तिउ मनमुख गरभि गलाढे ॥३॥ हम जानिआ कछू न जानह आगै जिउ हरि राखै तिउ ठाढे ॥ हम भूल चूक गुर किरपा धारहु जन नानक कुतरे काढे ॥४॥७॥२१॥५९॥ {पन्ना 171} पद्अर्थ: मनूआ = अंजान मन। खिनु = रत्ती भर भी। बहु रंगी = बहुत रंग तमाशों में (फस के)। दह = दस। दिसि = दिशाओं में, की ओर। चलि = चल के, दौड़ के। हाढे = भटकता है। ठाढे = खड़ा हो गया।1। लाले = गुलाम। कांढे = बहलाते हैं।1। रहाउ। मसतकि = माथे पर। दागु = निशान। दगाना = दागा गया। साढे = सांढे, इकट्ठा कर लिया है। पुंनु = भलाई, नेकी। भउ = भव सागर। दुतरु = (दुस्तर) जिससे तैरना मुश्किल हो। पराढे = पार कर दिया है।2। रिदै = हृदय में। कूरे = झूठे। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाले। गरभि = गर्भ में, योनियों के चक्र में। गलाढे = गलते हैं।3। न जानह = हम नहीं जानते। आगै = आने वाले समय में। ठाढे = खड़े हैं। कुतरे = कुत्ते, कूकर। काढे = कहलाते हैं।4। अर्थ: हे राम! मैं गुरू का गुलाम कहलाता हूँ।1। रहाउ। (मेरा) ये अंजान मन बहुत रंग-तमाशों में (फंस के) छिन भर भी टिकता नहीं, दसों दिशाओं में दौड़ दौड़ के भटकता है। (पर अब) बड़े भाग्यों से (मुझे) पूरा गुरू मिल पड़ा है। उसने प्रभू (-नाम सिमरन का) उपदेश दिया है (जिस की बरकति से) मन शांत हो गया है।1। (पूरे गुरू ने मेरे पर) बहुत परोपकार किए हैं, भलाई की है, मुझे उस संसार समुंद्र से पार लंघा दिया है, जिससे पार होना बहुत मुश्किल था। (गुरू के उपकार का ये) बहुत करजा (मेरे सिर पर) इकट्ठा हो गया है। (ये कर्जा उतर नहीं सकता, उसके बदले गुरू का गुलाम बन गया हूँ, और) मेरे माथे पे (गुलामी का) निशान दागा गया है।2। जिन मनुष्योंकेहृदय में परमात्मा का प्यार नहीं होता (अगर वे बाहर लोकाचार वश प्यार का कोई दिखावा करते हैं, तो) वे झूठी उधेड़-बुन ही करते हैं। जैसे पानी में (पड़ा) कागज गल जाता है वैसे ही अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य (प्रभू प्रीति से वंचित होने के कारण) योनियों के चक्र में (अपने आत्मिक जीवन की तरफ से) गल जाते हैं।3। (पर हम जीवों की कोई चतुराई समझदारी काम नहीं कर सकती) ना (अब तक) हम जीव कोई चतुराई-अक्लमंदी कर सके हैं। ना ही भविष्य में स्मर्थ होंगे। जैसे परमात्मा हमें रखता है उसी हालात में हम टिकते हैं। हे दास नानक! (उसके दर पर अरदास, प्रार्थना ही फॅबती है। अरदास करो और कहो-) हे गुरू!हमारी भूलें चूकें (अनदेखा कर के हमारे ऊपर) मेहर करो। हम (तुम्हारे दर पर) कुत्ते कहलवाते हैं।4।7।21।59। गउड़ी पूरबी महला ४ ॥ कामि करोधि नगरु बहु भरिआ मिलि साधू खंडल खंडा हे ॥ पूरबि लिखत लिखे गुरु पाइआ मनि हरि लिव मंडल मंडा हे ॥१॥ करि साधू अंजुली पुंनु वडा हे ॥ करि डंडउत पुनु वडा हे ॥१॥ रहाउ ॥ साकत हरि रस सादु न जानिआ तिन अंतरि हउमै कंडा हे ॥ जिउ जिउ चलहि चुभै दुखु पावहि जमकालु सहहि सिरि डंडा हे ॥२॥ हरि जन हरि हरि नामि समाणे दुखु जनम मरण भव खंडा हे ॥ अबिनासी पुरखु पाइआ परमेसरु बहु सोभ खंड ब्रहमंडा हे ॥३॥ हम गरीब मसकीन प्रभ तेरे हरि राखु राखु वड वडा हे ॥ जन नानक नामु अधारु टेक है हरि नामे ही सुखु मंडा हे ॥४॥८॥२२॥६०॥ {पन्ना 171} पद्अर्थ: कामि = काम से। करोधि = क्रोध से। नगरु = शरीर नगर। साधू = गुरू। खंडल = टोटे, अंश (खण्ड = a piece)। खंडा = नाश कर देता। पूरबि = पूर्बले जनम में। मनि = मन में। मंडल = रौशनी के चक्र (जैसे सूर्य व चंद्रमा के चारों तरफ चक्र)। मंडा = सजाया।1। अंजुली = (अंजुलि, अंजलि = कृ = दानों हाथ जोड़ कर नमस्कार करने के लिए सिर तक पहुँचाने) हाथ जोड़ के अरदास। पुंनु = भलाई, भला काम। डंडउत = दण्डवत्, डण्डे की तरह सीधे लेट के प्रणाम।1। रहाउ। साकत = रॅब से टूटे हुए, माया में ग्रसे जीव। चलहि = चलते हैं। जम कालु = मौत, आत्मिक मौत। सिरि = सिर पर।2। नामि = नाम में। भव = संसार, संसार समुंद्र। सोभ = शोभा। खंड = खण्ड, हिस्सा।3। मसकीन = आजिज। आधारु = आसरा। मंडा = मिलता।4। अर्थ: (हे भाई!) गुरू के आगे हाथ जोड़ के नमस्कार कर, ये बड़ा नेक काम है। गुरू के आगे डण्डवत की, ये बड़ा भला काम है।1। (हे भाई!) ये शरीर रूपी नगर काम-क्रोध से बहुत भरा रहता है (गंदा हुआ रहता है), गुरू को मिल के (काम-क्रोध आदि के) सारे अंश नाश कर लिए जाते हैं। पूर्व जनम में (किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार जिस मनुष्य के माथे पर) लेख लिखे जाते हैं, उसे गुरू मिल जाता है, और उसके मन में, हरि चरणों में सुरति जोड़ने की बरकति से आत्मिक रौशनी की सजावट हो जाती है।1। माया के आँगन में ग्रसे मनुष्य परमात्मा के नाम के रस का स्वाद नहीं जानते, उनके अंदर अहंकार का काँटा (टिका रहता) है। वह मनुष्य ज्यों ज्यों (जीवन मार्ग में) चलते हैं त्यों त्यों (वह अहंकार का काँटा उनको) चुभता है, वे दुख पाते हैं, वे अपने सिर पर आत्मिक मौत रूपी डंडा (डण्डे की चोट) बर्दाश्त करते रहते हैं।2। परमात्मा की भक्ति करने वाले मनुष्य परमात्मा के नाम में लीन रहते हैं। उनके जनम मरण (के चक्र) का दुख संसार समुंद्र (के विकारों) का दुख नाश हो जाता है। उन्हें नाश-रहित सर्व-व्यापक परमेश्वर मिल जाता है, और ब्रह्मण्ड के सारे खण्डों में उनकी बहुत शोभा होती है।3। हे प्रभू! हे हरी! हम जीव गरीब हैं, आजीज हैं, तेरे हैं, तू ही हमारा सब से बड़ा आसरा है। हमारी रक्षा कर। हे दास नानक! जिस मनुष्य ने परमात्मा के नाम को (जिंदगी का) आसरा-सहारा बनाया है, वह परमात्मा के नाम में ही सदैव आत्मिक आनंद प्राप्त करता है।4।8।22।60। गउड़ी पूरबी महला ४ ॥ इसु गड़ महि हरि राम राइ है किछु सादु न पावै धीठा ॥ हरि दीन दइआलि अनुग्रहु कीआ हरि गुर सबदी चखि डीठा ॥१॥ राम हरि कीरतनु गुर लिव मीठा ॥१॥ रहाउ ॥ हरि अगमु अगोचरु पारब्रहमु है मिलि सतिगुर लागि बसीठा ॥ जिन गुर बचन सुखाने हीअरै तिन आगै आणि परीठा ॥२॥ मनमुख हीअरा अति कठोरु है तिन अंतरि कार करीठा ॥ बिसीअर कउ बहु दूधु पीआईऐ बिखु निकसै फोलि फुलीठा ॥३॥ हरि प्रभ आनि मिलावहु गुरु साधू घसि गरुड़ु सबदु मुखि लीठा ॥ जन नानक गुर के लाले गोले लगि संगति करूआ मीठा ॥४॥९॥२३॥६१॥ {पन्ना 171} पद्अर्थ: गढ़ = किला (शरीर)। राइ = राजा, प्रकाश रूप। सादु = स्वाद, आनंद। धीठा = ढीठ (बार बार विकारों की तरफ परतने की जिद करने वाला)। दइआलि = दयालु ने। अनुग्रहु = कृपा।1। लिव = लगन।1। रहाउ। अगमु = अपहुँच, अगोचरु = (अ+गो+चरु) जिस तक ज्ञानेंद्रियों की पहुँच ना हो सके। मिलि = मिल के। लागि = लग के। बसीठा = बिचौला, वकील। सुखाने = प्यारे लगे। हीअरै = हृदय में। आणि = ला के। परीठा = परोस धरा।2। हीअरा = हृदय। कठोर = कड़ा, निर्दयी । कार करीठा = कालख ही कालख। बिसीअर = साँप। कउ = को। फोलि = फरोल के।3। प्रभ = हे प्रभू ! आनि = ला के। घसि = घिसा के। गरुड़ = साँप का जहर दूर करने वाली दवाई। मुखि = मुंह में। लीठा = चूस ली। लाले गोले = गुलाम सेवक। करूआ = कड़वा।4। अर्थ: (हे भाई!) गुरू (के चरणों में) लिव (लगा के) परमात्मा की सिफत सालाह करो। (दुनिया के सब रसों से ये रस) मीठा है।1। रहाउ। इस (शरीर-) किले में (जगत का) राजा हरी परमात्मा बसता है, (पर, विकारोंके स्वादों में) ढीठ बने मनुष्य को (अंदर बसते परमात्मा के मिलाप का कोई) आनंद नहीं आता। जिस मनुष्य पर दीनों पर दया करने वाले परमात्मा ने कृपा की, उसने गुरू के शबद द्वारा (हरी नाम रस) चख के देख लिया है (कि ये सचमुच ही मीठा है)।1। जो हरी पारब्रह्म अपहुँच है जिस तक मनुष्य के ज्ञानेंद्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। वह हरी प्रभू गुरू को मिल के गुरू वकील के चरणों में लग के (ही मिलता है)। जिन मनुष्यों को गुरू के वचन हृदय में प्यारे लगते हैं, गुरू उनके आगे (परमात्मा का नाम अमृत) ला के परोस देता है।2। अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य का हृदय बहुत कठोर होता है। उनके अंदर (विकारों की) कालिख ही कालिख होती है। साँप को कितना ही दूध पिलाए जाएं पर उसके अंदर से जहर ही निकलता है (यही हालत मनमुख की होती है)।3। हे हरी! हे प्रभू! (मेहर कर) मुझे साधु गुरू ला के मिला। मैं गुरू का शबद अपने मुंह में बसाऊँ, और मेरे अंदर से विकारों का जहर दूर हो। जैसे साँप का जहर दूर करने वाली बूटी घिसा के मुंह में चूसने से साँप का जहर उतरता है। हे दास नानक! (कह–हम) गुरू के गुलाम हैं, सेवक हैं, गुरू की संगति में बैठने से कड़वा (स्वाभाव) मीठा हो जाता है4।9।23।61। गउड़ी पूरबी महला ४ ॥ हरि हरि अरथि सरीरु हम बेचिआ पूरे गुर कै आगे ॥ सतिगुर दातै नामु दिड़ाइआ मुखि मसतकि भाग सभागे ॥१॥ राम गुरमति हरि लिव लागे ॥१॥ रहाउ ॥ घटि घटि रमईआ रमत राम राइ गुर सबदि गुरू लिव लागे ॥ हउ मनु तनु देवउ काटि गुरू कउ मेरा भ्रमु भउ गुर बचनी भागे ॥२॥ अंधिआरै दीपक आनि जलाए गुर गिआनि गुरू लिव लागे ॥ अगिआनु अंधेरा बिनसि बिनासिओ घरि वसतु लही मन जागे ॥३॥ साकत बधिक माइआधारी तिन जम जोहनि लागे ॥ उन सतिगुर आगै सीसु न बेचिआ ओइ आवहि जाहि अभागे ॥४॥ हमरा बिनउ सुनहु प्रभ ठाकुर हम सरणि प्रभू हरि मागे ॥ जन नानक की लज पाति गुरू है सिरु बेचिओ सतिगुर आगे ॥५॥१०॥२४॥६२॥ पद्अर्थ: हरि अरथि = हरी (के मिलाप) की खातिर। हम = मैं। दातै = दाते ने। द्रिढ़ाइआ = (हृदय में) पक्का कर दिया। मुखि = मुंह पर। मसतकि = माथे पर। सभाग = भाग्य वाले।1। लिव = लगन। लागै = लगॅती है।1। रहाउ। घटि घटि = हरेक घट में। रमईआ = सोहना राम। रमत = व्यापक। सबदि = शबद के द्वारा। हउ = मैं। देवउ = मैं देता हूँ। कउ = को। काटि = काट के।2। अंधिआरै = (माया के मोह के) अंधकार में। दीपक = (ज्ञान का) दिया। आनि = ला के। गिआनि = ज्ञान के द्वारा, प्रभू के साथ गहरी सांझ के द्वारा। घरि = घर में। लही = ढूँढ ली।3। साकत = ईश्वर से टूटे हुए लोग। बधिक = शिकारी, हैंसियारे, निर्दयी। जम = मौत, आत्मिक मौत। जोहनि लागे = तॅक में रखती है। उन = उन (साकतों) ने। ओइ = (शब्द ‘ओह’ का बहुवचन।)।4। हमरा बिनउ = मेरी बिनती। प्रभ = हे प्रभू! मागे = मांगता हूं। लज = लाज। पाति = पति, इज्जत । अर्थ: (हे भाई!) गुरू की मति पर चलने से ही राम-हरी के (चरणों में) लगन लगती है।1। रहाउ। (हे भाई!) हरी के मिलाप की खातिर मैंने अपना शरीर पूरे गुरू के आगे बेच दिया है। दाते सत्गुरू ने (मेरे दिल में) हरी का नाम पक्का कर दिया है। मेरे मुंह पर मेरे माथे पर भाग्य जाग पड़े हैं। मैं भाग्यशाली हो गया हूँ।1। (हलांकि वह) सुंदर राम हरेक शरीर में व्यापक है (फिर भी) गुरू के शबद के द्वारा (ही उससे) लगन लगती है। मैं गुरू को अपना मन अपना तन देने को तैयार हूँ (अपना सिर) काट के देने को तैयार हूँ। गुरू के बचनों से ही मेरी भटकना, मेरा डर दूर हो सकता है।2। (माया के मोह के) अंधेरे में (फंसे हुए जीव के अंदर गुरू ही ज्ञान का) दीपक ला के प्रज्जवलित करता है। गुरू के दिए ज्ञान के द्वारा ही (प्रभू चरणों में लगन लगती है)। अज्ञानता का अंधकार पूरे तौर पर नाश हो जाता है, हृदय घर में प्रभू का नाम पदार्थ मिल जाता है। मन (मोह की नींद में से) जाग पड़ता है।3। माया को अपनी जिंदगी का आसरा बनाने वाले मनुष्य ईश्वर से टूट जाते हैं, निर्दयी हो जाते हैं। आत्मिक मौत उनको अपने घेरे में रखती है। वे मनुष्य सतिगुरू के आगे अपना सिर नहीं बेचते (वे अपने अंदर से अहंकार नहीं गवाते) वे बद्किस्मत जनम मरण के चक्र में पड़े रहते हैं।4। हे प्रभू! हे ठाकुर! मेरी बिनती सुनो, मैं तेरी शरण आया हूँ। मैं तुझसे तेरा नाम माँगता हूँ। दास नानक की लाज इज्जत (रखने वाला) गुरू ही है। मैंने सत्गुरू के आगे अपना सिर बेच दिया है (मैंने नाम के बदले में अपना आप गुरू के हवाले कर दिया है)।5।10।24।62। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |