श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गउड़ी महला ५ मांझ ॥ दुख भंजनु तेरा नामु जी दुख भंजनु तेरा नामु ॥ आठ पहर आराधीऐ पूरन सतिगुर गिआनु ॥१॥ रहाउ ॥ जितु घटि वसै पारब्रहमु सोई सुहावा थाउ ॥ जम कंकरु नेड़ि न आवई रसना हरि गुण गाउ ॥१॥ सेवा सुरति न जाणीआ ना जापै आराधि ॥ ओट तेरी जगजीवना मेरे ठाकुर अगम अगाधि ॥२॥ भए क्रिपाल गुसाईआ नठे सोग संताप ॥ तती वाउ न लगई सतिगुरि रखे आपि ॥३॥ गुरु नाराइणु दयु गुरु गुरु सचा सिरजणहारु ॥ गुरि तुठै सभ किछु पाइआ जन नानक सद बलिहार ॥४॥२॥१७०॥ {पन्ना 218}

पद्अर्थ: दुख भंजनु = दुखों का नाश करने वाला। जी = हे जी! गिआनु = प्रभू से सांझ पाने वाला उपदेश।1। रहाउ।

जितु = जिस में। घटि = हृदय में। जितु घटि = जिस हृदय में (जिसु घटि = जिस मनुष्य के दिल में)। जम कंकरु = जम का दास, जम दूत। नेड़ि = नजदीक। रसना = जीभ (से)।1।

सुरति = सूझ। ना जापै आराधि = मुझे तेरी अराधना नहीं सूझती। जग जीवना = हे जगत की जिंदगी के (आसरे)! अगम = हे अपहुँच! अगाधि = हे अथाह!।2।

गुसाईआ = सृष्टि के मालिक। सतिगुरि = सत्गुरू ने।3।

दयु = प्यार करने वाला प्रभू। सचा = सदा स्थिर रहने वाला। गुरि तुठै = अगर गुरू मेहरबान हो जाए। गुरि = गुरू के द्वारा। तूठै = मेहरबान हो के।4।

अर्थ: हे प्रभू! तेरा नाम दुखों का नाश करने वाला है, तेरा नाम दुखों का नाश करने वाला है। (हे भाई!) ये नाम आठों पहर सिमरना चाहिए- पूरे सतिगुरू का यही उपदेश है जो परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाल सकता है।1। रहाउ।

(हे भाई!) जिस हृदय में परमात्मा आ बसता है, वही हृदय-स्थल सुंदर बन जाता है। जो मनुष्य अपनी जीभ से परमात्मा के गुण गाता है, जमदूत उसके पास नहीं फटकता (उसे मौत का डर नहीं छू सकता)।1।

हे जगत की जिंदगी के आसरे! हे मेरे पालनहार मालिक! हे अपहुँच प्रभू! हे अथाह प्रभू! मैंने (अब तक) तेरी सेवा-भक्ति की सूझ की कद्र ना जानी, मुझे तेरे नाम की आराधना करनी नहीं सूझी, (पर अब) मैंने तेरा आसरा लिया है।2।

(हे भाई!) सृष्टि के मालिक प्रभू जिस मनुष्य पर मेहरवान होते हैं, उसके सारे फिक्र और कलेश मिट जाते हैं। जिस मनुष्य की गुरू ने स्वयं रक्षा की, उसे (सोग-संताप आदि का) सेक नहीं लगता।3।

(हे भाई!) गुरू नारायण का रूप है, गुरू सब पर दया करने वाले प्रभू का स्वरूप है। गुरू उस करतार का रूप है जो सदा कायम रहने वाला है। अगर गुरू प्रसन्न हो जाए तो सब कुछ प्राप्त हो जाता है।

हे दास नानक! (कह–) मैं गुरू से सदके हूँ।4।2।170।

गउड़ी माझ महला ५ ॥ हरि राम राम राम रामा ॥ जपि पूरन होए कामा ॥१॥ रहाउ ॥ राम गोबिंद जपेदिआ होआ मुखु पवित्रु ॥ हरि जसु सुणीऐ जिस ते सोई भाई मित्रु ॥१॥ सभि पदारथ सभि फला सरब गुणा जिसु माहि ॥ किउ गोबिंदु मनहु विसारीऐ जिसु सिमरत दुख जाहि ॥२॥ जिसु लड़ि लगिऐ जीवीऐ भवजलु पईऐ पारि ॥ मिलि साधू संगि उधारु होइ मुख ऊजल दरबारि ॥३॥ जीवन रूप गोपाल जसु संत जना की रासि ॥ नानक उबरे नामु जपि दरि सचै साबासि ॥४॥३॥१७१॥ {पन्ना 218}

पद्अर्थ: जपि = जप के। कामा = सारे काम।1। रहाउ।

हरि जसु = हरी की सिफत सालाह। जिस ते = जिस तरफ से (शब्द ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘ते’ के कारण हट गई है)।1।

सभि = सारे। जिसु माहि = जिस (परमात्मा के वश) में। मनहु = मन से।2।

जिसु लड़ि = जिस (प्रभू) के पल्ले में। लगिअै = लगने से। जीवीअै = जी जाते हैं, आत्मिक जीवन मिल जाता है। भवजलु = संसार समुंद्र। साधू संगि = गुरू की संगति में। उधारु = (विकारों से) बचाव। दरबारि = (प्रभू के) दरबार में।3।

जसु = सिफत सालाह। रासि = सरमाया। दरि सचै = सदा सिथर प्रभू के दर पे।4।

अर्थ: (हे भाई!) सदा परमात्मा का नाम जप के सारे काम सफल हो जाते हैं।1। रहाउ।

(हे भाई!) राम राम गोबिंद गोबिंद जपते हुए मुंह पवित्र हो जाता है। (दुनिया में) वही मनुष्य (असल) भाई है, (असल) मित्र है, जिससे परमात्मा की सिफत सालाह सुनी जाए।1।

(हे भाई!) उस गोबिंद को अपने मन से कभी भुलाना नहीं चाहिए, जिसका सिमरन करने से सारे दुख दूर हो जाते हैं, और जिसके वश में (दुनिया के) सारे पदार्थ, सारे फल और सारे आत्मिक गुण हैं।2।

(हे भाई!उस गोबिंद को अपने मन से कभी भी भुलाना नहीं चाहिए) जिसका आसरा लेने से आत्मिक जीवन मिल जाता है, संसार समुंद्र से पार लांघ जाते हैं। गुरू की संगति में मिल के (जिसका सिमरन करने से विकारों से) बचाव हो जाता है और प्रभू की हजूरी में सुर्खरू हो जाते हैं।3।

हे नानक! गोपाल प्रभू की सिफत सालाह आत्मिक जीवन देने वाली है, प्रभू की सिफत सालाह संत जनों के वास्ते राशि (सरमाया) है। प्रभू का नाम जप के (संत जन विकारों से) बच निकलते हैं, और सदा स्थिर प्रभू के दर पर से शाबाश हासिल करते हैं।4।3।171।

गउड़ी माझ महला ५ ॥ मीठे हरि गुण गाउ जिंदू तूं मीठे हरि गुण गाउ ॥ सचे सेती रतिआ मिलिआ निथावे थाउ ॥१॥ रहाउ ॥ होरि साद सभि फिकिआ तनु मनु फिका होइ ॥ विणु परमेसर जो करे फिटु सु जीवणु सोइ ॥१॥ अंचलु गहि कै साध का तरणा इहु संसारु ॥ पारब्रहमु आराधीऐ उधरै सभ परवारु ॥२॥ साजनु बंधु सुमित्रु सो हरि नामु हिरदै देइ ॥ अउगण सभि मिटाइ कै परउपकारु करेइ ॥३॥ मालु खजाना थेहु घरु हरि के चरण निधान ॥ नानकु जाचकु दरि तेरै प्रभ तुधनो मंगै दानु ॥४॥४॥१७२॥ {पन्ना 218}

पद्अर्थ: जिंदू = हे जिंदे! (शब्द ‘जिंदु’ उकरांत है व स्त्री लिंग है। संबोधन में या संबंधक के साथ इसकी ‘ु’ की मात्रा दीर्घ हो जाती है और ‘ू’ लग जाती है। इसी तरह शब्द ‘खाकु’ से ‘खाकू’। जिदू कूं)। सेती = साथ।1। रहाउ।

होरि = (‘होर’ का बहुवचन)। साद = स्वाद। सभि = सारे। फिटु = फिटकार के लायक।1।

अंचलु = पल्ला। गहि कै = पकड़ के। साध = गुरू। उधरै = बच जाता है।2।

हिरदै = दिल में (बसाने के लिए)। देइ = देता है।3।

थेहु = गाँव, आबादी। निधान = खजाने। जाचकु = मंगता। दरि = दर पे। प्रभ = हे प्रभू! तुध नो = तुझे, तेरे नाम को।4।

अर्थ: हे मेरी जिंदे! तू हरी के प्यारे लगने वाले गुण गाती रहा कर। सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के साथ रंगे रहने से उस मनुष्य को भी (हर जगह) आदर मिल जाता है, जिसे पहले कोई जगह नहीं मिलती।1। रहाउ।

(हे मेरी जिंदे! हरी के मीठे गुणों के मुकाबले दुनिया के) सारे स्वाद फीके हैं। (इन स्वादों में पड़ने से) शरीर (हरेक ज्ञानेंद्रिय) फीकी (रूखी) हो जाती है, मन खुश्क हो जाता है। परमेश्वर का नाम जपने से वंचित होकर मनुष्य जो कुछ भी करता है, उससे जिंदगी धिक्कारयोग्य हो जाती है।1।

(हे मेरी जिंदे!) गुरू का पल्ला पकड़ के इस संसार (-समुंद्र) से पार लांघ सकते हैं। (हे जिंदे!) परमात्मा की आराधना करनी चाहिए। (जो मनुष्य आराधना करता है, उसका) सारा परिवार (संसार समुंद्र के विकारों की लहरों में से) बच निकलता है।2।

(हे मेरी जिंदे!) जो गुरमुख परमात्मा का नाम हृदय में (बसाने के लिए) देता है, वही असल सज्जन है, वही असल संबंधी है, वही असली मित्र है, (क्योंकि वह हमारे अंदर से) सारे अवगुण दूर करके (हमारी) भलाई करता है।3।

(हे मेरी जिंदे!) परमात्मा के चरण ही (सारे पदार्थों के) खजाने हैं (जीव के साथ निभने वाला) माल है, खजाना है (जीव के वास्ते असली) बसेरा व घर है।

हे प्रभू! (तेरे दर का) मंगता नानक तेरे दर पर तेरे नाम-दान के तौर पर मांगता है।4।4।172।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh