श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गउड़ी पूरबी महला ४ ॥ हम अहंकारी अहंकार अगिआन मति गुरि मिलिऐ आपु गवाइआ ॥ हउमै रोगु गइआ सुखु पाइआ धनु धंनु गुरू हरि राइआ ॥१॥ राम गुर कै बचनि हरि पाइआ ॥१॥ रहाउ ॥ मेरै हीअरै प्रीति राम राइ की गुरि मारगु पंथु बताइआ ॥ मेरा जीउ पिंडु सभु सतिगुर आगै जिनि विछुड़िआ हरि गलि लाइआ ॥२॥ मेरै अंतरि प्रीति लगी देखन कउ गुरि हिरदे नालि दिखाइआ ॥ सहज अनंदु भइआ मनि मोरै गुर आगै आपु वेचाइआ ॥३॥ हम अपराध पाप बहु कीने करि दुसटी चोर चुराइआ ॥ अब नानक सरणागति आए हरि राखहु लाज हरि भाइआ ॥४॥११॥२५॥६३॥ {पन्ना 172}

पद्अर्थ: हम = हम जीव। गुरि मिलिअै = जब गुरू मिल जाए। आपु = स्वै भाव। सुखु = आत्मिक आनंद। धनु धंनु = सलाहने योग्य।1।

बचनि = बचनों के द्वारा, उपदेश की बरकति से।1। रहाउ।

हीअरै = हृदय में। राइ = प्रकाश रूप। गुरि = गुरू ने। मारगु = रास्ता। पंथु = रास्ता। जिउ = जिंद, जीवात्मा। पिंडु = शरीर। जिनि = जिस ने, क्योंकि उसने। गलि = गले से।2।

गुरि = गुरू ने। सहज अनंदु = आत्मिक अडोलता का सुख। मनि मोरै = मेरे मन में।3।

कीने = किए, करते रहे। दुसटी = दुष्टता, विकार। चोर चुराइआ = चोरों की तरह चोरी की। हरि भाइआ = अगर, हे हरी! तुझे ठीक लगे, यदि तेरी मेहर हो।4।

अर्थ: गुरू के उपदेश की बरकति से ही राम से हरी से मिलाप होता है।1। रहाउ।

(गुरू के बगैर) हम जीव अहंकारी हुए रहते हैं। हमारी मति अहंकार व अज्ञानता वाली बनी रहती है। जब गुरू मिल जाए, तो स्वैभाव दूर हो जाता है। (गुरू की मेहर से जब) अहंकार का रोग दूर होता है, तो आत्मिक आनंद मिलता है। ये सारी मेहर गुरू की ही है, गुरू की ही है।1।

(गुरू की कृपा से ही) मेरे हृदय में परमात्मा (के चरणों) की प्रीति पैदा हुई है। गुरू ने (ही परमात्मा के मिलाप का) रास्ता बताया है। मैंने अपनी जीवात्मा, अपना शरीर सब कुछ गुरू के आगे रख दिया है क्योंकि गुरू ने ही मुझ बिछुड़े हुए को परमात्मा के गले से लगा दिया है।2।

(गुरू की कृपा से ही) मेरे अंदर परमात्मा का दर्शन करने की चाहत पैदा हुई, गुरू ने (ही) मुझे मेरे दिल में बसता मेरे साथ बसता परमात्मा दिखा दिया। मेरे मन में (अब) आत्मिक अडोलता का सुख पैदा हो गया है, (उसके बदले में) मैंने अपना आप गुरू के आगे बेच दिया है।3।

मैं बहत सारे पाप अपराध करता रहा, कई बुरे कर्म करता रहा और छुपाता रहा जैसे चोर अपनी चोरी छुपाते हैं। पर अब, हे नानक! (कह–) हे हरी! मैं तेरी शरण आया हूँ, अगर तेरी मेहर हो तो मेरी इज्जत रख (मुझे विकारों से बचाए रख)।4।11।25।63।

गउड़ी पूरबी महला ४ ॥ गुरमति बाजै सबदु अनाहदु गुरमति मनूआ गावै ॥ वडभागी गुर दरसनु पाइआ धनु धंनु गुरू लिव लावै ॥१॥ गुरमुखि हरि लिव लावै ॥१॥ रहाउ ॥ हमरा ठाकुरु सतिगुरु पूरा मनु गुर की कार कमावै ॥ हम मलि मलि धोवह पाव गुरू के जो हरि हरि कथा सुनावै ॥२॥ हिरदै गुरमति राम रसाइणु जिहवा हरि गुण गावै ॥ मन रसकि रसकि हरि रसि आघाने फिरि बहुरि न भूख लगावै ॥३॥ कोई करै उपाव अनेक बहुतेरे बिनु किरपा नामु न पावै ॥ जन नानक कउ हरि किरपा धारी मति गुरमति नामु द्रिड़ावै ॥४॥१२॥२६॥६४॥ {पन्ना 172}

पद्अर्थ: बाजै = बजता है, पूरा प्रभाव डाल लेता है (जैसे ढोल बाजों में कोई छोटी-मोटी आवाज सुनी नहीं जा सकती। अनाहदु = (अनाहत् = बिना बजाए) एक रस। धनु धंनु = शाबाश योग्य। लिव = लगन।1।

गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य।1। रहाउ।

हमरा = हमारा, मेरा। मलि मलि = मल मल के, बड़े प्रेम से। धोवह = हम धोते हैं, मैं धोता हूँ।2।

रसाइणु = (रस+आयन) रसों का घर, सब से श्रेष्ठ रस। जिहवा = जीभ। रसिक रसिक = मुड़ मुड़ रस ले के, बड़े आनंद से। रसि = रस में। आघाने = तृप्त हुए। भूख = तृष्णा, माया की भूख।3।

कउ = को। द्रिढ़ावै = पक्का कर देता है।4।

अर्थ: गुरू के सन्मुख रह के ही मनुष्य (अपने अंदर) हरी के मिलाप की लगन पैदा कर सकता है।1। रहाउ।

गुरू की मति पर चलने से ही गुरू का शबद मनुष्य के हृदय में एक-रस प्रभाव डाले रखता है (और अन्य कोई माया का रस अपना जोर नहीं डाल सकता), गुरू के उपदेश की बरकति से ही मनुष्य का मन परमात्मा की सिफत सालाह के गीत गाता है। कोई बड़े भाग्यों वाला मनुष्य गुरू का दर्शन प्राप्त करता है। सदके गुरू से, सदके गुरू पे। गुरू (मनुष्य के अंदर परमात्मा के मिलाप की) लगन पैदा करता है।1।

(हे भाई!) पूरा गुरू ही मेरा ठाकुर है, मेरा मन गुरू की बताई हुई कार ही करता है। मैं अपने गुरू के पैर मल मल के धोता हूँ। क्योंकि, गुरू मुझे परमात्मा के सिफत सालाह की बातें सुनाता है।2।

(हे भाई! जिन मनुष्यों के) हृदय में गुरू के उपदेश की बरकति से सब रसों का घर प्रभू का नाम बस जाता है, (जिन की) जीभ परमात्मा के गुण गाती है, उनके मन सदैव आनंद से परमात्मा के नाम रस में तृप्त रहते हैं। उन्हें फिर कभी माया की भूख नहीं सताती।3।

पर कोई भी मनुष्य परमात्मा का नाम (परमात्मा की) कृपा के बिना हासिल नहीं कर सकता, बेशक कोई बहुत सारे अनेकों उपाय करता फिरे। हे नानक! जिस दास पे परमात्मा मेहर करता है, गुरू के उपदेश की बरकति से उसकी मति में परमात्मा अपना नाम पक्का कर देता है।4।12।26।64।

नोट:
गउड़ी पूरबी महला ४---------------12 शबद
गउड़ी गुआरेरी महला ४------------06 शबद
गउड़ी बैरागणि महला ४-----------08 शबद
गउड़ी महला ३---------------------18 शबद
गउड़ी महला १---------------------20 शबद
कुल जोड़:---------------------------64


रागु गउड़ी माझ महला ४ ॥ गुरमुखि जिंदू जपि नामु करमा ॥ मति माता मति जीउ नामु मुखि रामा ॥ संतोखु पिता करि गुरु पुरखु अजनमा ॥ वडभागी मिलु रामा ॥१॥ गुरु जोगी पुरखु मिलिआ रंगु माणी जीउ ॥ गुरु हरि रंगि रतड़ा सदा निरबाणी जीउ ॥ वडभागी मिलु सुघड़ सुजाणी जीउ ॥ मेरा मनु तनु हरि रंगि भिंना ॥२॥ आवहु संतहु मिलि नामु जपाहा ॥ विचि संगति नामु सदा लै लाहा जीउ ॥ करि सेवा संता अम्रितु मुखि पाहा जीउ ॥ मिलु पूरबि लिखिअड़े धुरि करमा ॥३॥ सावणि वरसु अम्रिति जगु छाइआ जीउ ॥ मनु मोरु कुहुकिअड़ा सबदु मुखि पाइआ ॥ हरि अम्रितु वुठड़ा मिलिआ हरि राइआ जीउ ॥ जन नानक प्रेमि रतंना ॥४॥१॥२७॥६५॥ {पन्ना 172-173}

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरू के सन्मुख हो के। जिंदू = हे जिंदे! हे जीवात्मा! करंमा = भाग्य (जाग पड़े हैं)। मति = (गुरू की दी हुई) अक्ल। जीउ = जीवन (का आसरा)। मुखि = मुंह से। अजनमा = जन्म रहित।1।

जोगी = (प्रभू चरणों में) जुड़ा हुआ। रंगु = आत्मिक आनंद। माणी = मैं माणता हूँ। रंगि = आनंद में। निरबाणी = वासना रहित। सुघड़ = (जीवन की) सोहणी घाड़त वाला। सुजाणी = सियानी।2।

जपाहा = हम जपें। मिलि = मिल के (शब्द ‘मिलु’ और ‘मिलि’ के अर्थ में फर्क याद रखने योग्य है)। लाहा = लाभ, फायदा। पाहा = हम पाएं। धुरि = धुर से, प्रभू की हजूरी से। करमा = बख्शिश (का लेख)।3।

सावणि = सावन में। वरसु = बादल। अंम्रिति = अमृत से, जल से। कुहुकिअड़ा = ‘कुह कुह’ करता है, अपनी मीठी बोली बोलता है। मुखि = मुंह में। वुठड़ा = आ बसा। प्रेमि = प्रेम में। रतंना = रंगा हंआ।4।

अर्थ: हे (मेरी) जीवात्मा! गुरू की शरण पड़ के (परमात्मा का) नाम जपो। (तेरे) भाग्य (जाग गए हैं)। (हे जीवात्मा! गुरू की दी हुई) मति को (अपनी) माँ बना, और मति को ही जीवन (का आसरा बना)। राम का नाम मुंह से जप। (हे जीवात्मा!) संतोख को पिता बना। अजोनी अकाल पुरख के रूप गुरू की शरण पड़। हे जिंदे! मिल राम को, तेरे भाग्य अच्छे हो गए हैं।1।

(हे भाई!) प्रभू का रूप जोगी-रूप गुरू मुझे मिल गया है (उसकी कृपा से) मैं आत्मिक आनंद माणता हूँ। गुरू सदा परमात्मा के नाम-रंग में रंगा रहता है, और गुरू सदा वासना-रहित है। हे बड़े भाग्यों वाले! डस सुंदर जीवन वाले सुजान गुरू को मिल। (गुरू की कृपा से ही) मेरा मन, मेरा तन, परमात्मा के प्रेम रंग में भीग गया है।2।

हे संत जनों! आओ, हम मिल के परमात्मा का नाम जपें। (हे भाई!) साध-संगति में मिल के सदा हरि-नाम की कमाई कर। (हे भाई! आओ, साध-संगति में) गुरमुखों की सेवा करके अपने मुंह में आत्मिक जीवन देने वाला नाम-भोजन करें। (हे जिंदे!) मिल प्रभू को, प्रभू की दरगाह से उस की बख्शिश के पूर्बले समय के लेख जाग पड़े हैं।3।

(जैसे) सावन (के महीने) में बादल (बरसता है और) जगत को (धरती को) जल से भरपूर कर देता है (उस बादल को देख देख के) मोर अपनी मीठी बोली बोलता है, (वैसे गुरू) नाम-अमृत से जगत को प्रभावित करता है। (जिस भाग्यशाली पर मेहर होती है उसका) मन उछाले मारता है (वह मनुष्य गुरू के) शबद को अपने मुंह में डालता है। हे दास नानक! (जिस मनुष्य के हृदय में) नाम अमृत आ बसता है (जिसे) परमात्मा मिल जाता है वह प्रभू प्रेम में रंगा जाता है।4।1।27।65।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh