श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गउड़ी महला ५ ॥ मातो हरि रंगि मातो ॥१॥ रहाउ ॥ ओुही पीओ ओुही खीओ गुरहि दीओ दानु कीओ ॥ उआहू सिउ मनु रातो ॥१॥ ओुही भाठी ओुही पोचा उही पिआरो उही रूचा ॥ मनि ओहो सुखु जातो ॥२॥ सहज केल अनद खेल रहे फेर भए मेल ॥ नानक गुर सबदि परातो ॥३॥४॥१५७॥ {पन्ना 214}

पद्अर्थ: मातो = मस्त। रंगि = प्रेम में। हरि रंगि = हरी के प्रेम के नशे में।1। रहाउ।

ओुही = वह नाम रस ही, वह प्रेम मद ही (अक्षर ‘अ’ के साथ दो मात्राएं हैं ‘ो’ और ‘ु’। असल शब्द ‘ओही’ है। यहां पढ़ना है ‘उही’)। पीओ = पीता है। खीओ = खीवा, मस्त। गुरि = गुरू ने। उआ ही सिउ = उसी नाम नशे से ही। रातो = रंगा हुआ है।1।

भाठी = शराब निकालने वाली भट्ठी। पोचा = अर्क निकालने वाली पाईप (नालिका) पर ठण्ड पहुँचाने के लिए किया गया लेपन। पिआरो = प्याला। रूचा = रुचि, उमंग। मनि = मन में।2।

सहज = आत्मिक अडोलता। केल = आनंद, चमत्कार। रहे = रह गए, समाप्त हो गए। फेर = चक्कर (जनम मरण के)। सबदि = शबद में। परातो = परोया गया।3

अर्थ: (हे जोगी! मैं भी) मतवाला हूँ (पर मैं तो) परमात्मा के प्रेम-शराब का मतवाला हो रहा हूँ।1। रहाउ।

(हे जोगी!) मैंने वह नाम-मद ही पीया है, वह नाम का नशा पी के ही मैं मस्त हो रहा हूँ। गुरू ने मुझे ये नाम मद दिया है, मुझे ये दाति दी है। अब उसी नाम-मद से ही मेरा मन रंगा हुआ है।1।

(हे जोगी!) परमात्मा का नाम ही (शराब निकालने वाली) भट्ठी है, वह नाम ही (शराब निकलने वाली नालिका पर ठण्डक पहुँचाने वाला) पोचा है, प्रभू का नाम ही (मेरे वास्ते) प्याला है, और नाम-मद ही मेरी लगन है। (हे जोगी!) मैं अपने मन में उसी (नाम-मदिरा का) आनंद ले रहा हूँ।2।

हे नानक! (कह– हे जोगी! जिस मनुष्य का मन) गुरू के शबद में परोया जाता है। वह आत्मिक अडोलता के चोज आनंद पाता है, उसका (प्रभू-चरणों से) मिलाप हो जाता है, और उसके जनम मरण के चक्कर खत्म हो जाते हैं।3।4।147।

रागु गौड़ी मालवा महला ५    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

हरि नामु लेहु मीता लेहु आगै बिखम पंथु भैआन ॥१॥ रहाउ ॥ सेवत सेवत सदा सेवि तेरै संगि बसतु है कालु ॥ करि सेवा तूं साध की हो काटीऐ जम जालु ॥१॥ होम जग तीरथ कीए बिचि हउमै बधे बिकार ॥ नरकु सुरगु दुइ भुंचना होइ बहुरि बहुरि अवतार ॥२॥ सिव पुरी ब्रहम इंद्र पुरी निहचलु को थाउ नाहि ॥ बिनु हरि सेवा सुखु नही हो साकत आवहि जाहि ॥३॥ जैसो गुरि उपदेसिआ मै तैसो कहिआ पुकारि ॥ नानकु कहै सुनि रे मना करि कीरतनु होइ उधारु ॥४॥१॥१५८॥ {पन्ना 214}

पद्अर्थ: मीता = हे मित्र! आगै = तेरे आगे, तेरे सामने, जिस रास्ते पर तू चल रहा है, जीवन सफर का रास्ता। बिखम = मुश्किल। पंथु = रास्ता। भैआन = भयानक, डरावना।1। रहाउ।

सेवत = सिमरते हुए। सेवि = सिमर। कालु = मौत। साध = गुरू। जम कालु = मोह का वह जाल जो जम के हवाले करता है जो अत्मिक मौत में फंसा देता है।1।

होम = हवन। बिचि = बीच में, इन कर्मों में। बधे = बढ़ गए। भुंचना = भोगने पड़े। बहुरि बहुरि = बारंबार। अवतार = जनम।3।

निहचलु = सदा कायम रहने वाला, अटॅल। को = कोई। हो = हे भाई! साकत = परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य, माया ग्रसित जीव।3।

गुरि = गुरू ने। तैसो = उस जैसा। पुकारि = ऊँचा बोल के। उधारु = बचाव।4।

अर्थ: हे मित्र! परमात्मा का नाम सिमर, नाम सिमर। जिस जीवन पंथ पर तू चल रहा है वह रास्ता (विकारों के हमलों के कारण) मुश्किल है और डरावना है।1।

(हे मित्र!) परमात्मा का नाम सिमरते-सिमरते सदा सिमरते रहो, मौत हर वक्त तेरे साथ बसती है। हे भाई! गुरू की सेवा कर (गुरू की शरण पड़। गुरू की शरण पड़ने से) वह (मोह-) जाल काटा जाता है जो आत्मिक मौत में फंसा देता है।1।

(हे मित्र! परमात्मा के नाम का सिमरन छोड़ के जिन मनुष्यों ने निरे) हवन किए, यज्ञ किए, तीर्थ स्नान किए, वह (इन किए कर्मों के) अहम् में फंसते चले गए उनके अंदर विकार बढ़ते गए। इस तरह नर्क और स्वर्ग दोनों भोगने पड़ते हैं, और मुड़ मुड़ जन्मों का चक्कर चलता रहता है।2।

(हे मित्र! हवन, यज्ञ, तीर्थ आदि कर्म करके लोग शिव पुरी, ब्रहम्पुरी, इन्द्रपुरी आदि की प्राप्ति की आशा बनाते हैं, पर) शिव पुरी, ब्रहम्पुरी, इन्द्रपुरी- इनमें से कोई भी जगह सदा टिके रहने वाली नहीं है। परमात्मा के सिमरन के बिना कहीं आत्मिक आनंद भी नहीं मिलता। हे भाई! परमात्मा से विछुड़े मनुष्य जनम मरन के चक्कर में पड़े रहते हैं (पैदा होते हैं मरते हैं, पैदा होते हैं मरते हैं)।3।

(हे भाई!) जिस प्रकार गुरू ने (मुझे) उपदेश दिया है, मैंने उसी तरह ऊँचा बोल के बता दिया है। नानक कहता है– हे (मेरे) मन! सुन। परमात्मा का कीर्तन करता रह (कीर्तन की बरकति से विकारों से जनम मरण के चक्कर से) बचाव हो जाता है।4।1।158।

नोट: ये एक शबद “गौड़ी मालवा” का है।

रागु गउड़ी माला१ महला ५    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

पाइओ बाल बुधि सुखु रे ॥ हरख सोग हानि मिरतु दूख सुख चिति समसरि गुर मिले ॥१॥ रहाउ ॥ जउ लउ हउ किछु सोचउ चितवउ तउ लउ दुखनु भरे ॥ जउ क्रिपालु गुरु पूरा भेटिआ तउ आनद सहजे ॥१॥ जेती सिआनप करम हउ कीए तेते बंध परे ॥ जउ साधू करु मसतकि धरिओ तब हम मुकत भए ॥२॥ जउ लउ मेरो मेरो करतो तउ लउ बिखु घेरे ॥ मनु तनु बुधि अरपी ठाकुर कउ तब हम सहजि सोए ॥३॥ जउ लउ पोट उठाई चलिअउ तउ लउ डान भरे ॥ पोट डारि गुरु पूरा मिलिआ तउ नानक निरभए ॥४॥१॥१५९॥ {पन्ना 214}

पद्अर्थ: बाल बुधि = बालकों वाली बुद्धि से। रे = हे भाई! हरख = हर्ष, खुशी। हानि = घाटा। मिरतु = मृत्यु, मौत। चिति = चित्त में। समसरि = बराबर, एक जैसे। गुर मिले = गुरू को मिल के।1। रहाउ।

जउ लउ = जब तक। सोचउ = मैं सोचता हूँ। चितवउ = चितवता हूँ। जउ = जब। भेटिआ = मिला। सहजे = आत्मिक अडोलता में।1।

जेती = जितनी। तेते = उतने। बंध = बंधन। साधू = गुरू (ने)। करु = हाथ। मसतकि = माथे पर। मुकत = (माया के बंधनों से) स्वतंत्र, मुक्त।2।

बिखु = जहर। बुधि = अकल। अरपी = भेटा कर दी, अर्पित कर दी। कउ = को।3।

पोट = (माया के मोह की) पोटली। डान = दण्ड, सजा। डारि = फेंक के। निरभऐ = निडर हो गया।4।

अर्थ: हे भाई! (जिस ने भी सुख आनंद पाया) बालकों वाली बुद्धि से सुख-आनंद पाया। गुरू को मिलने से (बाल-बुद्धि प्राप्त हो जाती है, और) खुशी, गमी, घाटा, मौत, दुख-सुख (ये सारे) चित्त में एक जैसे ही (प्रतीत होने लगते हैं)।1। रहाउ।

(हे भाई!) जब तक मैं (अपनी चतुराई की) कुछ (सोचें) सोचता रहा हूँ, चितवता रहा हूँ, तब तक मैं दुखों से भरा रहा। जब (अब मुझे) पूरा गुरू मिल पड़ा है, तब से मैं आत्मिक अडोलतमा में आनंद ले रहा हूँ।1।

(हे भाई!) मैं जितने भी चतुराई के काम करता रहा, उतने ही मुझे (माया के मोह के) बंधन पड़ते गए। जब (अब) गुरू ने (मेरे) माथे पर (अपना) राथ रखा है, तब मैं (माया के मोह के बंधनों से) आजाद हो गया हूँ।2।

(हे भाई!) जब तक मैं ये करता रहा कि (ये घर) मेरा है, (ये धन) मेरा है, (ये पुत्र) मेरे हैं, तब तक मुझे (माया के मोह के) जहर ने घेरे रखा (और उसने मेरे आत्मिक जीवन को मार दिया)। (अब गुरू की कृपा से) मैंने अपनी चतुराई, अपना मन, अपना शरीर (हरेक ज्ञानेंद्रियों को) परमात्मा के हवाले कर दिया है, तब से मैं आत्मिक अडोलता में मस्त रहता हूँ।3।

हे नानक! (कह– हे भाई!) जब तक मैं (माया के मोह की) पोटली (सिर पर) उठाए घूमता रहा, तब तक मैं (दुनिया के डरों-सहमों का) दण्ड भरता रहा। अब मुझे पूरा गुरू मिल गया है, (उसकी किरपा से माया के मोह की) पोटली फेंक के मैं निडर हो गया हूँ।4।1।159।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh