श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 173 गउड़ी माझ महला ४ ॥ आउ सखी गुण कामण करीहा जीउ ॥ मिलि संत जना रंगु माणिह रलीआ जीउ ॥ गुर दीपकु गिआनु सदा मनि बलीआ जीउ ॥ हरि तुठै ढुलि ढुलि मिलीआ जीउ ॥१॥ मेरै मनि तनि प्रेमु लगा हरि ढोले जीउ ॥ मै मेले मित्रु सतिगुरु वेचोले जीउ ॥ मनु देवां संता मेरा प्रभु मेले जीउ ॥ हरि विटड़िअहु सदा घोले जीउ ॥२॥ वसु मेरे पिआरिआ वसु मेरे गोविदा हरि करि किरपा मनि वसु जीउ ॥ मनि चिंदिअड़ा फलु पाइआ मेरे गोविंदा गुरु पूरा वेखि विगसु जीउ ॥ हरि नामु मिलिआ सोहागणी मेरे गोविंदा मनि अनदिनु अनदु रहसु जीउ ॥ हरि पाइअड़ा वडभागीई मेरे गोविंदा नित लै लाहा मनि हसु जीउ ॥३॥ हरि आपि उपाए हरि आपे वेखै हरि आपे कारै लाइआ जीउ ॥ इकि खावहि बखस तोटि न आवै इकना फका पाइआ जीउ ॥ इकि राजे तखति बहहि नित सुखीए इकना भिख मंगाइआ जीउ ॥ सभु इको सबदु वरतदा मेरे गोविदा जन नानक नामु धिआइआ जीउ ॥४॥२॥२८॥६६॥ {पन्ना 173} पद्अर्थ: सखी = हे सहेली! हे सत्संगी गुरमुख! कामण = टूणे। करीहा = हम बनाएं। मिलि = मिल के। माणहि = हम मनाएं। रलीआ = आत्मिक आनंद। दीपकु = दीया। गुर गिआनु = गुरू का दिया ज्ञान। मनि = मन में। बलीआ = हम जलाएं। ढुलि = ढुल के, शुक्र में आ के, धन्यवादी अवस्था।1। तनि = तन में। ढोला = मित्र। मै = मुझे। मेलो = मिलाए। वेचोले = वकील। विटड़िअहु = से।2। करि = कर के। मनि चिंदिअड़ा = मन में चितवा हुआ। वेखि = देख के। विगसु = विगास, खुशी। वडभागीई = बड़े भाग्य वालियों ने। हसु = आनंद।3। वेखै = संभाल करता है। कारै = काम में। इकि = ‘इक’ का बहुवचन। बख्श = बख्शिश। फका = फक्का, थोड़ा सा ही। तखति = तख्त पर। भिख = भिक्षा। सभु = हर जगह। सबदु = हुकम।4। अर्थ: हे (सत्संगी जीव स्त्री) सहेली! आ, हम प्रभू के गुणों के टूणे-जादू तैयार करें (और प्रभू-पति को वश करें), संत-जनों को मिल के प्रभू के मिलाप का आनंद लें। (हे सखिए! आ, हम अपने) मन में गुरू का दिया ज्ञान-दीपक जलाएं, (इस तरह) अगर प्रभू प्रसन्न हो जाए तो शुक्रगुजार हो के (उसके चरणों में) मिल जाएं।1। (हे सखिए!) मेरे मन में मेरे दिल में हरी मित्र के लिए प्यार पैदा हो चुका है (मेरे अंदर चाह है कि) कि विचोला गुरू मुझे वह मित्र-प्रभू मिला दे। (हे सखिए!) मैं अपना मन उन गुरमुखों के हवाले कर दूँ, जो मुझे मेरा प्रभू मिला दें। मैं हरी-प्रभू से सदा कुर्बान सदा कुर्बान जाती हूँ।2। हे मेरे प्यारे गोबिंद! मेहर कर के मेरे मन में आ बस। हे मेरे गोबिंद! पूरे गुरू का दर्शन करके जिस सोहागन के हृदय में उल्लास पैदा होता है वह अपने मन में चितवे हुए (प्रभू मिलाप के) फल को पा लेती है। हे मेरे गोबिंद! जिस सोहागन जीव स्त्री को हरी-नाम मिल जाता है, उसके मन में हर वक्त आनंद बना रहता है चाव बना रहता है। हे मेरे गोबिंद! जिन भाग्यशाली जीव सि्त्रयों ने हरी का मिलाप हासिल कर लिया है, वे हरी नाम की कमाई कर के मन में नित्य आत्मिक आनंद लेते हैं।3। हे सखिए! प्रभू खुद ही जीवों को पैदा करता है। खुद ही (सबकी) संभाल करता है और स्वयं ही (सब को) काम में लगाता है। अनेकों जीव ऐसे हैं जो उसके बख्शे हुए पदार्थ बरतते रहते हैं और वह पदार्थ कभी खत्म नहीं होते। अनेकों जीव ऐसे हैं जिन्हें वह देता ही थोड़ा सा है। अनेकों ऐसे हैं जो (उसकी मेहर से) राजे (बन के) तख्त पर बैठते हैं और सदा सुखी रहते हैं। अनेकों ऐसे हैं जिनसे वह (दर-दर की) भीख मंगाता है। हे दास नानक! (कह–) हे मेरे गोबिंद! हर जगह एक तेरा ही हुकम बर्त रहा है, (जिस पर तेरी मेहर होती है वह) तेरा नाम सिमरता है।4।2।28।66। गउड़ी माझ महला ४ ॥ मन माही मन माही मेरे गोविंदा हरि रंगि रता मन माही जीउ ॥ हरि रंगु नालि न लखीऐ मेरे गोविदा गुरु पूरा अलखु लखाही जीउ ॥ हरि हरि नामु परगासिआ मेरे गोविंदा सभ दालद दुख लहि जाही जीउ ॥ हरि पदु ऊतमु पाइआ मेरे गोविंदा वडभागी नामि समाही जीउ ॥१॥ नैणी मेरे पिआरिआ नैणी मेरे गोविदा किनै हरि प्रभु डिठड़ा नैणी जीउ ॥ मेरा मनु तनु बहुतु बैरागिआ मेरे गोविंदा हरि बाझहु धन कुमलैणी जीउ ॥ संत जना मिलि पाइआ मेरे गोविदा मेरा हरि प्रभु सजणु सैणी जीउ ॥ हरि आइ मिलिआ जगजीवनु मेरे गोविंदा मै सुखि विहाणी रैणी जीउ ॥२॥ मै मेलहु संत मेरा हरि प्रभु सजणु मै मनि तनि भुख लगाईआ जीउ ॥ हउ रहि न सकउ बिनु देखे मेरे प्रीतम मै अंतरि बिरहु हरि लाईआ जीउ ॥ हरि राइआ मेरा सजणु पिआरा गुरु मेले मेरा मनु जीवाईआ जीउ ॥ मेरै मनि तनि आसा पूरीआ मेरे गोविंदा हरि मिलिआ मनि वाधाईआ जीउ ॥३॥ वारी मेरे गोविंदा वारी मेरे पिआरिआ हउ तुधु विटड़िअहु सद वारी जीउ ॥ मेरै मनि तनि प्रेमु पिरम का मेरे गोविदा हरि पूंजी राखु हमारी जीउ ॥ सतिगुरु विसटु मेलि मेरे गोविंदा हरि मेले करि रैबारी जीउ ॥ हरि नामु दइआ करि पाइआ मेरे गोविंदा जन नानकु सरणि तुमारी जीउ ॥४॥३॥२९॥६७॥ {पन्ना 173-174} पद्अर्थ: माही = माहि, बीच। हरि रंगि = हरी के नाम रंग में। हरी रंगु = हरी के नाम रंग। नालि = (शब्द ‘नालि’ का संबंध ‘रंग’ के साथ नहीं है) (हरेक जीव के) साथ (है)। न लखीअै = समझाया नहीं जा सकता। अलखु = अदृष्ट प्रभू। लखाही = लखते हैं, देखते हैं। दालद = दरिद्रता, गरीबी। जाही = जाते हैं। हरि पदु = हरी के मिलाप की अवस्था। नामि = नाम में।1। नैणी = आँखों से। किनै = किसी विरले ने। बैरागिआ = वैरागवान है। धन = जीव स्त्री। कुमलैणी = कुम्हलाई हुई, मुरझाई हुई। मिलि = मिल के। सैणी = सैण, मित्र। जगजीवन = जगत का जीवन, जगत के जीवन का आसरा। सुखि = सुख में। रैणी = (जिंदगी की) रात।2। मै = मुझे । संत = हे संत जनो! मै मनि तनि = मेरे मन में, मेरे हृदय में। भुख = (मिलने की) चाह। हउ = मैं। बिरहु = विछोड़े का दर्द। मनु जीवाइआ = मन आत्मिक जीवन तलाश लेता है। वाधाईआ = चढ़दी कला।3। वारी = सदके, कुर्बान। हउ = मैं। विटड़िअहु = से। सद = सदा। पिरंम का = प्यारे का। पूँजी = सरमाया, आत्मिक गुणों की राशि पूँजी। विसटु = विचोलिया। मेलि = मिला। करि = कर के। रैबारी = रेहबरी, अगुवाई। दइआ करि = दया की बरकति से।4। अर्थ: हे मेरे गोबिंद! (जिस पर तेरी मेहर होती है, वह मनुष्य अपने) मन में ही, मन में ही, मन में ही, हरी नाम के रंग में रंगा रहता हैं। हे मेरे गोबिंद! हरी नाम का आनंद हरेक जीव के साथ (उसके अंदर मौजूद) है, पर ये आनंद (हरेक जीव) नहीं ले सकता। जिन मनुष्यों को पूरा गुरू मिल जाता है वे उस अदृश्य परमात्मा को ढूँढ लेते हैं। हे मेरे गोबिंद! जिनके अंदर तू हरी-नाम का प्रकाश करता है, उनके सारे दुख-दरिद्र दूर हो जाते हैं। हे मेरे गोबिंद! जिन मनुष्यों को हरी-मिलाप की उच्च अवस्था प्राप्त हो जाती है, वह भाग्यशाली मनुष्य हरी-नाम में लीन रहते हैं।1। हे मेरे प्यारे गोबिंद! तुझ हरी-प्रभू को किसी विरले (भाग्यशाली ने अपनी) आँखों से देखा है। हे मेरे गोबिंद! (तेरे विछोड़े में) मेरा मन, मेरा हृदय बहुत वैरागवान हो रहा है। हे हरी! तेरे बिना मैं जीव-स्त्री कुम्हलायी हुई हूँ। हे मेरे गोबिंद! मेरा हरी प्रभू मेरा (असली) सज्जन-मित्र (जिन्होंने भी ढूँढा है) संत जनों को मिल के ही ढूँढा है। हे मेरे गोबिंद! (संत जनों की मेहर से ही) मुझे (भी) वह हरी आ मिला है जो सारे जगत के जीवन का आसरा है। अब मेरी (जिंदगी रूप) रात आनंद में व्यतीत हो रही है।2। हे संत जनों!मुझे मेरा सज्जन हरी-प्रभू मिला दो। मेरे मन में मेरे हृदय में उससे मिलने की तमन्ना पैदा हो रही है। मैं अपने प्रीतम को देखे बिना धैर्य नहीं पा सकता, मेरे अंदर उसके विछोड़े का दर्द उॅठ रहा है। परमात्मा ही मेरा राजा है मेरा प्यारा सज्जन है। जब (उससे) गुरू (मुझे) मिला देता है तो मेरा मन जी उठता है। हे मेरे गोबिंद! जब तू हरी मुझे मिल जाता है, मेरे मन में मेरे दिल में (चिरंकाल से टिकी हुई) आस पूरी हो जाती है, और मेरे मन में चढ़दी कला (उत्साह, उमंग) पैदा हो जाती है।3। हे मेरे गोबिंद! हे मेरे प्यारे! मैं सदके, मैं तुझसे सदा सदके। हे मेरे गोबिंद! मेरे मन में मेरे हृदय में तूझ प्यारे का प्रेम जाग उठा है (मैं तेरी शरण आया हूँ)। मेरी इस (प्रेम की) राशि की तू रक्षा कर। हे मेरे गोबिंद! मुझे विचोला गुरू मिला, जो मेरे (जीवन की) अगुवाई करके मुझे तुझ हरी से मिला दे। हे मेरे गोबिंद! मैं दास नानक तेरी शरण आया हूँ । तेरी दया के सदके ही मुझे तेरा हरी-नाम प्राप्त हुआ है।4।3।29।67। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |