श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 182 गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ बिआपत हरख सोग बिसथार ॥ बिआपत सुरग नरक अवतार ॥ बिआपत धन निरधन पेखि सोभा ॥ मूलु बिआधी बिआपसि लोभा ॥१॥ माइआ बिआपत बहु परकारी ॥ संत जीवहि प्रभ ओट तुमारी ॥१॥ रहाउ ॥ बिआपत अह्मबुधि का माता ॥ बिआपत पुत्र कलत्र संगि राता ॥ बिआपत हसति घोड़े अरु बसता ॥ बिआपत रूप जोबन मद मसता ॥२॥ बिआपत भूमि रंक अरु रंगा ॥ बिआपत गीत नाद सुणि संगा ॥ बिआपत सेज महल सीगार ॥ पंच दूत बिआपत अंधिआर ॥३॥ बिआपत करम करै हउ फासा ॥ बिआपति गिरसत बिआपत उदासा ॥ आचार बिउहार बिआपत इह जाति ॥ सभ किछु बिआपत बिनु हरि रंग रात ॥४॥ संतन के बंधन काटे हरि राइ ॥ ता कउ कहा बिआपै माइ ॥ कहु नानक जिनि धूरि संत पाई ॥ ता कै निकटि न आवै माई ॥५॥१९॥८८॥ {पन्ना 182} पद्अर्थ: बिआपत = व्याप्त, प्रभाव डाले रखती है (to pervade)। अवतार = जनम। निरधन = गरीब। बिआधी = विकार।1। बहु परकारी = कई तरीकों से।1। रहाउ। अहंबुधि = अहंकार। माता = मस्ताया हुआ। कलत्र = स्त्री। हसति = हाथी। बसता = वस्त्र, कपड़े। मद = नशा।2। भूमि = धरती। रंक = कंगाल। रंग = अमीर। संगा = टोला, मण्डली।3। आचार बिउहार = कर्म-काण्ड। जाति = जाति (अभिमान)।4। अर्थ: हे प्रभू! (तेरी रची) माया अनेकों तरीकों से (जीवों पर) प्रभाव डाले रखती है (और जीवों को आत्मिक मौत मार देती है), तेरे संत तेरे आसरे आत्मिक जीवन भोगते हैं।1। रहाउ। कहीं खुशी कहीं गमीं का पसारा है, कहीं जीव नरकों में पड़ते हैं, कहीं स्वर्गों में पहुँचते हैं, कहीं कोई धन वाले हैं, कहीं कंगाल हैं, कहीं कोई अपनी शोभा देख के (खुश हैं) - इन अनेको तरीकों से माया जीवों पे प्रभाव डाल रही है। कहीं सारे रोगों का मूल लोभ बन के माया अपना जोर डाल रही है।1। कहीं कोई ‘हउ हउ, मैं मैं’ की अक्ल में मस्त है। कहीं कोई पुत्र-स्त्री के मोह में रंगा पड़ा है। कहीं हाथी घोड़ों (सुंदर) कपड़ों (की लगन है)। कहीं कोई रूप और जवानी के नशे में मस्त है -इन अनेकों तरीकों से माया अपना प्रभान डाल रही है।2। कहीं जमीन की मल्कियत है, कहीं कंगाली है। कहीं अमीर हैं, कहीं मंडलियों के गीत नाद सुन के (खुश हो रहे हैं), कही (सुंदर) सेज, हार-श्रृंगार और महल माढ़ीयों (की लालसा है)। इन अनेकों तरीकों से माया अपना प्रभाव डाल रही है। कहीं मोह के अंधकार में कामादिक पाँचों विकार दूत बन के माया जोर डाल रही है।3। कहीं कोई अहंकार में फंसा हुआ (अपनी ओर से धार्मिक) काम कर रहा है। कोई गृहस्थ में प्रवृत्त है, कोई उदासी रूप में है। कहीं कोई धार्मिक रस्मों में प्रवृत्ति है, कोई (ऊँची) जाति के अभिमान में है - परमात्मा के प्रेम में मगन होने से वंचित रह के यह सब कुछ माया का प्रभाव ही है।4। परमात्मा खुद ही संत जनों के माया के बंधन काट देता है। उन पर माया अपना जोर नहीं डाल सकती। हे नानक! कह– जिस मनुष्य ने संत जनों के चरणों की धूड़ प्राप्त कर ली है, माया उस मनुष्य के नजदीक नहीं फटक सकती।4।19।88। गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ नैनहु नीद पर द्रिसटि विकार ॥ स्रवण सोए सुणि निंद वीचार ॥ रसना सोई लोभि मीठै सादि ॥ मनु सोइआ माइआ बिसमादि ॥१॥ इसु ग्रिह महि कोई जागतु रहै ॥ साबतु वसतु ओहु अपनी लहै ॥१॥ रहाउ ॥ सगल सहेली अपनै रस माती ॥ ग्रिह अपुने की खबरि न जाती ॥ मुसनहार पंच बटवारे ॥ सूने नगरि परे ठगहारे ॥२॥ उन ते राखै बापु न माई ॥ उन ते राखै मीतु न भाई ॥ दरबि सिआणप ना ओइ रहते ॥ साधसंगि ओइ दुसट वसि होते ॥३॥ करि किरपा मोहि सारिंगपाणि ॥ संतन धूरि सरब निधान ॥ साबतु पूंजी सतिगुर संगि ॥ नानकु जागै पारब्रहम कै रंगि ॥४॥ सो जागै जिसु प्रभु किरपालु ॥ इह पूंजी साबतु धनु मालु ॥१॥ रहाउ दूजा ॥२०॥८९॥ {पन्ना 182} पद्अर्थ: नैनहु = आँखों में। द्रिशट = नजर, निगाह। श्रवण = कान। सुणि = सुन के। रसना = जीभ। लोभि = लोभ में। सादि = स्वाद में। बिसमादि = आश्चर्य तमाशे में।1। ग्रिह महि = शरीर रूपी घर में। कोई = कोई विरला। साबतु = सारी की सारी। वसतु = वस्तु, आत्मिक जीवन की पूँजी। लहै = ढूँढ लेता है।1। रहाउ। सहेली = ज्ञानेंद्रियां। माती = मस्त। जाती = जानी, समझी। मुसनहार = ठॅगने वाले। बटवारे = डाकू। सूने नगरि = सूने शहर में। परे = हल्ला कर के आ गए।2। ते = से। राखै = बचा सकता। दरबि = धन से। ओइ = (‘ओह’ का बहुवचन)। वसि = काबू में।3। मोहि = मुझे, मेरे पर। सारंगि = धनुष। पाणि = हाथ। सारंगपाणि = हे धर्नुधारी प्रभू! निधान = खजाना। पूँजी = आत्मिक जीवन की राशि। रंगि = प्रेम में।4। अर्थ: (हे भाई!) इस शरीर रूपी घर में कोई विरला मनुष्य ही सुचेत रहता है (जो सुचेत रहता है) वह अपनी आत्मिक जीवन की सारी की सारी राशि-पूँजी सम्भाल लेता है।1। रहाउ। पराए रूप को विकार भरी निगाह से देखना - ये आँखों में नींद आ रही है। औरों की निंदा के विचार सुन-सुन के कान सो रहे हैं। जीभ खाने के लोभ में पदार्थों के मीठे स्वाद में सो रही है। मन माया के आश्चर्य तमाशों में सोया रहता है।1। सारी ही ज्ञानेंद्रियां अपने अपने चस्के में मस्त रहती हैं, अपने शरीर घर की ये सूझ नहीं रखते। ठॅगने वाले पाँचों डाकू सूने (शरीर-) घर में आ के हमला बोल देते हैं।2। उन (पाँचों डाकुओं से) ना पिता बचा सकता है, ना माँ बचा सकती है। उनसे ना कोई मित्र बचा सकता है, ना ही कोई भाई। वो पाँचों डाकू ना धन से हटाए जा सकते हैं, ना चतुराई से। वे पाँचों दुष्ट सिर्फ साध-संगति में रह के ही काबू में आते हैं।3। हे धर्नुधारी प्रभू! मेरे पर कृपा कर। मुझे संतों की चरण धूड़ दे, यही मेरे वास्ते सारे खजाने हैं। गुरू की संगति में रहने से आत्मिक जीवन का सरमाया सारा का सारा बचा रह सकता है। (परमात्मा का सेवक) नानक परमात्मा के प्रेम-रंग में रह के ही सुचेत रह सकता है (और पाँचों के आक्रमण से बच सकता है)।4। (हे भाई! कामादिक पाँचों डाकुओं के आक्रमण से) वही व्यक्ति सुचेत रहता है, जिस पर परमात्मा खुद दयावान होता है। उसकी आत्मिक जीवन की ये राशि-पूँजी सारी की सारी बची रहती है, उसके पास प्रभू का नाम-धन सरमाया बचा रहता है।1। रहाउ दूजा।20।89। गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ जा कै वसि खान सुलतान ॥ जा कै वसि है सगल जहान ॥ जा का कीआ सभु किछु होइ ॥ तिस ते बाहरि नाही कोइ ॥१॥ कहु बेनंती अपुने सतिगुर पाहि ॥ काज तुमारे देइ निबाहि ॥१॥ रहाउ ॥ सभ ते ऊच जा का दरबारु ॥ सगल भगत जा का नामु अधारु ॥ सरब बिआपित पूरन धनी ॥ जा की सोभा घटि घटि बनी ॥२॥ जिसु सिमरत दुख डेरा ढहै ॥ जिसु सिमरत जमु किछू न कहै ॥ जिसु सिमरत होत सूके हरे ॥ जिसु सिमरत डूबत पाहन तरे ॥३॥ संत सभा कउ सदा जैकारु ॥ हरि हरि नामु जन प्रान अधारु ॥ कहु नानक मेरी सुणी अरदासि ॥ संत प्रसादि मो कउ नाम निवासि ॥४॥२१॥९०॥ {पन्ना 182-183} पद्अर्थ: जा कै वसि = जिस (परमात्मा) के वश में। सगल = सारा। तिस ते = उस (परमात्मा) से। बाहरि = आकी।1। पाहि = पास। देइ = देता है, देगा। देहि निबाहि = सिरे चढ़ा देगा।1। रहाउ। अधारु = आसरा। बिआपति = व्यापक। धनी = मालिक-प्रभू। घटि घटि = हरेक घट में।2। दुख डेरा = दुखों का डेरा, सारे दुख। जमु = मौत, मौत का डर। सूके = र्निदयी, खुश्क दिल। हरे = नर्म दिल। पाहन = पत्थर।3। जैकारु = नमस्कार। संत सभा = साध-संगति। निवासि = निवास में, घर में।4। अर्थ: (हे भाई!) अपने गुरू के पास विनती कर। गुरू तेरे कार्य (जनम उद्देश्य) पूरे कर देगा, भाव (तुझे प्रभू के नाम की दाति बख्शेगा)।1। रहाउ। (हे भाई! दुनिया के) खान और सुल्तान भी जिस परमात्मा के अधीन हैं, सारा जगत ही जिसके हुकम में है, जिस परमात्मा का किया हुआ ही (जगत में) सब कुछ होता है, उस परमात्मा से कोई भी जीव आकी नहीं हो सकता।1। (हे भाई!) जिस परमात्मा का दरबार (दुनिया के) सारे शाहों-बादशाहों के दरबारों से ऊँचा (शानदार) है। सारे भक्तों की (जिंदगी) के वास्ते जिस परमात्मा का नाम आसरा है, जो मालिक प्रभू सब जीवों पे अपना प्रभाव रखता है और सब में व्यापक है, जिस परमात्मा की सुंदरता हरेक शरीर में अपनी दमक दिखा रही है (उसका नाम सदा सिमर)।2। (हे भाई!) जिस परमात्मा का सिमरन करने से सारे ही दुख दूर हो जाते हैं। जिसका नाम सिमरने से मौत का डर छू नहीं सकता। जिस परमात्मा का सिमरन करने से निर्दयी मनुष्य भी नर्म-दिल हो जाते हैं। जिसका नाम सिमरने से पत्थर दिल व्याक्ति (कठोरता के समुंद्र में) डूबने से बच जाते हैं, (तू भी गुरू की शरण पड़ कर उसका नाम सिमर)।3। (हे भाई!) साध-संगति के आगे हमेशा सिर झुकाओ, क्योंकि परमात्मा का नाम साध जनों (गुरमुखों) की जिंदगी का आसरा होता है, (उनकी संगति में तुझे भी नाम की प्राप्ति होगी)। हे नानक! कह– (करतार ने) मेरी विनती सुन ली और उसने गुरू की कृपा से मुझे अपने नाम के घर में (टिका दिया) है।4।21।90। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |