श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ सुणि हरि कथा उतारी मैलु ॥ महा पुनीत भए सुख सैलु ॥ वडै भागि पाइआ साधसंगु ॥ पारब्रहम सिउ लागो रंगु ॥१॥ हरि हरि नामु जपत जनु तारिओ ॥ अगनि सागरु गुरि पारि उतारिओ ॥१॥ रहाउ ॥ करि कीरतनु मन सीतल भए ॥ जनम जनम के किलविख गए ॥ सरब निधान पेखे मन माहि ॥ अब ढूढन काहे कउ जाहि ॥२॥ प्रभ अपुने जब भए दइआल ॥ पूरन होई सेवक घाल ॥ बंधन काटि कीए अपने दास ॥ सिमरि सिमरि सिमरि गुणतास ॥३॥ एको मनि एको सभ ठाइ ॥ पूरन पूरि रहिओ सभ जाइ ॥ गुरि पूरै सभु भरमु चुकाइआ ॥ हरि सिमरत नानक सुखु पाइआ ॥४॥८॥७७॥ {पन्ना 178}

पद्अर्थ: सुणि = सुन के। मैलु = (शब्द ‘मैलु’ स्त्री लिंग है, पर प्रतीत होता है पुलिंग)। पुनीत = पवित्र। सैलु = पहाड़। सुख सैलु = सुखों का पहाड़, अनेकों ही सुख। भागि = किस्मत से। सिउ = साथ। रंगु = प्रेम।1।

जनु = सेवक। अगनि = आग। सागरु = समुंद्र। गुरि = गुरू ने।1। रहाउ।

करि = करके। सीतल = ठण्डे। किलविख = पाप। निधान = खजाने। पेखे = देख लिए। काहे कउ = किस लिए? क्यूँ। जाहि = वह जाते हैं, वह जाएं।2।

सेवक घाल = सेवक की मेहनत। काटि = काट के। गुणतास = गुणों का खजाना प्रभू।3।

ऐको = एक (प्रभू) ही। मनि = मन में, हृदय में। ठाइ = जगह में। जाइ = जगह। गुरि = गुरू ने।4।

अर्थ: हरि नाम सिमरते सेवक को (गुरू ने संसार समुंद्र से) पार लंघा लिया है। गुरू ने (सेवक को) तृष्णा की आग के समुंद्र से पार लंघा लिया है।1। रहाउ।

जिन मनुष्यों ने (गुरू की शरण पड़ कर) परमात्मा की सिफत सालाह सुन के (अपने मन से विकारों की) मैल उतार ली वे बड़े ही पवित्र (जीवन वाले) हो गए। उन्होंने अनेकों ही सुख प्राप्त कर लिए। उन्होंने बड़ी किस्मत से गुरू का मिलाप हासिल कर लिया। उनका परमात्मा से प्रेम बन गया।1।

परमातमा की सिफत सालाह करके जिनके मन शीतल हो गए (उनके अंदर से) जन्मों जन्मांतरों के पाप दूर हो गए। उन्होंने सारे खजाने अपने मन में ही देख लिए, (इस वास्ते सुख) तलाशने के लिए अब वह (कहीं और) क्यूँ जाएं? (भाव, सुख की तलाश बाहर जगत के पदार्थों में से करने की उन्हें जरूरत नहीं रहती)।2।

जब प्रभू जी अपने दासों पर दयाल होते हैं, तब दासों की (की हुई सेवा-सिमरन की) मिहनत सफल हो जाती है। (सेवकों के माया के मोह के) बंधन काट के उनको अपना दास बना लेता है। गुणों के खजाने परमात्मा का नाम सिमर-सिमर के (सेवक परमात्मा में लीन हो जाते हैं)।3।

पूरे गुरू ने जिस मनुष्य के मन की सारी भटकन दूर कर दी, उसे हर जगह परमात्मा ही परमात्मा व्यापक भरपूर दिखता है। एक परमात्मा ही हरेक जगह पर दिखाई देता है। हे नानक! परमात्मा का सिमरन करके उस मनुष्य ने आत्मिक आनंद प्राप्त कर लिया हैं4।8।77।

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ अगले मुए सि पाछै परे ॥ जो उबरे से बंधि लकु खरे ॥ जिह धंधे महि ओइ लपटाए ॥ उन ते दुगुण दिड़ी उन माए ॥१॥ ओह बेला कछु चीति न आवै ॥ बिनसि जाइ ताहू लपटावै ॥१॥ रहाउ ॥ आसा बंधी मूरख देह ॥ काम क्रोध लपटिओ असनेह ॥ सिर ऊपरि ठाढो धरम राइ ॥ मीठी करि करि बिखिआ खाइ ॥२॥ हउ बंधउ हउ साधउ बैरु ॥ हमरी भूमि कउणु घालै पैरु ॥ हउ पंडितु हउ चतुरु सिआणा ॥ करणैहारु न बुझै बिगाना ॥३॥ अपुनी गति मिति आपे जानै ॥ किआ को कहै किआ आखि वखानै ॥ जितु जितु लावहि तितु तितु लगना ॥ अपना भला सभ काहू मंगना ॥४॥ सभ किछु तेरा तूं करणैहारु ॥ अंतु नाही किछु पारावारु ॥ दास अपने कउ दीजै दानु ॥ कबहू न विसरै नानक नामु ॥५॥९॥७८॥ {पन्ना 178}

पद्अर्थ: अगले = अपने से पहले, अपने पूर्वज। सि = वे पूर्वज। पाछै परे = भूल गए। उबरे = बचे हुए हैं, जीवित हैं। से = वह लोग। बंधि = बंध के। खरे = खड़े हुए हैं। महि = में। ओइ = वे मर चुके पूर्वज। लपटाऐ = फसे हुए थे। ते = से। दुगुण = दोगुनी। दिढ़ी = पक्की करके बांधी हुई है। उन = उन्होंने जो अब जीवित हैं। माऐ = माया।1।

बेला = समय। चीति = चिॅत्त में। बिनसि जाइ = मर जाता है। ताहू = उस माया के साथ ही।1। रहाउ।

बंधी = बंधी हुई। मूरख देह = मूर्ख का शरीर। असनेह = मोह (स्नेह)। ठाढो = खड़ा हुआ है। बिखिआ = माया।2।

हउ = मैं। बंधउ = मैं बांध लेता हूँ, मैं बाँध लूँगा। साधउ बैरु = मैं वैर लूँगा। भूमि = जमीन (पर)। घालै पैरु = पैर रख सकता है। बिगाना = बे-ज्ञाना, मूर्ख, अज्ञानी।3।

गति = अवस्था, हालत। मिति = मर्यादा, माप। आखि = कह के। को = कोई मनुष्य। जितु = जिस तरफ। सभ काहू = हर किसी ने।4।

पारावारु = इस पार व उस पार का छोर।5।

अर्थ: अपने बड़े पूर्वज जो मर चुके हैं वह भूल जाते हैं (भाव, ये बात भूल जाती है कि जोड़ी हुई माया वे यहीं छोड़ गए), जो अब जीवित हैं वह (माया जोड़ने के लिए) कमर कस के खड़े हो जाते हैं। जिस धंधे में वह (मर चुके बड़े पूर्वज) फसे हुए थे, उनसे दुगनी माया की पकड़ वह जीवित मनुष्य अपने मन में बना लेते हैं।1।

(मूर्ख मनुष्य को) वह समय रत्ती भर भी याद नहीं आता (जब बड़े पूर्वजों की तरह सब कुछ यहीं छोड़ जाना है)। मनुष्य (बार बार) उसी (माया) के साथ चिपकता है जिस ने नाश हो जाना है (जिसने साथ नहीं निभना)।1। रहाउ।

मूर्ख मनुष्य का शरीर (भाव, हरेक ज्ञानेंद्रियां माया की) आशाओं से जकड़ी रहती हैं, मूर्ख मनुष्य काम-क्रोध-मोह के बंधनों में फसा रहता है। सिर पर धर्मराज खड़ा हुआ है (भाव, मौत का समय नजदीक आ रहा है, पर) मूर्ख मनुष्य (आत्मिक मौत लाने वाली) माया (-जहर) मीठी जानबूझ कर खाता रहता है।2।

(माया में मद्होश मूर्ख मनुष्य ऐसी अहंकार भरी बातें करता है–) मैं (उसको) बांध लूँगा, मैं (उससे अपने) वैर (का बदला) लूँगा, मेरी जमीन पर कौन पैर रखता है? मैं विद्वान हूँ, मैं चतुर हूँ, मैं सुजान हूँ। (अपने अहंकार में) मूर्ख मनुष्य अपने पैदा करने वाले परमात्मा को को भी नहीं समझता (याद रखता)।3।

(पर, जीव के भी क्या वश?) परमात्मा स्वयं ही जानता है कि वह कैसा है और कितना बड़ा है। जीव (उस परमात्मा की गति मिति बारे, स्वाभाव बारे) कुछ भी नहीं कह सकता, कुछ भी कह के बयान नहीं कर सकता। हे प्रभू! तू जीव को जिस जिस तरफ लगाता है, उधर उधर ही ये लग सकता है। हरेक जीव ने तेरे से ही अपने भले की माँग माँगनी है।4।

हे प्रभू! ये सब कुछ तेरा ही पैदा किया हुआ है, तू ही सारे जगत को बनाने वाला है। तेरे गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता। तेरे स्वरूप का उरला-परला छोर नहीं ढूँढा जा सकता।

हे प्रभू! अपने दास नानक को ये दाति बख्श कि मुझे कभी भी तेरा नाम ना भूले।5।9।78।

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ अनिक जतन नही होत छुटारा ॥ बहुतु सिआणप आगल भारा ॥ हरि की सेवा निरमल हेत ॥ प्रभ की दरगह सोभा सेत ॥१॥ मन मेरे गहु हरि नाम का ओला ॥ तुझै न लागै ताता झोला ॥१॥ रहाउ ॥ जिउ बोहिथु भै सागर माहि ॥ अंधकार दीपक दीपाहि ॥ अगनि सीत का लाहसि दूख ॥ नामु जपत मनि होवत सूख ॥२॥ उतरि जाइ तेरे मन की पिआस ॥ पूरन होवै सगली आस ॥ डोलै नाही तुमरा चीतु ॥ अम्रित नामु जपि गुरमुखि मीत ॥३॥ नामु अउखधु सोई जनु पावै ॥ करि किरपा जिसु आपि दिवावै ॥ हरि हरि नामु जा कै हिरदै वसै ॥ दूखु दरदु तिह नानक नसै ॥४॥१०॥७९॥ {पन्ना 178-179}

पद्अर्थ: छुटारा = छुटकारा। आगल = बहुता। हेत = हित, प्यार। सेत = साथ।1।

गहु = पकड़। ओला = आसरा। ताता = गरम। झोला = (हवा का) झोंका।1। रहाउ।

बोहिथ = जहाज। भै सागर = डरावना समुंद्र। दीपक = दीया। दीपाहि = जलते हैं। सीत = ठंड। लाहसि = उतार देती है। मनि = मन में।2।

सगली = सारी। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला, अमृत। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर। मीत = हे मित्र! ।3।

अउखधु = दवा। करि = कर के। तिह = उस (मनुष्य) का।4।

अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा के नाम का आसरा ले, तुझे (दुनिया के दुख-कलेशों की) गर्म हवा का झोका छू नहीं सकेगा।1। रहाउ।

(हे मन!) अनेकों प्रयत्नों से भी (माया के मोह के कारण पैदा हुए दुख कलेशों से) छुटकारा नहीं हो सकता, (बल्कि, माया के कारण की हुई) ज्यादा चतुराई (अन्य दुखों का) ज्यादा भार (सिर पर डाल देती है)। अगर पवित्र प्यार से हरी की सेवा-भक्ति करें, तो हरी की दरगाह में आदर-सत्कार के साथ पहुँचते हैं।1।

(हे भाई!) जैसे डरावने समुंद्र में जहाज (मनुष्य को डूबने से बचाता है, जैसे अंधेरे में दीपक प्रकाश करता है और ठोकर खाने से बचाता है), जैसे, आग ठंड-पाले का दुख दूर कर देती है, ऐसे ही परमात्मा का नाम सिमरने से मन में आनंद पैदा होता है।2।

हे मित्र! गुरू की शरण पड़ कर आत्मिक जीवन देने वाला हरी नाम जप (इस जप की बरकति से) तेरे मन की (माया की) तृष्णा उतर जाएगी। तेरी ही आस पूरी हो जाएगी (दुनियावी आशाएं सताने से हट जाएंगी), और तेरा मन (माया की लालसा में) डोलेगा नहीं।3।

(पर यह) हरी-नाम की दवा वही मनुष्य हासिल करता है जिसको प्रभू मेहर करके खुद (गुरू से) दिलवाता है। हे नानक! जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का नाम बस जाता है, उसका सारा दुख-दर्द दूर हो जाता है।4।10।79।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh