श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गउड़ी महला ५ ॥ जीअरे ओल्हा नाम का ॥ अवरु जि करन करावनो तिन महि भउ है जाम का ॥१॥ रहाउ ॥ अवर जतनि नही पाईऐ ॥ वडै भागि हरि धिआईऐ ॥१॥ लाख हिकमती जानीऐ ॥ आगै तिलु नही मानीऐ ॥२॥ अह्मबुधि करम कमावने ॥ ग्रिह बालू नीरि बहावने ॥३॥ प्रभु क्रिपालु किरपा करै ॥ नामु नानक साधू संगि मिलै ॥४॥४॥१४२॥ {पन्ना 211}

पद्अर्थ: जीअ रे = हे जीव! हे जिंदे! ओला = आसरा। अवरु = अन्य। जि = जो। करन करावनो = दौड़ भाग।, करने कराने वाला। जाम का भउ = यम का डर, आत्मिक मौत का खतरा।1। रहाउ।

जतनि = यत्न से। भागि = किस्मत से। धिआईअै = सिमरा जा सकता है।1।

हिकमती = हिकमतों के कारण। जानीअै = (जगत में) प्रसिद्ध हो जाएं। आगै = परलोक में। मानीअै = आदर मिलता है।2।

अहंबुधि = अहंकार पैदा करने वाली अक्ल। बालू = रेत। नीरि = नीर ने, पानी ने। बहावने = बहा दिए।3।

साधू संगि = गुरू की संगति में।4।

अर्थ: हे मेरी जिंदे! परमात्मा के नाम का ही आसरा (लोक परलोक में सहायता करता है)। (नाम के बिना माया की खातिर) और जितना भी उद्यम-यत्न है उन सारे कामों में आत्मिक मौत का खतरा (बनता जाता है)।1। रहाउ।

(पर,) बड़ी किस्मत से ही परमात्मा का सिमरन किया जा सकता है (और सिमरन के बिना किसी भी) और यत्न से परमात्मा नहीं मिलता।1।

(अगर जगत में) लाखों चतुराईयों कर करके इज्ज़त कमा लें, परलोक में (इन हिकमतों के कारण) थोड़ा सा भी आदर नहीं मिलता।2।

(हे जिंदे! अगर अपनी तरफ से धार्मिक) कर्म (भी) किए जाएं (पर वह) अहंकार वाली अक्ल बढ़ाने वाले ही हों, तो वह ऐसे कर्म रेत के बने घरों की तरह ही हैं जिन्हें (बाढ़ का) पानी बहा ले गया।3।

हे नानक! (कह–) दया का श्रोत परमात्मा जिस मनुष्य पर किरपा करता है, उसे गुरू की संगति में परमात्मा का नाम मिलता है।4।4।142।

गउड़ी महला ५ ॥ बारनै बलिहारनै लख बरीआ ॥ नामो हो नामु साहिब को प्रान अधरीआ ॥१॥ रहाउ ॥ करन करावन तुही एक ॥ जीअ जंत की तुही टेक ॥१॥ राज जोबन प्रभ तूं धनी ॥ तूं निरगुन तूं सरगुनी ॥२॥ ईहा ऊहा तुम रखे ॥ गुर किरपा ते को लखे ॥३॥ अंतरजामी प्रभ सुजानु ॥ नानक तकीआ तुही ताणु ॥४॥५॥१४३॥ {पन्ना 211}

पद्अर्थ: बारनै = वारने, सदके। बरीआ = वारी। हे = हे भाई! नामो = नाम ही। को = का। प्रान अधरीआ = जिंद का आसरा।1। रहाउ।

तूही = हे प्रभू! तू ही। जीअ टेक = जीवों का आसरा।1।

धनी = मालिक। निरगुनी = माया के गुणों से रहित।, अदृष्ट रूप। सरगुनी = ये सारा जगत जिसका स्वरूप है।2।

ईहा = इस लोक में। ऊहा = उस लोक में, परलोक में। ते = से, साथ। को = कोई विरला। लखे = समझता है।3।

प्रभ = हे प्रभू! सुजानु = समझदार। तकीआ = सहारा। ताणु = बल, ताकत।4।

अर्थ: हे भाई!मैं (परमात्मा के नाम से) लाखों बार सदके जाता हूँ, कुर्बान जाता हूँ। मालिक प्रभू का नाम ही नाम जीवों की जिंदों का आसरा है।1। रहाउ।

हे प्रभू!सिर्फ तू ही सब कुछ करने की ताकत रखता है, जीवों से करवाने की स्मर्था रखता है, तू ही सारे जीव-जंतुओं का सहारा है।1।

हे प्रभू! तू ही हकूमत का मालिक है, तू ही जवानी का मालिक है (तुझसे ही जीव दुनिया में हकूमत करने की ताकत लेते हैं, तेरे से ही जवानी प्राप्त करते हैं)। (जब जगत नहीं था बना) माया के तीनों गुणों से रहित (निर्गुण) भी तू ही है, (अब तूने जगत रच दिया है) ये दिखाई दे रहा आकार (सर्गुण) माया के तीनों गुणों वाला- ये भी तू स्वयं ही है।2।

(हे प्रभू!) इस लोक में और परलोक में तु ही सबकी रक्षा करता है। (पर) कोई विरला मनुष्य ही गुरू की किरपा से (ये भेद) समझता है।3।

हे प्रभू! तू सबके दिलों की जानने वाला है, तू ही समझदार है। नानक का सहारा तू ही है, नानक का बल भी तू ही है।4।5।143।

गउड़ी महला ५ ॥ हरि हरि हरि आराधीऐ ॥ संतसंगि हरि मनि वसै भरमु मोहु भउ साधीऐ ॥१॥ रहाउ ॥ बेद पुराण सिम्रिति भने ॥ सभ ऊच बिराजित जन सुने ॥१॥ सगल असथान भै भीत चीन ॥ राम सेवक भै रहत कीन ॥२॥ लख चउरासीह जोनि फिरहि ॥ गोबिंद लोक नही जनमि मरहि ॥३॥ बल बुधि सिआनप हउमै रही ॥ हरि साध सरणि नानक गही ॥४॥६॥१४४॥ {पन्ना 211}

पद्अर्थ: आराधीअै = सिमरना चाहिए। संगि संगि = संतों की संगति में। मनि = मन में। साधीअै = साधा जा सकता है, काबू किया जा सकता है।1। रहाउ।

भने = कहते हैं। सभ ऊच = सबसे ऊँचे। बिराजित = टिके हुए। सुने = सुने जाते हैं।1।

असथान = स्थान, हृदय स्थल। भै भीत = डरों से सहमे हुए। चीन = देखे जाते हैं।2।

फिरहि = भटकते फिरते हैं। जनमि = जनम के। मरहि = मरते हैं।3।

रही = खत्म हो जाती है। गही = पकड़ी।4।

अर्थ: (हे भाई!) सदा परमात्मा का नाम सिमरना चाहिए। संतों की संगति में (ही) परमात्मा (मनुष्य के) मन में बस सकता है। भटकनों को, मोह को और डर-सहम को काबू किया जा सकता है।1। रहाउ।

(हे भाई!पण्डित लोग चाहे) वेद-पुराण-स्मृतियां (आदि धार्मिक पुस्तकों को) पढ़ते हैं पर संत जन अन्य सभी लोगों से ऊँचे आत्मिक ठिकाने पे टिके हुए सुने जाते हैं।1।

(हे भाई!) और सारे हृदय-स्थल डरों से सहमे हुए देखे जा सकते हैं, (परमात्मा के सिमरन ने) परमात्मा के भक्तों को डरों से रहित कर दिया है।2।

(हे भाई!जीव) चौरासी लाख जूनियों में भटकते फिरते हैं, पर परमात्मा के भक्त जनम मरन के चक्कर में नहीं पड़ते।3।

(हे नानक! जिन मनुष्यों ने) परमात्मा का, गुरू का आसरा ले लिया, उनके अंदर से अहंकार दूर हो जाता है। वह अपनी ताकत का, अपनी अक्ल का, अपनी समझदारी का आसरा नहीं लेते।4।6।144।

गउड़ी महला ५ ॥ मन राम नाम गुन गाईऐ ॥ नीत नीत हरि सेवीऐ सासि सासि हरि धिआईऐ ॥१॥ रहाउ ॥ संतसंगि हरि मनि वसै ॥ दुखु दरदु अनेरा भ्रमु नसै ॥१॥ संत प्रसादि हरि जापीऐ ॥ सो जनु दूखि न विआपीऐ ॥२॥ जा कउ गुरु हरि मंत्रु दे ॥ सो उबरिआ माइआ अगनि ते ॥३॥ नानक कउ प्रभ मइआ करि ॥ मेरै मनि तनि वासै नामु हरि ॥४॥७॥१४५॥ {पन्ना 211}

पद्अर्थ: मन = हे मन! गुन = गुण। सेवीअै = सेवा भक्ति करनी चाहिए। सासि सासि = हरेक श्वास के साथ।1। रहाउ।

मनि = मन में (शब्द ‘मन’ और ‘मनि’ में फर्क याद रखें)। भ्रम = भटकना।1।

प्रसादि = किरपा से। जापीअै = जपा जा सकता है। दूखि = दुख में। विआपीअै = दब जाता है, काबू में आता है।2।

कउ = को। मंत्र = उपदेश। दे = देता है। ते = से।3।

मइआ = दया। तनि = हृदय में। वसै = बस पड़े।4।

अर्थ: हे (मेरे) मन! (आ) परमात्मा का नाम सिमरें, परमात्मा के गुण गायन करें। (हे मन!) सदा ही परमात्मा की भक्ति करनी चाहिए।1। रहाउ।

(हे भाई!) गुरू संत की संगति में (रहने से) परमात्मा (मनुष्य के) मन में आ बसता है। (जिस के मन में बस जाता है उसके अंदर से) हरेक किस्म के दुख दर्द दूर हो जाते हैं, मोह का अंधकार दूर हो जाता है (माया की खातिर) भटकना समाप्त हो जाती है।1।

(हे भाई!) गुरू की किरपा से (ही) परमात्मा का नाम जपा जा सकता है। (जो मनुष्य जपता है) वह मनुष्य किसी किस्म के दुख में नहीं घिरता।2।

(हे भाई!) गुरू जिस मनुष्य को परमात्मा का नाम मंत्र देता है, वह मनुष्य माया की (तृष्णा) आग (में जलने) से बच जाता है।3।

(हे प्रभू! मुझ) नानक पर किरपा कर, (ताकि) मेरे मन में हृदय में, हे हरी! तेरा नाम बस जाए।4।7।145।

गउड़ी महला ५ ॥ रसना जपीऐ एकु नाम ॥ ईहा सुखु आनंदु घना आगै जीअ कै संगि काम ॥१॥ रहाउ ॥ कटीऐ तेरा अहं रोगु ॥ तूं गुर प्रसादि करि राज जोगु ॥१॥ हरि रसु जिनि जनि चाखिआ ॥ ता की त्रिसना लाथीआ ॥२॥ हरि बिस्राम निधि पाइआ ॥ सो बहुरि न कत ही धाइआ ॥३॥ हरि हरि नामु जा कउ गुरि दीआ ॥ नानक ता का भउ गइआ ॥४॥८॥१४६॥ {पन्ना 211}

पद्अर्थ: रसना = जीभ से। ऐकु नामु = सिर्फ हरी नाम। ईहा = इस लोक में। घना = बहुत। आगै = पर लोक में। जीअ कै संगि = जिंद के साथ। जीअ कै काम = जिंद के काम।1। रहाउ।

कटीअै = काटे जा सकते हैं। अहं = अहम्, मैं मैं, अहंकार। प्रसादि = कृपा से। जोगु = (प्रभू से) मिलाप। राज जोगु = गृहस्ती भी और फकीरी भी।1।

जिनि = जिसने। जनि = जन ने। जिनि जनि = जिस मनुष्य ने।2।

बिस्राम = शांति, टिकाव। निधि = खजाना। बिस्राम निधि = शांति का खजाना। बहुरि = मुड़, दुबारा। कत ही = किसी और तरफ। धाइआ = भटकता, भागता फिरता।3।

कउ = को। जा कउ = जिसे। गुरि = गुरू ने। का = की। (शब्द ‘का’ और ‘कउ’ में फर्क याद रखें)।4।

अर्थ: (हे भाई!) जिहवा से हरी नाम जपते रहना चाहिए। (अगर हरी नाम जपते रहें तो) इस लोक में (इस जीवन में) बहुत सुख आनंद मिलता है और परलोक में (ये हरी नाम) जीवात्मा (जिंद) के काम आता है।1।

(हे भाई!हरी नाम की बरकति से) तेरा अहंकार का रोग काटा जा सकता है। (नाम जप जप के) गुरू की किरपा से तू गृहस्थ का सुख भी ले सकता है, और प्रभू से मिलाप भी प्राप्त कर सकता है।1।

(हे भाई!) जिस मनुष्य ने परमात्मा का नाम रस चख लिया, उसकी (माया की) तृष्णा उतर जाती है।2।

(हे भाई!जिस मनुष्य ने हरी-नाम-रस चख लिया) उसे शांति का खजाना परमात्मा मिल गया। वह मनुष्य दुबारा किसी भी ओर भटकता नहीं फिरता।3।

(हे नानक!) जिस मनुष्य को गुरू ने परमात्मा का नाम बख्श दिया, उसका हरेक किस्म का डर दूर हो गया।4।8।146।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh