श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ प्राणी जाणै इहु तनु मेरा ॥ बहुरि बहुरि उआहू लपटेरा ॥ पुत्र कलत्र गिरसत का फासा ॥ होनु न पाईऐ राम के दासा ॥१॥ कवन सु बिधि जितु राम गुण गाइ ॥ कवन सु मति जितु तरै इह माइ ॥१॥ रहाउ ॥ जो भलाई सो बुरा जानै ॥ साचु कहै सो बिखै समानै ॥ जाणै नाही जीत अरु हार ॥ इहु वलेवा साकत संसार ॥२॥ जो हलाहल सो पीवै बउरा ॥ अम्रितु नामु जानै करि कउरा ॥ साधसंग कै नाही नेरि ॥ लख चउरासीह भ्रमता फेरि ॥३॥ एकै जालि फहाए पंखी ॥ रसि रसि भोग करहि बहु रंगी ॥ कहु नानक जिसु भए क्रिपाल ॥ गुरि पूरै ता के काटे जाल ॥४॥१३॥८२॥ {पन्ना 180}

पद्अर्थ: बहुरि बहुरि = मुड़ मुड़। उआ हू = उस (तन) से ही। कलत्र = स्त्री। गिरसत = गृहस्त।1।

बिधि = तरीका। जितु = जिसके द्वारा। मति = बुद्धि। माइ = माया।1। रहाउ।

बिखै = जहर। समानै = बराबर। वलेवा = व्यवहार। साकत = ईश्वर से टूटे हुए की।2।

हलाहल = महुरा, जहर। बउरा = पागल। करि = करके। नेरि = नजदीक। फेरि = चक्र में।3।

ऐकै जालि = एक (माया) के ही जाल में। पंखी = जीव पंछी। रसि रसि = स्वाद लगा लगा के। बहुरंगी = अनेकों रंगों के। गुरि = गुरू ने। ता के = उस के।4।

अर्थ: (हे भाई!) वह कौन सा तरीका है जिससे मनुष्य परमात्मा के गुण गा सकता है? वह कौन सा शिक्षा मति है जिससे मनुष्य इस माया (के प्रभाव) से पार लांघ सकता है?।1। रहाउ।

(माया के मोह में फंसा) मनुष्य समझता है कि ये शरीर (सदा) मेरा (अपना ही रहना) है, मुड़ मुड़ इस शरीर के साथ ही चिपकता है। जब तक पुत्र-स्त्री गृहस्त के (मोह का) फंदा (गले में पड़ा रहता) है, परमात्मा के सेवक बन नहीं सकते।1।

माया के आँगन में संसार का ये बरतण व्यवहार है कि जो काम इसकी भलाई (का) है उसे बुरा समझता है। जो कोई इसे सच कहे, वह इसे जहर जैसा लगता है। ये नहीं समझता कि कौन सा काम जीवन-बाजी की जीत के लिए है और कौन सा हार के वास्ते।2।

जो जहर है उसे माया ग्रसित मनुष्य (खुशी से) पीता है। परमात्मा का नाम आत्मिक जीवन देने वाला है, इसे मनुष्य कड़वा जानता है। (माया ग्रसित मनुष्य) साध-संगति के नजदीक नहीं फटकता, (इस तरह) चौरासी लाख जोनियों के चक्कर में भटकता फिरता है।3।

जीव-पंछी इस माया के जाल में ही (परमात्मा ने) बसाए हुए हैं। स्वाद लगा लगा के ये अनेकों रंगों के भोग भोगते रहते हैं। हे नानक! कह– जिस मनुष्य पर परमात्मा कृपालु होता है, पूरे गुरू ने उस मनुष्य के (माया के मोह के) बंधन काट दिए हैं।4।13।82।

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ तउ किरपा ते मारगु पाईऐ ॥ प्रभ किरपा ते नामु धिआईऐ ॥ प्रभ किरपा ते बंधन छुटै ॥ तउ किरपा ते हउमै तुटै ॥१॥ तुम लावहु तउ लागह सेव ॥ हम ते कछू न होवै देव ॥१॥ रहाउ ॥ तुधु भावै ता गावा बाणी ॥ तुधु भावै ता सचु वखाणी ॥ तुधु भावै ता सतिगुर मइआ ॥ सरब सुखा प्रभ तेरी दइआ ॥२॥ जो तुधु भावै सो निरमल करमा ॥ जो तुधु भावै सो सचु धरमा ॥ सरब निधान गुण तुम ही पासि ॥ तूं साहिबु सेवक अरदासि ॥३॥ मनु तनु निरमलु होइ हरि रंगि ॥ सरब सुखा पावउ सतसंगि ॥ नामि तेरै रहै मनु राता ॥ इहु कलिआणु नानक करि जाता ॥४॥१४॥८३॥ {पन्ना 180}

पद्अर्थ: ते = से। तउ किरपा ते = तेरी कृपा से। मारगु = (जीवन का सही) रास्ता। प्रभू किरपा ते = प्रभू की कृपा से।1।

लागह = हम लगते हैं। हम ते = हम से। देव = हे देव! हे प्रकाश रूप!।1। रहाउ।

भावै = ठीक लगे। गावा = मैं गा सकता हूँ। सचु = सदा स्थिर रहने वाला नाम। वखाणी = मैं उचारता हूँ। मइआ = दया। प्रभू = हे प्रभू!।2।

निरमल = पवित्र। सचु = अटॅल। निधान = खजाने।3।

रंगि = प्रेम में। पावउ = मैं प्राप्त करता हूँ। सतसंगि = सत्संग में। नामि = नाम में। कलिआणु = खुशी, आनंद।4।

अर्थ: हे प्रकाश-रूप प्रभू! हमसे (जीवों से हमारे अपने प्रयासों से तेरी सेवा भक्ति) कुछ भी नहीं हो सकती। तूं (खुद ही हमें) सेवा भक्ति में लगाए तो हम लग सकते हैं। रहाउ।

(हे प्रभू!) तेरी कृपा से (जीवन का सही) रास्ता मिलता है। (हे भाई!) प्रभू की कृपा से (प्रभू का) नाम सिमरा जा सकता है। (इस तरह) प्रभू की कृपा से माया के बंधनों का जाल टूट जाता है। हे प्रभू! तेरी कृपा से (हम जीवों का) अहंकार दूर हो जाता है।1।

(हे प्रभू!) अगर तुझे ठीक लगे तो मैं तेरी सिफत सालाह की बाणी गा सकता हूँ। तुझे पसंद आए तो मैं तेरा सदा स्थिर रहने वाला नाम उच्चार सकता हूँ। (हे प्रभू!) अगर तुझे ठीक लगे तो (जीवों पर) गुरू की कृपा होती है। हे प्रभू! सारे सुख तेरी मेहर में ही हैं।2।

हे प्रभू! जो काम तुझे ठीक लग जाएं वही पवित्र हैं। जो जीवन मर्यादा तुझे पसंद आ जाए वही अटॅल मर्यादा है। हे प्रभू! सारे गुण सारे खजाने तेरे ही वश में हैं। तू ही मेरा मालिक है, मुझ सेवक की (तेरे आगे ही) प्रार्थना है।3।

(हे प्रभू!) परमात्मा के प्यार में (टिके रहने से) मन पवित्र हो जाता है, शरीर पवित्र हो जाता है। साध-संगति में टिके रहने से (मुझे ऐसे प्रतीत होता है कि) मैं सारे सुख तलाश लेता हूँ। हे नानक! (कह– हे प्रभू! जिस मनुष्य का) मन तेरे नाम में रंगा जाता है वह इसी को ही श्रेष्ठ आनंद करके समझता है।4।14।83।

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ आन रसा जेते तै चाखे ॥ निमख न त्रिसना तेरी लाथे ॥ हरि रस का तूं चाखहि सादु ॥ चाखत होइ रहहि बिसमादु ॥१॥ अम्रितु रसना पीउ पिआरी ॥ इह रस राती होइ त्रिपतारी ॥१॥ रहाउ ॥ हे जिहवे तूं राम गुण गाउ ॥ निमख निमख हरि हरि हरि धिआउ ॥ आन न सुनीऐ कतहूं जाईऐ ॥ साधसंगति वडभागी पाईऐ ॥२॥ आठ पहर जिहवे आराधि ॥ पारब्रहम ठाकुर आगाधि ॥ ईहा ऊहा सदा सुहेली ॥ हरि गुण गावत रसन अमोली ॥३॥ बनसपति मउली फल फुल पेडे ॥ इह रस राती बहुरि न छोडे ॥ आन न रस कस लवै न लाई ॥ कहु नानक गुर भए है सहाई ॥४॥१५॥८४॥ {पन्ना 180}

पद्अर्थ: आन = और, अन्य। जेते = जितने (भी)। तै = तू (हे मेरी जीभ!)। निमख = निमेष, आँख झपकने जितना समय। सादु = स्वाद। बिसमादु = आश्चर्य, मस्त।1।

रसना = हे जीभ! त्रिपतारी = तृप्त, संतुष्ट।1। रहाउ।

हे जिहवे = हे जीभ! आन = अन्य। कत हूँ = कहीं भी।2।

आराधि = सिमर। आगाधि = अथाह। ईहा = इस लोक में। ऊहा = पर लोक में। सुहेली = सुखी। रसन = जीभ।3।

मउली = खिली हुई। पेड = डाल। बहुरि = पुनः। राती = रंगी हुई, मस्त। रस कस = किस्म किस्म के स्वाद। लवै न लाई = बराबरी नहीं कर सकते।4।

अर्थ: हे (मेरी) प्यारी जीभ! तू आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस पी। जो जीभ इस नाम रस में मस्त हो जाती है, वह (अन्य रसों की तरफ से) संतुष्ट हो जाती है।1। रहाउ।

(हे मेरी जीभ! परमात्मा के नाम-रस के बिना) और जितने भी रस तू चखती रहती है (उनसे) तेरी तृष्णा एक निमख मात्र भी दूर नहीं होती। अगर तू परमात्मा के नाम-रस का स्वाद चखे, चखते ही तू मस्त हो जाएगी।1।

हे (मेरी) जीभ! तू परमात्मा के गुण गा। पल पल हर वक्त परमात्मा का नाम सिमर। (अगर दुनिया के रसों की तरफ से संतुष्ट होना है, तो परमातमा की सिफत सालाह के बिना) अन्य (फीके बोल) नहीं सुनने चाहिए, (साध-संगति के बिना) और कहीं (विकार पैदा करने वाली जगहों पे) नहीं जाना चाहिए। (पर) साध-संगति बड़े भाग्यों से ही मिलती है।2।

हे (मेरी) जीभ! आठों पहर अथाह (गुणों वाले) ठाकुर परमात्मा का सिमरन कर। परमात्मा के गुण गाते हुए जीभ बड़ी कीमती बन जाती है, (सिमरन करने वाली की जिंदगी) इस लोक में व परलोक में सदा सुखी हो जाती है।3।

(ये ठीक है कि परमात्मा की कुदरति में सारी) बनस्पति खिली रहती है, वृक्ष-पौधों को फूल-फल लगे होते हैं, पर जिस मनुष्य की जीभ नाम-रस में मस्त है वह (बाहर दिखाई देती सुंदरता को देख के नाम-रस को) कभी नहीं छोड़ता।

हे नानक! कह– जिस मनुष्य का सहायक सत्गुरू बनता है, (उसकी नजरों में दुनिया के) अन्य किस्म किस्म के रस (परमात्मा के नाम-रस की) बराबरी नहीं कर सकते।4।15।84।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh