श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 183 गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ सतिगुर दरसनि अगनि निवारी ॥ सतिगुर भेटत हउमै मारी ॥ सतिगुर संगि नाही मनु डोलै ॥ अम्रित बाणी गुरमुखि बोलै ॥१॥ सभु जगु साचा जा सच महि राते ॥ सीतल साति गुर ते प्रभ जाते ॥१॥ रहाउ ॥ संत प्रसादि जपै हरि नाउ ॥ संत प्रसादि हरि कीरतनु गाउ ॥ संत प्रसादि सगल दुख मिटे ॥ संत प्रसादि बंधन ते छुटे ॥२॥ संत क्रिपा ते मिटे मोह भरम ॥ साध रेण मजन सभि धरम ॥ साध क्रिपाल दइआल गोविंदु ॥ साधा महि इह हमरी जिंदु ॥३॥ किरपा निधि किरपाल धिआवउ ॥ साधसंगि ता बैठणु पावउ ॥ मोहि निरगुण कउ प्रभि कीनी दइआ ॥ साधसंगि नानक नामु लइआ ॥४॥२२॥९१॥ {पन्ना 183} पद्अर्थ: सतिगुर दरसनि = गुरू के दर्शन की बरकति से। अगनि = तृष्णा आग। निवारी = दूर कर ली। भेटत = मिलने से। संगि = संगति में। अंम्रित बाणी = आत्मिक जीवन देने वाली बाणी। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर।1। साचा = सदा स्थिर (प्रभू का रूप)। जा = जब। सच महि = सदा सिथर प्रभू में। सीतल = ठंडे। साति = शांति, ठंड। ते = से, के द्वारा। जाते = जान पहिचान डाली।1। रहाउ। संत प्रसादि = गुरू की कृपा से। बंधन ते = बंधनों से।2। ते = से, साथ। साध रेण = गुरू के चरणों की धूड़। मजन = स्नान। सभ = सारे।3। किरपा निधि = कृपा का खजाना प्रभू। धिआवउ = मैं ध्याता हूँ। ता = तब। बैठण पावउ = मैं बैठना प्राप्त करता हूँ, मेरा जीअ लगता है। मोहि = मुझे। प्रभि = प्रभू ने।4। अर्थ: (हे भाई!) जब गुरू के द्वारा प्रभू के साथ गहरी सांझ डाल लेते हैं, जब सदा सिथर प्रभू के प्रेम रंग में रंगे जाते हैं, तब हृदय ठंडा-ठार हो जाता है, तब (मन में) शांति पैदा हो जाती है, तब सारा जगत सदा स्थिर परमात्मा का रूप दिखता है।1। रहाउ। (हे भाई!) गुरू के दीदार की बरकति से (मनुष्य अपने अंदर से तृष्णा की आग) बुझा लेता है। गुरू को मिल के (अपने मन में से) अहम् को मार लेता है। गुरू की संगति में रह के (मनुष्य का) मन (विकारों की तरफ) डोलता नहीं (क्योंकि) गुरू की शरण पड़ कर मनुष्य आत्मिक जीवन देने वाली गुरबाणी उचारता रहता है।1। (हे भाई!) गुरू की कृपा से मनुष्य परमात्मा का नाम जपता है, गुरू की कृपा से हरि कीर्तन गायन करता है। (इसका परिणाम ये निकलता है कि) सतिगुरू की कृपा से मनुष्य के सारे दुख कलेश मिट जाते हैं (क्योंकि) गुरू की मेहर से मनुष्य (माया के मोह के) बंधनों से निजात पा लेता है।2। (हे भाई!) गुरू की कृपा से माया का मोह और माया खातिर भटकना दूर हो जाती है। गुरू के चरणों की धूड़ी का स्नान ही सारे धर्मों का (सार) है। (जिस मनुष्य पर गुरू के सन्मुख रहने वाले) गुरमुख दयावान होते हैं, उस पर परमात्मा भी दयावान हो जाता है। (हे भाई!) मेरी जीवात्मा भी गुरमुखों के चरणों पे वारी जाती है।3। हे नानक! (कह– हे भाई!) मुझ गुणहीन पर प्रभू ने दया की, साध-संगति में मैं प्रभू का नाम जपने लग पड़ा। गुरू की मेहर से जब मैं कृपा के खजाने, कृपा के घर का नाम सिमरता हूँ, साध-संगति में मेरा जीअ लगता है।4।22।91। गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ साधसंगि जपिओ भगवंतु ॥ केवल नामु दीओ गुरि मंतु ॥ तजि अभिमान भए निरवैर ॥ आठ पहर पूजहु गुर पैर ॥१॥ अब मति बिनसी दुसट बिगानी ॥ जब ते सुणिआ हरि जसु कानी ॥१॥ रहाउ ॥ सहज सूख आनंद निधान ॥ राखनहार रखि लेइ निदान ॥ दूख दरद बिनसे भै भरम ॥ आवण जाण रखे करि करम ॥२॥ पेखै बोलै सुणै सभु आपि ॥ सदा संगि ता कउ मन जापि ॥ संत प्रसादि भइओ परगासु ॥ पूरि रहे एकै गुणतासु ॥३॥ कहत पवित्र सुणत पुनीत ॥ गुण गोविंद गावहि नित नीत ॥ कहु नानक जा कउ होहु क्रिपाल ॥ तिसु जन की सभ पूरन घाल ॥४॥२३॥९२॥ {पन्ना 183} पद्अर्थ: साध संगि = साध-संगत में। गुरि = गुरू ने। केवल = सिर्फ। मंतु = मंत्र। तजि = छोड़ के।1। दुसट = बुरी। बिगानी = बेज्ञानी, बेसमझी वाली। जब ते = जब से। कानी = कानों से।1। रहाउ। सहज = आत्मिक अडोलता। निधान = खजाने। रखि लेइ = बचा लेता है। भै = (शब्द ‘भउ’ का बहुवचन)। रखे = रोक लेता है। करम = बख्शिश। करि = कर के।2। सभु = हर जगह। ता कउ = उस प्रभू को। परगास = प्रकाश, रौशनी। गुणतासु = गुणों का खजाना प्रभू।3। पुनीत = पवित्र। होहु = तुम होते हो। घाल = मेहनत। पूरन = सफल।4। अर्थ: हे भाई! जब से परमात्मा की सिफत सालाह मैंने कानों से सुनी है, तब से मेरी बुरी व बेसमझी वाली मति दूर हो गई है।1। रहाउ। (हे भाई!) आठों पहर (हर वक्त) गुरू के पैर पूजो। (गुरू की कृपा से जिन मनुष्यों ने) साध-संगति में भगवान का सिमरन किया है, जिन्हें गुरू ने परमात्मा के नाम का मंत्र दिया है (उस मंत्र की बरकति से) वे अहंकार त्याग के निर्वैर हो गए हैं।1। (हे भाई! जिन मनुष्यों ने हरी-जस कानों से सुना है) आत्मिक अडोलता, सुख, आनंद के खजाने रखने वाले परमात्मा ने आखिर उनकी सदा रक्षा की है। उनके दुख-दर्द-डर-वहिम सारे नाश हो जाते हैं। परमात्मा मेहर करके उनके जनम मरण के चक्र भी खत्म कर देता है।2। हे (मेरे) मन! जो परमात्मा हर जगह (सब जीवों में व्यापक हो के) स्वयं देखता है, खुद ही बोलता है, खुद ही सुनता है, जो हर वक्त तेरे अंग संग है, उसका भजन कर। गुरू की कृपा से जिस मनुष्य के अंदर आत्मिक जीवन वाला प्रकाश पैदा होता है, उसे गुणों का खजाना एक परमात्मा ही हर जगह व्यापक दिखाई देता है।3। (हे भाई!) जो मनुष्य सदा ही गोबिंद के गुण गाते हैं वे सिफत सालाह करने वाले और सिफत सालाह सुनने वाले सभी पवित्र जीवन वाले बन जाते हैं। हे नानक! कह– (हे प्रभू!) जिस मनुष्य पे तू दयावान होता है (वह तेरी सिफत सालाह करता है) उसकी सारी ये मेहनत सफल हो जाती है।4।23।92। गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ बंधन तोड़ि बोलावै रामु ॥ मन महि लागै साचु धिआनु ॥ मिटहि कलेस सुखी होइ रहीऐ ॥ ऐसा दाता सतिगुरु कहीऐ ॥१॥ सो सुखदाता जि नामु जपावै ॥ करि किरपा तिसु संगि मिलावै ॥१॥ रहाउ ॥ जिसु होइ दइआलु तिसु आपि मिलावै ॥ सरब निधान गुरू ते पावै ॥ आपु तिआगि मिटै आवण जाणा ॥ साध कै संगि पारब्रहमु पछाणा ॥२॥ जन ऊपरि प्रभ भए दइआल ॥ जन की टेक एक गोपाल ॥ एका लिव एको मनि भाउ ॥ सरब निधान जन कै हरि नाउ ॥३॥ पारब्रहम सिउ लागी प्रीति ॥ निरमल करणी साची रीति ॥ गुरि पूरै मेटिआ अंधिआरा ॥ नानक का प्रभु अपर अपारा ॥४॥२४॥९३॥ {पन्ना 183-184} पद्अर्थ: बोलावै रामु = राम नाम मुंह से निकलवाता है, परमात्मा का सिमरन कराता है। साचु = अटॅल। मिटहि = मिट जाते हैं। रहीअै = जीते हैं। कहीअै = कहते हैं।1। सुखदाता = आत्मिक आनंद देने वाला। जि = जो (गुरू), क्योंकि वह (गुरू)। तिसु संगि = उस (परमात्मा) के साथ।1। रहाउ। निधान = खजाने। ते = से। आपु = स्वैभाव (शब्द ‘आपि’ और ‘आपु’ में फर्क पर ध्यान दें)। साध कै संगि = गुरू की संगति में।2। टेक = आसरा। गोपाल = धरती का रक्षक प्रभू। लिव = लगन। मनि = मन में। भाउ = प्यार। जन कै = सेवक के वास्ते, सेवक के हृदय में।3। सिउ = से, साथ। करणी = आचरण। रीति = जीवन मर्यादा। साची = अॅटल, अडोल, कभी ना डोलने वाली। गुरि = गुरू ने। अपर = (नास्ति परो यस्मात्) जिससे परे और कोई नहीं। अपार = जिसका उस पार नहीं ढूँढा जा सकता, बेअंत।4। अर्थ: (हे भाई!) वह सत्गुरू आत्मिक आनंद की दाति बख्शने वाला है क्योंकि वह परमात्मा का नाम जपाता है, और मेहर करके उस परमात्मा के साथ जोड़ता है।1। रहाउ। (हे भाई!) गुरू (मनुष्य के माया के मोह के) बंधन तोड़ के (उससे) परमात्मा का सिमरन करवाता है। (जिस मनुष्य पर गुरू मेहर करता है उसके) मन में (प्रभू चरणों की) अॅटल सुरति बंध जाती है। (हे भाई! गुरू की शरण पड़ने से मन के सारे) कलेश मिट जाते हैं, सुखी जीवन वाले हो जाते हैं। सो, गुरू ऐसी ऊँची दाति बख्शने वाला कहा जाता है।1। (पर) परमात्मा जिस मनुष्य पर दयावान हो उसे खुद (ही) गुरू मिलाता है, वह मनुष्य (फिर) गुरू से (आत्मिक जीवन के) सारे खजाने हासिल कर लेता है। वह (गुरू की शरण पड़ कर) स्वैभाव त्याग देता है, और उसके जनम मरण का चक्र समाप्त हो जाता है। गुरू की संगति में (रह के) वह मनुष्य परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाल लेता है।2। (हे भाई! गुरू की शरण की बरकति से) प्रभू जी सेवक पर दयावान हो जाते हैं, एक गोपाल प्रभू ही सेवक की जिंदगी का आसरा बन जाता है। (गुरू की शरण आए मनुष्य को) एक परमात्मा की ही लगन लग जाती है, उसके मन में एक परमात्मा का ही प्यार (टिक जाता है)। सेवक के दिल में परमात्मा का नाम ही (दुनिया के) सारे खजाने बन जाता है।3। (परमात्मा की मेहर से) पूरे गुरू ने (जिस मनुष्य के अंदर से माया के मोह का) अंधेरा दूर कर दिया, उसकी प्रीति परमात्मा के साथ पक्की बन जाती है, उसका जीवन पवित्र हो जाता है, उसकी जीवन मर्यादा (विकारों के आक्रमण से) अडोल हो जाती है। (हे भाई! ये सारी मेहर परमात्मा की ही है) नानक का प्रभू परे से परे है और बेअंत है।4।24।93। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |