श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गउड़ी पूरबी महला ५ ॥ मेरे मन गुरु गुरु गुरु सद करीऐ ॥ रतन जनमु सफलु गुरि कीआ दरसन कउ बलिहरीऐ ॥१॥ रहाउ ॥ जेते सास ग्रास मनु लेता तेते ही गुन गाईऐ ॥ जउ होइ दैआलु सतिगुरु अपुना ता इह मति बुधि पाईऐ ॥१॥ मेरे मन नामि लए जम बंध ते छूटहि सरब सुखा सुख पाईऐ ॥ सेवि सुआमी सतिगुरु दाता मन बंछत फल आईऐ ॥२॥ नामु इसटु मीत सुत करता मन संगि तुहारै चालै ॥ करि सेवा सतिगुर अपुने की गुर ते पाईऐ पालै ॥३॥ गुरि किरपालि क्रिपा प्रभि धारी बिनसे सरब अंदेसा ॥ नानक सुखु पाइआ हरि कीरतनि मिटिओ सगल कलेसा ॥४॥१५॥१५३॥ {पन्ना 213}

पद्अर्थ: मन = हे मन! सद = सदा। रतन जनमु = कीमती मानस जन्म। गुरि = गुरू ने। कउ = को। बलिहारीअै = बलिहार, कुर्बान।1। रहाउ।

जेते = जितने। सास = स्वास। ग्रास = ग्रास, कौर। मन = (भाव) जीव (शब्द ‘मन’ और ‘मनु’ में फर्क याद रहे)। जउ = जब।1।

नामि लऐ = अगर नाम लिया जाए। ते = से। छूटहि = तू बच जाएगा। सेवि = सेवा भक्ति करके। मन बंछत = मन इच्छित। आईअै = हाथ आ जाता है।2।

इसटु = प्यारा। सुत = पुत्र। करता नामु = करतार का नाम। मन = हे मन! पालै = पल्ले।3।

गुरि = गुरू ने। प्रभि = प्रभू ने। अंदेसा = फिक्र। कीरतनि = कीर्तन द्वारा।4।

अर्थ: हे मेरे मन!सदा सदा ही गुरू को याद रखना चाहिए। गुरू के दर्शनों से सदके जाना चाहिए। गुरू ने (ही जीवों के) कीमती मानस जनम को फल लगाया है।1। रहाउ।

(हे भाई!) जीव जितने भी श्वास लेता है, जितने भी ग्रास खाता है (हरेक स्वास व ग्रास के साथ-साथ) उतने ही परमात्मा के गुण गाता रहे। (पर) ये अक्ल ये मति तभी जीव को मिलती है जब प्यारा सतिगुरू दयावान हो।1।

हे मेरे मन! अगर तू परमात्मा का नाम सिमरता रहे तो यम के बंधनों से निजात पा लेगा (उन मायावी बंधनों से छूट जाएगा जो जम के वश में डालते हैं जो आत्मिक मौत ला देते हैं), और नाम सिमरने से सारे सुखों से श्रेष्ठ आत्मिक आनंद प्राप्त हो जाता है। (हे भाई!) मालिक प्रभू के नाम की दाति देने वाले सतिगुरू की सेवा करके मन-इच्छित फल हाथ आ जाते हैं।2।

हे मेरे मन! करतार का नाम ही तेरा असल प्यारा है, मित्र है, पुत्र है। हे मन! ये नाम ही हर समय तेरे साथ साथ रहता है। हे मन! अपने सतिगुरू की शरण पड़, करतार का नाम सतिगुरू से ही मिलता है।3।

हे नानक! जिस मनुष्य पर कृपालु सतिगुरू ने परमात्मा ने मेहर की उसके सारे चिंता-फिक्र समाप्त हो गए। जिस मनुष्य ने परमात्मा के कीर्तन में आनंद उठाया, उसके सारे दुख-कलेश दूर हो गऐ।4।15।153।

रागु गउड़ी महला ५    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

त्रिसना बिरले ही की बुझी हे ॥१॥ रहाउ ॥ कोटि जोरे लाख क्रोरे मनु न होरे ॥ परै परै ही कउ लुझी हे ॥१॥ सुंदर नारी अनिक परकारी पर ग्रिह बिकारी ॥ बुरा भला नही सुझी हे ॥२॥ अनिक बंधन माइआ भरमतु भरमाइआ गुण निधि नही गाइआ ॥ मन बिखै ही महि लुझी हे ॥३॥ जा कउ रे किरपा करै जीवत सोई मरै साधसंगि माइआ तरै ॥ नानक सो जनु दरि हरि सिझी हे ॥४॥१॥१५४॥ {पन्ना 213}

पद्अर्थ: त्रिसना = लालच, माया की प्यास।1। रहाउ।

कोटि = करोड़ों। जोरे = जोड़ता है। होरे = रोकता। परै कउ = ज्यादा धन वास्ते। लुझी हे = झगड़ता है।1।

पर ग्रिह = पराए घर, पराई स्त्री। बिकार = बुरे काम। बिकारी = बुरे कर्म करने वाला।2।

गुण निधि = गुणों का खजाना परमात्मा। मन = हे मन! बिखै महि = विषौ विकारों में।3।

रे = हे भाई! सोई = वही मनुष्य। साध संगि = गुरू की संगति में। दरि हरि = हरी के दर पर। सिझी है = कामयाब होता है।4।

अर्थ: (हे भाई!) किसी विरले मनुष्य के अंदर से तृष्णा (की आग) बुझती है।1। रहाउ।

(साधारण हालात ये बने हुए हैं कि मनुष्य) करोड़ों रुपए कमाता है, लाखों करोड़ों रुपए एकत्र करता है (फिर भी माया के लालच से अपने) मन को रोकता नहीं (बल्कि) और ज्यादा और ज्यादा धन इकट्ठा करने के लिए (तृष्णा की आग में) जलता रहता है।1।

मनुष्य अपनी सुंदर स्त्री के साथ अनेकों किस्मों के लाड-प्यार करता है, फिर भी पर-स्त्री संग का कु-कर्म करता है (काम वासना में अंधे हुए हुए को) ये नहीं सूझता कि बुरा कर्म कौन सा है और अच्छा कर्म कौन सा।2।

(हे भाई! माया के मोह के) अनेकों बंधनों में बंधा हुआ मनुष्य (माया की खातिर) भटकता फिरता है। माया इसे खुआर करती है, (माया के प्रभाव तले) मनुष्य गुणों के खजाने परमात्मा की सिफत सालाह नहीं करता। मनुष्यों के मन विषौ-विकारों की आग में जलते रहते हैं।3।

हे नानक! (कह–) हे भाई! जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर करता है, वही मनुष्य दुनिया के कार्य-व्यवहार करता हुआ भी माया के मोह से अछूता रहता है, और साध-संगति में रह के माया (के बवंडर से) पार लांघ जाता है। वह मनुष्य परमात्मा के दर पर कामयाब गिना जाता है।4।1।154।

गउड़ी महला ५ ॥ सभहू को रसु हरि हो ॥१॥ रहाउ ॥ काहू जोग काहू भोग काहू गिआन काहू धिआन ॥ काहू हो डंड धरि हो ॥१॥ काहू जाप काहू ताप काहू पूजा होम नेम ॥ काहू हो गउनु करि हो ॥२॥ काहू तीर काहू नीर काहू बेद बीचार ॥ नानका भगति प्रिअ हो ॥३॥२॥१५५॥ {पन्ना 213}

पद्अर्थ: को = का। सभहू को = सारे ही जीवों का। रसु = श्रेष्ठ आनंद। हो = हे भाई! हरि = हरी नाम।1। रहाउ।

काहू जोग = किसी को योग कमाने का रस है। भोग = दुनिया के पदार्थ भोगने। ध्यान = समाधि लगानी। डंड धारि = डण्डाधारी जोगी।1।

ताप = धूणियां तपानी। होम = हवन। नेम = नित्य का काम। गउन = (धरती पर) रमते साधू बन के फिरते रहना।2।

तीर = काँटा, नदी का किनारा। नीर = पानी, तीर्थ स्नान। प्रिय = प्यारा।3।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम ही सब जीवों का श्रेष्ठ आनंद है।1। रहाउ।

(पर) हे भाई! (प्रभू के नाम से विछुड़ के) किसी मनुष्य को जोग कमाने का शौक पड़ गया है, किसी को दुनियावी पदार्थ भोगने का चस्का है। किसी को ज्ञान-चर्चा अच्छी लगती है, किसी को समाधियां पसंद हैं और किसी को डण्डाधारी जोगी बनना अच्छा लगता है।1।

हे भाई! (परमात्मा का नाम छोड़ के) किसी को (देवी-देवताओं के वश करने के) जाप पसंद आ रहे हैं, किसी को धूणियां तपानी अच्छी लगती हैं, किसी को देव पूजा, किसी को हवन आदि के नित्य के नियम पसंद हैं और किसी को (रमता साधु बन के) धरती पर चलते जाना अच्छा लगता है।2।

हे भाई! किसी को किसी नदी के किनारे बैठना, किसी को तीर्थ-स्नान, और किसी को वेदों की विचार पसंद है। पर, हे नानक! परमात्मा भक्ति को प्यार करने वाला है।3।2।155।

गउड़ी महला ५ ॥ गुन कीरति निधि मोरी ॥१॥ रहाउ ॥ तूंही रस तूंही जस तूंही रूप तूही रंग ॥ आस ओट प्रभ तोरी ॥१॥ तूही मान तूंही धान तूही पति तूही प्रान ॥ गुरि तूटी लै जोरी ॥२॥ तूही ग्रिहि तूही बनि तूही गाउ तूही सुनि ॥ है नानक नेर नेरी ॥३॥३॥१५६॥ {पन्ना 213-214}

पद्अर्थ: गुन कीरति = गुणों की कीर्ति, गुणों की उपमा। निधि = खजाना। मोरी = मेरी, मेरे लिए।1। रहाउ।

रस = दुनिया के पदार्थों का स्वाद। जस = दुनिया के यश, वडिआईयां। रंग = जगत के खेल तमाशे। प्रभ = हे प्रभू! तोरी = तेरी।1।

मान = आदर। धान = धन। पति = इज्जत। प्रान = जिंद (का सहारा)। गुरि = गुरू ने। जोरी = जोड़ दी है।2।

ग्रिहि = घर में। बनि = जंगल में। गाउ = गाँव, आबादी। सुनि = सूने। नेर नेरी = नजदीक से नजदीक, बहुत नजदीक।3।

अर्थ: (हे प्रभू!) तेरे गुणों की उपमा करनी ही मेरे लिए (दुनिया के सारे पदार्थों का) खजाना है।1। रहाउ।

(हे प्रभू!) तू ही (मेरे वास्ते दुनिया के पदार्थों के) स्वाद है। तू ही (मेरे लिए दुनिया के) मान-सम्मान है, तू ही (मेरे लिए) जगत के सुंदर रूप और रंग तमाशे है। हे प्रभू! मुझे तेरी ओट है तेरी ही आस है।1।

(हे प्रभू!) तू ही मेरा आदर-मान है, तू ही मेरा धन है, तू ही मेरी इज्जत है, तू ही मेरी जिंद (का सहारा) है। मेरी टूटी हुई (सुरति) को गुरू ने (तेरे साथ) जोड़ दिया है।2।

हे प्रभू! तू ही (मुझे) घर में दिखाई दे रहा है, तू ही (मुझे) जंगल में (दिख रहा) है, तू ही (मुझे) आबादी में (दिखाई दे रहा) है, तू ही (मुझे) उजाड़ में (दिख रहा) है। हे नानक! प्रभू (हरेक जीव के) अत्यंत नजदीक बसता है।3।3।156।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh