श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 174 गउड़ी माझ महला ४ ॥ चोजी मेरे गोविंदा चोजी मेरे पिआरिआ हरि प्रभु मेरा चोजी जीउ ॥ हरि आपे कान्हु उपाइदा मेरे गोविदा हरि आपे गोपी खोजी जीउ ॥ हरि आपे सभ घट भोगदा मेरे गोविंदा आपे रसीआ भोगी जीउ ॥ हरि सुजाणु न भुलई मेरे गोविंदा आपे सतिगुरु जोगी जीउ ॥१॥ आपे जगतु उपाइदा मेरे गोविदा हरि आपि खेलै बहु रंगी जीउ ॥ इकना भोग भोगाइदा मेरे गोविंदा इकि नगन फिरहि नंग नंगी जीउ ॥ आपे जगतु उपाइदा मेरे गोविदा हरि दानु देवै सभ मंगी जीउ ॥ भगता नामु आधारु है मेरे गोविंदा हरि कथा मंगहि हरि चंगी जीउ ॥२॥ हरि आपे भगति कराइदा मेरे गोविंदा हरि भगता लोच मनि पूरी जीउ ॥ आपे जलि थलि वरतदा मेरे गोविदा रवि रहिआ नही दूरी जीउ ॥ हरि अंतरि बाहरि आपि है मेरे गोविदा हरि आपि रहिआ भरपूरी जीउ ॥ हरि आतम रामु पसारिआ मेरे गोविंदा हरि वेखै आपि हदूरी जीउ ॥३॥ हरि अंतरि वाजा पउणु है मेरे गोविंदा हरि आपि वजाए तिउ वाजै जीउ ॥ हरि अंतरि नामु निधानु है मेरे गोविंदा गुर सबदी हरि प्रभु गाजै जीउ ॥ आपे सरणि पवाइदा मेरे गोविंदा हरि भगत जना राखु लाजै जीउ ॥ वडभागी मिलु संगती मेरे गोविंदा जन नानक नाम सिधि काजै जीउ ॥४॥४॥३०॥६८॥ {पन्ना 174} पद्अर्थ: चोजी = मौजी, अपनी मर्जी से काम करने वाला। कानु = कान्हा, कृष्ण। गोपी = ग्वालनि। खोजी = (कृष्ण को) ढूँढने वाली। सभघट = सारे शरीर। रसीआ = मायावी पदार्थों के रस लेने वाला। भोगी = पदार्थों को भोगने वाला। सुजाणु = बहुत सियाना। जोगी = भोगों से विरक्त।1। बहु रंगी = अनेकों रंग में। इकि = (शब्द ‘इक’ का बहुवचन)। फिरहि = फिरते हैं। सभ मंगी = सारा संसार मांगता है। आधारु = आसरा। मंगहि = मांगते हैं।2। लोच = तमन्ना। मनि = मन में। जलि = जल में। थलि = थल में। रवि रहिआ = रमा हुआ, व्यापक। आतम रामु = सर्व व्यापक आत्मा। हदूरी = हाजिर नाजिर हो के।3। पउणु = हवा, प्राण। वाजे = (जीव) बजता है। निधानु = खजाना। गाजै = प्रगट होता है। भगत– (नोट: शब्द ‘भगति’ और ‘भगत’ में फर्क है)। राखु = रक्षक। राखु लाजै = लाज का रक्षक। नामि = नाम से। सिधि = सिद्धि, सफलता। सिधि काजै = कार्य की सिद्धि, मानस जनम के उद्देश्य की कामयाबी।4। अर्थ: हे मेरे प्यारे! हे मेरे गोबिंद! तू अपनी मर्जी के काम करने वाला मेरा हरी-प्रभू है। हरी स्वयं ही कृष्ण को पैदा करने वाला है। हरी स्वयं ही (कृष्ण को) तलाशने वाली ग्वालनि है। सब शरीरों में व्यापक हो के हरी खुद ही सब पदार्थों को भोगता है। हरी खुद ही सारे मायावी पदार्थों का रस लेने वाला है, स्वयं ही भोगने वाला है। (पर) हरी बहुत समझदार है (सब पदार्थों को भोगनेवाला होते हुए भी वह) भूलता नहीं, वह हरी खुद ही भोगों से निर्लिप सत्गुरू है।1। हरी प्रभू खुद ही जगत पैदा करता है। हरी स्वयं ही अनेकों रंगों में (जगत का खेल) खेल रहा है। हरी स्वयं ही अनेकों जीवों से मायावी पदार्थों के भोग भोगाता है (भाव, अनेकों को पेट भर के पदार्थ बख्शता है, पर) अनेक जीव ऐसे हैं जो नंगे घूमते हैं (जिनके तन पर कपड़ा भी नहीं)। हरी खुद ही सारे जगत को पैदा करता है। सारी दुनिया उससे मांगती रहती है। वह सभी को दातें देता है। उसकी भक्ति करने वाले लोगों को उसके नाम का ही आसरा है, वे हरी से उसकी श्रेष्ठ सिफत सालाह ही मांगते हैं।2। हरी खुद ही (अपने भक्तों से) अपनी भक्ति करवाता है, भक्तों के मन में (पैदा हुई भक्ति की) तमन्ना खुद ही पूरी करता है। जल में, धरती में, (सब जगह) हरी खुद ही बस रहा है, (सब जीवों में) व्यापक है (किसी जीव से वह हरी) दूर नहीं है। सब जीवों के अंदर व बाहर सारे जगत में हरी खुद ही बसता है, हर जगह हरी स्वयं ही भरपूर है। सर्व-व्यापक राम खुद ही इस जगत-पसारे को पसार रहा है, हरेक के अंग-संग रह के हरी खुद ही सब की संभाल करता है।3। सब जीवों के अंदर प्राण-रूप हो के हरी स्वयं ही बाजा (बजा रहा) है। (हरेक जीव का, मानो, बाजा है) जैसे वह हरेक जीव-बाजे को बजाता है तैसे हरेक जीव बाजा बजता है। हरेक जीव के अंदर हरी का नाम खजाना मौजूद है, पर गुरू के शबद के द्वारा ही हरी-प्रभू (जीव के अंदर) प्रगट होता है। हरी स्वयं ही जीव को पे्ररित करके अपनी शरण में लाता है, हरी खुद ही भगतों की इज्जत का रखवाला बनता है (भाव, भक्तों को विकारों में गिरने से बचाता है)। हे दास नानक! तू भी संगति में मिल (हरी प्रभू का नाम जप, और) भाग्यशाली बन। नाम की बरकति से ही जीवन उद्देश्य सफल होता है।4।4।30।68। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |