श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गउड़ी महला ५ ॥ तुम हरि सेती राते संतहु ॥ निबाहि लेहु मो कउ पुरख बिधाते ओड़ि पहुचावहु दाते ॥१॥ रहाउ ॥ तुमरा मरमु तुमा ही जानिआ तुम पूरन पुरख बिधाते ॥ राखहु सरणि अनाथ दीन कउ करहु हमारी गाते ॥१॥ तरण सागर बोहिथ चरण तुमारे तुम जानहु अपुनी भाते ॥ करि किरपा जिसु राखहु संगे ते ते पारि पराते ॥२॥ ईत ऊत प्रभ तुम समरथा सभु किछु तुमरै हाथे ॥ ऐसा निधानु देहु मो कउ हरि जन चलै हमारै साथे ॥३॥ निरगुनीआरे कउ गुनु कीजै हरि नामु मेरा मनु जापे ॥ संत प्रसादि नानक हरि भेटे मन तन सीतल ध्रापे ॥४॥१४॥१३५॥ {पन्ना 209}

पद्अर्थ: संतहु = हे संत जनों! मो कउ = मुझे। पुरख बिधाते = हे सर्व व्यापक करतार! ओड़ि = सिरे तक। दाते = हे दातार!।1। रहाउ।

मरमु = भेद, दिल की बात। तुमा ही = तुम ही, तू ही। दीन = गरीब। गाते = गति, उच्च आत्मिक अवस्था।1।

बोहिथ = जहाज। भाते = भांति, किस्म, ढंग। ते ते = वे वे सारे। पराते = पड़ गए, गुजर गए।2।

ईत ऊत = इस लोक में व परलोक में। समरथा = सब ताकतों का मालिक। निधान = खजाना। हरि जन = हे हरी के जन!।3।

कउ = को। जापे = जपता रहे। संत प्रसादि = गुरू संत की कृपा से। ध्रापे = तृप्त हो गए।4।

अर्थ: हे संत जनो! (तुम भाग्यशाली हो कि) तुम परमात्मा के साथ रंगे हुए हो। हे सर्व-व्यापक करतार! हे दातार! मुझे भी (अपने प्यार में) निबाह ले, मुझे भी सिरे तक (प्रीति के दर्जे तक) पहुँचा ले।1। रहाउ।

हे सर्व-व्यापक करतार! अपने दिल की बात तू स्वयं ही जानता है, मुझ अनाथ को गरीब को अपनी शरण में रख, मेरी आत्मिक अवस्था ऊँची बना दे।1।

(हे प्रभू!) संसार समुंद्र से पार हो गुजरने के लिए तेरे चरण (मेरे लिए) जहाज हैं। किस तरीके से तू पार लंघाता है? - ये तू खुद ही जानता है। हे प्रभू! मेहर करके जिस जिस मनुष्य को तू अपने साथ रखता है, वे सारे (संसार समुंद्र से) पार लांघ जाते हैं।2।

हे प्रभू! (हम जीवों के लिए) इस लोक में और परलोक में तू ही सब ताकतों का मालिक है (हमारा हरेक सुख दुख) तेरे ही हाथ में है।

हे प्रभू के संत जनो! मुझे ऐसा नाम-खजाना दो, जो (यहाँ से जाते समय) मेरे साथ जाए।3।

(हे संत जनो!) मुझ गुणहीन को (परमात्मा की सिफत सालाह का) गुण बख्शो। (मेहर करो) मेरा मन परमात्मा का नाम सदा जपता रहे।

हे नानक! गुरू संत की किरपा से जिन लोगों को परमात्मा मिल जाता है, उनके मन (माया की तृष्णा की ओर से) तृप्त हो जाते हैं, उनके तन ठण्डे ठार हो जाते हैं (विकारों की तपस से बच जाते हैं)।4।14।135।

गउड़ी महला ५ ॥ सहजि समाइओ देव ॥ मो कउ सतिगुर भए दइआल देव ॥१॥ रहाउ ॥ काटि जेवरी कीओ दासरो संतन टहलाइओ ॥ एक नाम को थीओ पूजारी मो कउ अचरजु गुरहि दिखाइओ ॥१॥ भइओ प्रगासु सरब उजीआरा गुर गिआनु मनहि प्रगटाइओ ॥ अम्रितु नामु पीओ मनु त्रिपतिआ अनभै ठहराइओ ॥२॥ मानि आगिआ सरब सुख पाए दूखह ठाउ गवाइओ ॥ जउ सुप्रसंन भए प्रभ ठाकुर सभु आनद रूपु दिखाइओ ॥३॥ ना किछु आवत ना किछु जावत सभु खेलु कीओ हरि राइओ ॥ कहु नानक अगम अगम है ठाकुर भगत टेक हरि नाइओ ॥४॥१५॥१३६॥ {पन्ना 209}

पद्अर्थ: सहजि = आत्मिक अडोलता में। देव = हे प्रकाश रूप प्रभू! ।1। रहाउ।

काटि = काट के। जेवरी = माया की जंजीर। को = का। थीओ = हो गया हूँ। गुरहि = गुरू ने।1।

मनहि = मन में। त्रिपतिआ = तृप्त हो गया। अनभै = अनुभव में, उस प्रभू में जिसे कोई डर छू नहीं सकता। (अनभउ = अन भउ, बिना भय के)।2।

मानि = मान के। दूखहु ठाउ = दुखों की जगह, दुखों का नाम निशान। सभु = हर जगह।3।

जावत = मरता। सभु = सारा। खेलु = तमाशा। अगम = अपहुँच। हरि नाइओ = हरी के नाम की।4।

अर्थ: हे प्रकाश रूप प्रभू! (तेरी मेहर से) मेरे पर सतिगुरू जी दयावान हो गए, और मैं अब आत्मिक अडोलता में लीन रहता हूँ।1। रहाउ।

(हे प्रभू!) गुरू ने मुझे तेरा (हर जगह व्यापक) आश्चर्यजनक रूप दिखा दिया है, उसने मेरी (माया के मोह की) जंजीर काट के मुझे तेरा दास बना दिया है, मुझे संत जनों की सेवा में लगा दिया है, अब मैं सिर्फ तेरे ही नाम का पुजारी बन गया हूँ।1।

(हे भाई!) जब से गुरू का बख्शा हुआ ज्ञान मेरे मन में प्रगट हो गया, तो मेरे अंदर परमात्मा के अस्तित्व का प्रकाश हो गया, मुझे हर जगह उसी की रौशनी नजर आने लगी। गुरू की कृपा से मैंने आत्मिक जीवन देने वाला परमात्मा का नाम-रस पीया है, और मेरा मन (माया की तृष्णा से) भर चुका है। मैं उस परमात्मा में टिक गया हूँ जिसे कोई डर छू नहीं सकता।2।

(हे भाई!) गुरू का हुकम मान के मैंने सारे सुख-आनंद प्राप्त कर लिए हैं, मैंने अपने अंदर से दुखों का डेरा ही उठा दिया है। जब से (गुरू की कृपा से) ठाकुर प्रभू जी मेरे पर मेहरवान हुए हैं, मुझे हर जगह वह आनंद स्वरूप परमात्मा ही दिख रहा है।3।

(हे भाई! जब से सतिगुरू जी मेरे पर दयावान हुए हैं, मुझे विश्वास हो गया है कि) ना कुछ पैदा होता है ना कुछ मरता है, ये सारा तो प्रभू पातशाह ने एक खेल रचाया हुआ है।

हे नानक! कह– सर्व-पालक परमात्मा अपहुँच है, सब जीवों की पहुँच से परे है। उसके भक्तों को उस हरी के नाम का ही सहारा है।4।15।136।

गउड़ी६ महला ५ ॥ पारब्रहम पूरन परमेसुर मन ता की ओट गहीजै रे ॥ जिनि धारे ब्रहमंड खंड हरि ता को नामु जपीजै रे ॥१॥ रहाउ ॥ मन की मति तिआगहु हरि जन हुकमु बूझि सुखु पाईऐ रे ॥ जो प्रभु करै सोई भल मानहु सुखि दुखि ओही धिआईऐ रे ॥१॥ कोटि पतित उधारे खिन महि करते बार न लागै रे ॥ दीन दरद दुख भंजन सुआमी जिसु भावै तिसहि निवाजै रे ॥२॥ सभ को मात पिता प्रतिपालक जीअ प्रान सुख सागरु रे ॥ देंदे तोटि नाही तिसु करते पूरि रहिओ रतनागरु रे ॥३॥ जाचिकु जाचै नामु तेरा सुआमी घट घट अंतरि सोई रे ॥ नानकु दासु ता की सरणाई जा ते ब्रिथा न कोई रे ॥४॥१६॥१३७॥ {पन्ना 209}

पद्अर्थ: पारब्रहम = परे से परे ब्रहम्। पूरन = व्यापक। परमेसुर = सबसे बड़ा मालिक। मन = हे मन! ता की = उस की। गहीजै = पकड़नी चाहिए। जिनि = जिस प्रभू ने। धारे = टिकाए हुए हैं। ता को = उस का।1। रहाउ।

हरि जन = हे हरी जनो! बूझि = समझ के। भल = भला। मानहु = मानो। सुखि = सुख में। दुखि = दुख में।1।

कोटि = करोड़ों। पतित = विकारों में गिरे हुए। उधारे = बचा लेता है। करते = करतार को। बार = समय। भंजन = नाश करने वाला। तिसहि = उसे ही। निवाजै = बख्शता है।2।

सभ को = सबका। जीअ प्रान सुख सागरु = जीवात्मा का, प्राणों का, सुखों का समुंद्र। तोटि = कमी। रतनागरु = (रत्न+आकुर। आकुर = खान) रत्नों की खान।3।

जाचिक = मंगता। जाचै = मांगता है। सोई = वही। घट घट अंतरि = हरेक घट के अंदर। घट = शरीर। ता की = उस प्रभू की। जा ते = जिस (के दर) से। ब्रिथा = बेकार, खाली, निराश।4।

अर्थ: हे मेरे मन! उस परमात्मा का आसरा लेना चाहिए, जो बेअंत है, सर्व-व्यापक है, और सबसे बड़ा मालिक है। हे मन! उस परमात्मा का नाम जपना चाहिए, जिसने सारे धरती मण्डलों को, सारे जगत को (पैदा करके) सहारा दिया हुआ है।1। रहाउ।

हे हरी के सेवको! अपने मन की चतुराई छोड़ दो। परमात्मा की रजा को समझ के ही सुख पा सकते हैं। हे संत जनो! सुख में (भी), और दुख में (भी) उस परमात्मा को ही याद करना चाहिए। हे संत जनो! जो कुछ परमात्मा करता है, उसे भला करके मानो।1।

(हे हरी जनो!) विकारों में गिरे हुए करोड़ों लोगों को (अगर चाहे तो) करतार एक पल में (विकारों से) बचा लेता है (और ये काम करते) करतार को छिन मात्र भी समय नहीं लगता। वह मालिक प्रभू गरीबों के दर्द-दुख नाश करने वाला है। जिस पर वह प्रसन्न होता है, उस पर बख्शिशें करता है।2।

हे भाई! परमात्मा सब की जिंद व प्राणों के वास्ते सुखों का समुंद्र है, सभी का माँ-बाप है, सबकी पालना करता है। (जीवों को दातें) देते हुए उस करतार के खजाने में कमी नहीं होती। वह रत्नों की खान है और रत्नों से नाको-नाक भरा हुआ है।3।

हे मेरे मालिक! (तेरे दर का) मंगता (नानक) तेरा नाम (दात की तरह) मांगता है। (हे भाई!) दास नानक उस परमात्मा की ही शरण पड़ा है, जिसके दर से कोई निराश नहीं जाता।4।16।137।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh