श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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रागु गउड़ी१ पूरबी महला ५    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

हरि हरि कबहू न मनहु बिसारे ॥ ईहा ऊहा सरब सुखदाता सगल घटा प्रतिपारे ॥१॥ रहाउ ॥ महा कसट काटै खिन भीतरि रसना नामु चितारे ॥ सीतल सांति सूख हरि सरणी जलती अगनि निवारे ॥१॥ गरभ कुंड नरक ते राखै भवजलु पारि उतारे ॥ चरन कमल आराधत मन महि जम की त्रास बिदारे ॥२॥ पूरन पारब्रहम परमेसुर ऊचा अगम अपारे ॥ गुण गावत धिआवत सुख सागर जूए जनमु न हारे ॥३॥ कामि क्रोधि लोभि मोहि मनु लीनो निरगुण के दातारे ॥ करि किरपा अपुनो नामु दीजै नानक सद बलिहारे ॥४॥१॥१३८॥ {पन्ना 210}

पद्अर्थ: मनहु = मन से। विसारे = बिसारे, भुला दे। ईहा = इस लोक में। ऊहा = परलोक में। प्रतिपारे = पालना करता है।1। रहाउ।

महा कसट = बड़े बड़े कष्ट। रसन = जीभ (से)। सीतल = ठंडा। जलती = जल रही। निवारे = दूर करता है, बुझा देता है।1।

गरभ = माँ का पेट। ते = से। राखै = रक्षा करता है। आराधत = आराधना करते हुए, सिमरते हुए। त्रास = डर। बिदारे = दूर करता है, फाड़ देता है।2।

अगम = अपहुँच। अपार = बेअंत। सुख सागर = सुखों का समुंद्र। जूए ना हारे = जूए में नहीं हारता, व्यर्थ नहीं गवाता।3।

कामि = काम में। मोहि = मोह में। लीनो = लीन, गर्क। निरगुण = गुण हीन। दातारे = हे दाते! सद = सदा। बलिहारे = कुर्बान।4।

अर्थ: (हे भाई!) कभी भी परमात्मा को अपने मन से ना विसार। वह परमात्मा इस लोक में और परलोक में, सब जीवों को सुख देने वाला है, और सारे शरीरों की पालना करने वाला है।1। रहाउ।

(हे भाई! जो मनुष्य अपनी) जीभ से उस परमात्मा का नाम याद करता है, उस मनुष्य के वह (प्रभू) बड़े बड़े कष्ट एक छिन में दूर कर देता है। जो मनुष्य उस हरी की शरण पड़ते हैं, उनके अंदर से वह हरी (तृष्णा की) जल रही अग्नि को बुझा देता है, वे (विकारों की आग की तपश से बच के) ठण्डक पाते हैं, उनके अंदर शांति और आनंद ही आनंद बन जाते हैं।1।

(हे भाई!) परमात्मा के सुंदर चरण मन में आराधने से परमात्मा माँ के पेट के नर्क-कुण्ड से बचा लेता है और मौत का सहम दूर कर देता है।2।

(हे भाई!) परमात्मा सर्व-व्यापक है, सब से ऊँचा मालिक है, अपहुँच है, बेअंत है, उस सुखों के समुंद्र प्रभू के गुण गाने और नाम आराधने से मनुष्य अपना मानस जन्म व्यर्थ नही गवा के जाता।3।

हे नानक! (अरदास कर और कह–) हे (मैं) गुण हीन के दातार! मेरा मन काम में, क्रोध में, लोभ में, मोह में फंसा पड़ा है। मेहर कर, मुझे अपना नाम बख्श। मैं तुझसे सदा कुर्बान जाता हूँ।4।1।138।

रागु गउड़ी चेती१ महला ५    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

सुखु नाही रे हरि भगति बिना ॥ जीति जनमु इहु रतनु अमोलकु साधसंगति जपि इक खिना ॥१॥ रहाउ ॥ सुत स्मपति बनिता बिनोद ॥ छोडि गए बहु लोग भोग ॥१॥ हैवर गैवर राज रंग ॥ तिआगि चलिओ है मूड़ नंग ॥२॥ चोआ चंदन देह फूलिआ ॥ सो तनु धर संगि रूलिआ ॥३॥ मोहि मोहिआ जानै दूरि है ॥ कहु नानक सदा हदूरि है ॥४॥१॥१३९॥ {पन्ना 210}

पद्अर्थ: रे = हे भाई! जीति = जीत ले। अमोलक = जिसका मूल्य ना पाया जा सके।1। रहाउ।

सुत = पुत्र। संपति = धन-पदार्थ। बिनोद = लाड प्यार। बनिता = स्त्री।1।

हैवर = (हय+वर) बढ़िया घोड़े। गैवर = (गज+वर) बढ़िया हाथी। मूढ़ = मूर्ख।2।

चोआ = इत्र। देह = शरीर। फूलिया = अहंकारी हुआ। धर संगि = धरती के साथ।3।

मोहि = मोह में। हदूरि = हाजिर नाजिर, अंग संग।4।

अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा की भक्ति के बिना (और किसी तरीके से) सुख नहीं मिल सकता। (इस वास्ते) साध-संगति में मिल के परमात्मा का नाम जप और इस मानस जन्म की बाजी जीत ले। ये (मानस जन्म) ऐसा रत्न है जिसकी कीमत नहीं पाई जा सकती (जो किसी मूल्य से नहीं मिल सकती)।1। रहाउ।

(हे भाई!) पुत्र, धन, पदार्थ, स्त्री के लाड-प्यार - अनेकों लोग ऐसे मौज मेले छोड़ के यहां से चले गए (और चले जाएंगे)।1।

(हे भाई!) बढ़िया घोड़े, बढ़िया हाथी और हकूमत की मौजें- मूर्ख मनुष्य इनको छोड़ के (आखिर) नंगा ही (यहां से) चल पड़ता है।2।

(हे भाई!मनुष्य अपने) शरीर को इत्र और चंदन (आदि लगा के) मान करता है (पर ये नहीं समझता कि) वह शरीर (आखिर) मिट्टी में मिल जाना है।3।

(हे भाई!माया के) मोह में फंसा मनुष्य समझता है (कि परमात्मा कहीं) दूर बसता है। (पर) हे नानक! कह– परमात्मा सदा (हरेक जीव के) अंग-संग बसता है।4।1।139।

गउड़ी महला ५ ॥ मन धर तरबे हरि नाम नो ॥ सागर लहरि संसा संसारु गुरु बोहिथु पार गरामनो ॥१॥ रहाउ ॥ कलि कालख अंधिआरीआ ॥ गुर गिआन दीपक उजिआरीआ ॥१॥ बिखु बिखिआ पसरी अति घनी ॥ उबरे जपि जपि हरि गुनी ॥२॥ मतवारो माइआ सोइआ ॥ गुर भेटत भ्रमु भउ खोइआ ॥३॥ कहु नानक एकु धिआइआ ॥ घटि घटि नदरी आइआ ॥४॥२॥१४०॥ {पन्ना 210}

पद्अर्थ: मन = हे मन! धर = आसरा। तरबे = तैरने के लिए। नामनो = (नमन) नाम। सागर = समुंद्र। संसा = सहम, फिक्र। पार गरामनो = पार लांघने के लिए।1। रहाउ।

कलि = (कलह) (माया की खातिर) झगड़ा बखेड़ा। अंधिआरीआ = अंधकार पैदा करने वाली। दीपक = दीया। उजिआरीआ = प्रकाश पैदा करने वाला।1।

बिखु = जहर। बिखिआ = माया। पसरी = बिखरी हुई। घनी = संघनी। उबरे = बच गए। हरि गुनी = हरी के गुणों को।2।

मतवारो = मस्त, मतवाला। भेटत = मिल के ही। भ्रम = भटकना। खोइआ = दूर कर लिया।3।

घटि घटि = हरेक घट में।4।

अर्थ: हे मन! परमात्मा का नाम (संसार समुंद्र से) पार लंघाने के लिए आसरा है। ये संसार सहिम फिक्रों की लहरों से भरा हुआ समुंद्र है। गुरू जहाज है जो इसमें से पार लंघाने के स्मर्थ है।1। रहाउ।

(हे भाई! दुनिया की खातिर) झगड़े-बखेड़े (एक ऐसी) कालिख है (जो मनुष्य के मन में मोह का) अंधकार पैदा करती है। गुरू का ज्ञान दीपक है जो (मन में उच्च आत्मिक जीवन का) प्रकाश पैदा करता है।1।

(हे भाई!) माया (के मोह) का जहर (जगत में) बहुत गहरा बिखरा हुआ है। परमात्मा के गुणों को याद कर करके ही (मनुष्य इस जहर की मार से) बच सकते हैं।2।

(हे भाई!) माया में मस्त हुआ मनुष्य (मोह की नींद में) सोया रहता है, पर गुरू को मिलने से (मनुष्य की माया की खातिर) भटकना और (दुनिया का) सहम-डर दूर कर लेता है।3।

हे नानक! कह– जिस मनुष्य ने एक परमात्मा का ध्यान धरा है, उसे परमात्मा हरेक शरीर में बसता दिखाई देने लगा है।4।2।140।

गउड़ी महला ५ ॥ दीबानु हमारो तुही एक ॥ सेवा थारी गुरहि टेक ॥१॥ रहाउ ॥ अनिक जुगति नही पाइआ ॥ गुरि चाकर लै लाइआ ॥१॥ मारे पंच बिखादीआ ॥ गुर किरपा ते दलु साधिआ ॥२॥ बखसीस वजहु मिलि एकु नाम ॥ सूख सहज आनंद बिस्राम ॥३॥ प्रभ के चाकर से भले ॥ नानक तिन मुख ऊजले ॥४॥३॥१४१॥ {पन्ना 210-211}

पद्अर्थ: दीबानु = हाकम, आसरा। थारी = तेरी। गुरहि = गुरू की। टेक = ओट।1। रहाउ।

जुगति = युक्ति, ढंग, तरीके। गुरि = गुरू ने। चाकर = नौकर, सेवक।1।

बिखादी = झगड़ालू। दलु = फौज। साधिआ = काबू कर लिया।2।

बखसीस = दान। वजहु = के तौर पर। मिलि = मिल जाए। सहज = आत्मिक अडोलता।3।

से = (बहुवचन) वह लोग। ऊजले = रौशन, चमकते।4।

अर्थ: हे प्रभू! सिर्फ तू ही मेरा आसरा है। गुरू की ओट ले कर मैं तेरी ही सेवा भक्ति करता हूँ।1। रहाउ।

हे प्रभू! (विभिन्न) अनेकों ढंगों से मैं तूझे नहीं ढूँढ सका। (अब) गुरू ने (मेहर करके मुझे) तेरा चाकर बना के (तेरे चरणों में) लगा दिया है।1।

(हे प्रभू!अब मैंने कामादिक) पाँचों झगड़ालू वैरी मार डाले हैं, गुरू की मेहर से मैंने (इन पाँचों की) फौज काबू कर ली है।2।

(हे प्रभू! जिस मनुष्य को) सिर्फ तेरा नाम बख्शिश के तौर पर मिल जाता है, उसके अंदर आत्मिक अडोलता के सुख आनंद बस पड़ते हैं।

हे नानक! (कह– जो मनुष्य) परमात्मा के सेवक बनते हैं, वे भाग्यशाली हो जाते हैं (परमात्मा के दरबार में) उनके मुंह रौशन रहते हैं।4।3।141।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh