श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ जिसु मनि वसै तरै जनु सोइ ॥ जा कै करमि परापति होइ ॥ दूखु रोगु कछु भउ न बिआपै ॥ अम्रित नामु रिदै हरि जापै ॥१॥ पारब्रहमु परमेसुरु धिआईऐ ॥ गुर पूरे ते इह मति पाईऐ ॥१॥ रहाउ ॥ करण करावनहार दइआल ॥ जीअ जंत सगले प्रतिपाल ॥ अगम अगोचर सदा बेअंता ॥ सिमरि मना पूरे गुर मंता ॥२॥ जा की सेवा सरब निधानु ॥ प्रभ की पूजा पाईऐ मानु ॥ जा की टहल न बिरथी जाइ ॥ सदा सदा हरि के गुण गाइ ॥३॥ करि किरपा प्रभ अंतरजामी ॥ सुख निधान हरि अलख सुआमी ॥ जीअ जंत तेरी सरणाई ॥ नानक नामु मिलै वडिआई ॥४॥२५॥९४॥ {पन्ना 184}

पद्अर्थ: मनि = मन में। जा कै करमि = जिस (प्रभू) की बख्शिश से। बिआपै = ’जोर डाल लेता है। रिदै = हृदय में।1।

ते = से। मति = अक्ल, सूझ।1। रहाउ।

सगले = सारे। जीअ = (‘जीव’ का बहुवचन)। अगम = अपहुँच। अगोचर = इंद्रियों की पहुँच से परे। मंता = उपदेश।2।

निधान = खजाने। बिरथी = व्यर्थ, निश्फल।3।

प्रभ = हे प्रभू! सुख निधान = हे सुखों के खजाने प्रभू! अलख = हे अदृष्ट।4।

अर्थ: (हे भाई!) अकाल पुरख परमेश्वर का सिमरन करना चाहिए। (सिमरन की) ये सूझ गुरू के पास से मिलती है।1। रहाउ।

जिस (परमात्मा) की कृपा से (उसके नाम की) प्राप्ति होती है, वह परमात्मा जिस मनुष्य के मन में बस जाता है वह (वह दुखों रोगों विकारों के समुंद्र में से) पार लांघ जाता है। (संसार का) कोई दुख, कोई रागे, कोई डर उस पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकता (क्योंकि) वह मनुष्य आत्मिक जीवन देने वाला हरि नाम अपने दिल में जपता रहता है।1।

हे (मेरे) मन! पूरे गुरू के उपदेश पर चल के उस (परमात्मा) को सिमर, जो सब कुछ करने की स्मर्था रखता है, जो जीवों से सब कुछ करवाने की ताकत रखता है। जो दया का घर है, जो सारे जीव-जंतुओं की पालना करता है, जो अपहुँच है, जिस तक मनुष्य की ज्ञानेंद्रियों की पहुँच नहीं हो सकती, जिसके गुणों का कभी अंत नहीं पाया जा सकता।2।

(हे भाई!) सदा ही सदा उस हरी के गुण गाता रह, जिसकी सेवा-भक्ति में ही (जगत के) सारे खजाने हैं। जिस हरी की पूजा करने से (हर जगह) आदर सत्कार मिलता है, और जिसकी की हुई सेवा निष्फल नहीं जाती।3।

हे नानक! (प्रभू दर पर प्रार्थना कर और कह–) हे अंतरजामी प्रभू! हे सुखों के खजाने प्रभू! हे अदृष्ट स्वामी! सारे जीव-जंतु तेरी शरण हैं (तेरे ही आसरे हैं, मैं भी तेरी शरण आया हूँ) मेहर कर, मुझे तेरा नाम मिल जाए (तेरा नाम ही मेरे वास्ते) बड़प्पन है।4।24।94।

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ जीअ जुगति जा कै है हाथ ॥ सो सिमरहु अनाथ को नाथु ॥ प्रभ चिति आए सभु दुखु जाइ ॥ भै सभ बिनसहि हरि कै नाइ ॥१॥ बिनु हरि भउ काहे का मानहि ॥ हरि बिसरत काहे सुखु जानहि ॥१॥ रहाउ ॥ जिनि धारे बहु धरणि अगास ॥ जा की जोति जीअ परगास ॥ जा की बखस न मेटै कोइ ॥ सिमरि सिमरि प्रभु निरभउ होइ ॥२॥ आठ पहर सिमरहु प्रभ नामु ॥ अनिक तीरथ मजनु इसनानु ॥ पारब्रहम की सरणी पाहि ॥ कोटि कलंक खिन महि मिटि जाहि ॥३॥ बेमुहताजु पूरा पातिसाहु ॥ प्रभ सेवक साचा वेसाहु ॥ गुरि पूरै राखे दे हाथ ॥ नानक पारब्रहम समराथ ॥४॥२६॥९५॥ {पन्ना 184}

पद्अर्थ: जीअ जुगति = सारे जीवों की जीवन मर्यादा। नाथु = खसम। चिति = चित्त में। भै = (शब्द ‘भउ’ का बहुवचन)। नाइ = नाम के द्वारा।1।

काहे का = किस का? मानहि = तू मानता है। काहे = कौन सा?।1। रहाउ।

जिनि = जिस (परमात्मा) ने। धरणि = धरती। अगास = आकाश। जीअ = सब जीवों में। परगास = प्रकाश। बखस = बख्शश।2।

मजनु = (मज्जन = dip) चॅुभी, डुबकी, स्नान। पाहि = अगर तू लेट जाए। कलंक = बदनामी।3।

साचा = सदा कायम रहने वाला। वेसाहु = भरोसा। गुरि पूरै = पूरे गुरू के द्वारा। समराथ = सब ताकतों का मालिक।4।

अर्थ: (हे भाई!) तू परमात्मा के बिना और किसी का डर क्यूँ मानता है? परमात्मा को भुला के और कौन सा सुख समझता है?।1। रहाउ।

(हे भाई!) उस अनाथों के नाथ परमात्मा का सिमरन कर, जिसके हाथों में सब जीवों की जीवन मर्यादा है। (हे भाई!) यदि परमात्मा (मनुष्य के) मन में बस जाए तो (उसका) हरेक दुख दूर हो जाता है। परमात्मा के नाम की बरकति के साथ सारे डर नाश हो जाते हैं।1।

(हे भाई!) उस प्रभू को सदा सिमर, जिसने अनेकों धरतियों, आकाशों को सहारा दिया हुआ है। जिसकी ज्योति सारे जीवों में प्रकाश कर रही है, और जिस की (की हुई कृपा को कोई मिटा नहीं सकता) (कोई रोक नहीं सकता)। (जो मनुष्य उस प्रभू को सिमरता है वह दुनिया के डरों से) निडर हो जाता है।2।

(हे भाई!) आठों पहर (हर वक्त) प्रभू का नाम सिमरता रह। (ये सिमरन ही) अनेकों तीर्थों का स्नान है। यदि तू परमात्मा की शरण पड़ जाए तो तेरे करोड़ों पाप एक पल में नाश हो जाएं।3।

हे नानक! परमात्मा को किसी की मुथाजी नहीं, किसी के आसरे नहीं। वह सब गुणों का मालिक है, वह सब गुणों का बादशाह है। प्रभू के सेवकों को प्रभू का अटॅल भरोसा रहता है। (हे भाई!) परमात्मा पूरे गुरू के द्वारा (अपने सेवकों को सब कलंकों से) हाथ दे कर बचाता है। परमात्मा सब ताकतों का मालिक है।4।26।95।

नोट: यहाँ बड़ा जोड़ 96 बनता है। पीछे देख चुके हैं कि जोड़ में एक की गिनती कम चली आ रही है।

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ गुर परसादि नामि मनु लागा ॥ जनम जनम का सोइआ जागा ॥ अम्रित गुण उचरै प्रभ बाणी ॥ पूरे गुर की सुमति पराणी ॥१॥ प्रभ सिमरत कुसल सभि पाए ॥ घरि बाहरि सुख सहज सबाए ॥१॥ रहाउ ॥ सोई पछाता जिनहि उपाइआ ॥ करि किरपा प्रभि आपि मिलाइआ ॥ बाह पकरि लीनो करि अपना ॥ हरि हरि कथा सदा जपु जपना ॥२॥ मंत्रु तंत्रु अउखधु पुनहचारु ॥ हरि हरि नामु जीअ प्रान अधारु ॥ साचा धनु पाइओ हरि रंगि ॥ दुतरु तरे साध कै संगि ॥३॥ सुखि बैसहु संत सजन परवारु ॥ हरि धनु खटिओ जा का नाहि सुमारु ॥ जिसहि परापति तिसु गुरु देइ ॥ नानक बिरथा कोइ न हेइ ॥४॥२७॥९६॥ {पन्ना 184-185}

पद्अर्थ: परसादि = कृपा से। नामि = नाम से। सोइआ = (माया के मोह की नींद में) सोया हुआ। उचरै = उचारता है। सुमति = श्रेष्ठ मति। पराणी = प्राणी, (जिस) मनुष्य (को)।1।

कुसल = सुख। सभि = सारे। घरि = घर में, हृदय में। बाहरि = जगत में घटित होतीं। सहज = आत्मिक अडोलता। सबाऐ = सारे।1। रहाउ।

जिनहि = जिस (परमात्मा) ने। उपाइआ = पैदा किया। प्रभि = प्रभू ने। पकरि = पकड़ के। करि = कर के, बना के।2।

तंत्रु = टूणा, जादू। अउखधु = दवाई। पुनह = दुबारा, पीछे से। पुनहचारु = पाप की निर्विति के लिए पाप करने के बाद किया हुआ धार्मिक कर्म, प्रायश्चित। जीअ अधारु = जीवात्मा का आसरा। साचा = सदा कायम रहने वाला। रंगि = प्रेम में। दुतरु = (दुस्तर) जिसे तैरना कठिन है।3।

सुखि = सुख में। संत सजन = हे संत सज्जन! खटिओ = कमाया, कमा लिया। जा का = जिस (धन) का। सुमारु = अंदाजा, नाप। परापति = भाग्यों में लिखा हुआ। बिरथा = खाली, व्यर्थ। हेइ = है।4।

अर्थ: (जो मनुष्य परमात्मा का सिमरन करता है) प्रभू का सिमरन करते हुए उसने सारे सुख प्राप्त कर लिए, उसके हृदय में (भी) आत्मिक अडोलता के सारे आनंद, जगत से बरतते हुए भी उसे आत्मिक अडोलता के सारे आनंद प्राप्त होते हैं।1। रहाउ।

जिस मनुष्य का मन गुरू की कृपा से परमात्मा के नाम में जुड़ता है, वह जन्मों जन्मांतरों का (माया के मोह की नींद में) सोया हुआ (भी) जाग पड़ता है। जिस प्राणी को पूरे गुरू की श्रेष्ठ मति प्राप्त होती है, वह प्रभू के आत्मिक जीवन देने वाले गुण उचारता है, प्रभू की (सिफत सालाह की) बाणी उचारता है।1।

प्रभू ने मेहर करके जिस मनुष्य को स्वयं (अपने चरणों में) जोड़ लिया, उस मनुष्य ने उसी प्रभू से गहरी सांझ डाल ली, जिस प्रभू ने उसे पैदा किया है। जिस मनुष्य को प्रभू ने बाँह पकड़ कर अपना बना लिया, वह मनुष्य सदैव प्रभू की सिफत सालाह की बातें करता है। प्रभू के नाम का जाप जपता है।2।

जो मनुष्य गुरू की संगति में रहता है, वह इस मुश्किल से तैरे जाने वाले संसार समुंद्र से पार लांघ जाता है। वह मनुष्य हरी के प्रेम रंग में (मस्त हो के) सदा साथ निभने वाला नाम-धन हासिल कर लेता है। हरी का नाम ही उस मनुष्य की जिंदगी के प्राणों का आसरा बन जाता है। (मोह की नींद दूर करने के लिए परमात्मा का नाम ही उसके वास्ते) मंत्र है। नाम ही जादू है, नाम ही दवाई है और नाम ही प्रायश्चित कर्म है।3।

हे संत जनो! प्रिवार बन के (मेर-तेर दूर करके, पूर्ण प्रेम से) आत्मिक आनंद में मिल बैठो। (जो मनुष्य गुरमुखों की संगति में बैठता है उसने) वह हरी-नाम धन कमा लिया जिसका अंदाजा नहीं लग सकता।

हे नानक! (प्रभू की मेहर से) जिसके भाग्यों में (नाम धन) लिखा हुआ है, उसे गुरू (नाम-धन) देता है, (गुरू के दर पर आ के) कोई मनुष्य खाली नहीं रह जाता।4।27।96।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh