श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गउड़ी गुआरेरी महला १ ॥ ना मनु मरै न कारजु होइ ॥ मनु वसि दूता दुरमति दोइ ॥ मनु मानै गुर ते इकु होइ ॥१॥ निरगुण रामु गुणह वसि होइ ॥ आपु निवारि बीचारे सोइ ॥१॥ रहाउ ॥ मनु भूलो बहु चितै विकारु ॥ मनु भूलो सिरि आवै भारु ॥ मनु मानै हरि एकंकारु ॥२॥ मनु भूलो माइआ घरि जाइ ॥ कामि बिरूधउ रहै न ठाइ ॥ हरि भजु प्राणी रसन रसाइ ॥३॥ गैवर हैवर कंचन सुत नारी ॥ बहु चिंता पिड़ चालै हारी ॥ जूऐ खेलणु काची सारी ॥४॥ स्मपउ संची भए विकार ॥ हरख सोक उभे दरवारि ॥ सुखु सहजे जपि रिदै मुरारि ॥५॥ {पन्ना 222}

पद्अर्थ: कारजु = (परमात्मा के साथ एक-रूप होने का) जनम मनोरथ। वसि = वश में। दूता = कामादिक दूतों ने। दोइ = द्वैत, मेर-तेर। गुर ते = गुरू से। इकु = परमात्मा के साथ एक रूप।1।

निरगुण = माया के तीन गुणों से ऊपर। गुणह वसि = ऊूंचे आत्मिक गुणों के वश में। आपु = स्वै भाव। सोइ = वही मनुष्य।1। रहाउ।

चितै = चितवै। सिरि = सिर पर। भारु = विकारों का भार।2।

घरि = घर में, घेरे में। कामि = काम वासना में। बिरूधउ = उलझा हुआ, फंसा हुआ। ठाइ = स्थान पर, टिका हुआ, अडोल। प्राणी = हे प्राणी! रसन = जीभ को। रसाइ = रसा के।3।

गैवर = गज वर, बढ़िया हाथी। हैवर = हय वर, बढ़िया घोड़े। कंचन = सोना। सुत = पुत्र। पिढ़ = कुश्ती का अखाड़ा। हारी = हार के। जूअै खेलणु = जूए की खेल। सारी = नरद।4।

संपउ = धन। संची = एकत्र की, जोड़ी। सोक = चिंता। उभे = खड़े हुए। दरवारि = दरवाजे पर। सहजे = सहज में, अडोल अवस्था में। जपि = जप के। मुरारि = परमात्मा।5।

अर्थ: परमात्मा माया के तीन गुणों से परे है, और, ऊँचे आत्मिक गुणों के वश में है (भाव, मनुष्य ऊँचे आत्मिक गुणों को अपने अंदर बसाता है, परमात्मा उससे प्यार करता है)। जो मनुष्य स्वैभाव दूर कर लेता है वह शुभ गुणों को अपने मन में बसाता है।1। रहाउ।

जब तक मनुष्य का मन कामादिक विकारों के वश में है, घटिया मति के अधीन है, मेरे-तेर के काबू में है, तब तक मन (में से तृष्णा) मरती नहीं और तब तक (परमात्मा के साथ एक-रूप होने का) जनम मनोरथ भी सम्पूर्ण नहीं होता। जब गुरू से (शिक्षा ले के मनुष्य का) मन (सिफत सालाह में) रम जाता है, तब ये परमात्मा के साथ एक-रूप हो जाता है।1।

(माया के वशीभूत हो के जब तक) मन गलत राह पर रहता है, तब तक ये विकार ही विकार चितवता रहता है। (और मनुष्य के) सिर पर विकारों का बोझ इकट्ठा होता जाता है। पर जब (गुरू से शिक्षा ले के) मन (प्रभू की सिफत सालाह में) परचता है (पसीजता है) तब ये परमात्मा के साथ एक-सुर हो जाता है।2।

(माया के प्रभाव में आ के) गलत राह पर पड़ा मन माया के घर (बारंबार) जाता है, काम-वासना में फंसा हुआ मन ठिकाने पे नहीं रहता। (इस माया के प्रभाव से बचने के लिए) हे प्राणी! अपनी जीभ को (अमृत रस में) रसा के परमात्मा का भजन कर।3।

बढ़िया हाथी, बढ़िया घोड़े, सोना, पुत्र, स्त्री- (इनका मोह) जूए की खेल है। (जैसे चौपड़ की) कच्ची नर्दें (बारंबार मार खाती हैं। वैसे ही इस जूए की खेल खेलने वाले का मन कमजोर रह के विकारों की चोटें खाता रहता है)। (पुत्र, स्त्री आदि के मोह के कारण) मन बहुत चिंतातुर रहता है, और, आखिर इस जगत अखाड़े से मनुष्य बाजी हार के जाता है।4।

जैसे जैसे मनुष्य धन जोड़ता है मन में विकार पैदा होते जाते हैं, (कभी खुशी कभी गम) ये खुशी व सहम सदा मनुष्य के दरवाजे पर खड़े रहते हैं। पर हृदय में परमात्मा का सिमरन करने से मन अडोल अवस्था में टिक जाता है और आत्मिक आनंद पाता है।5।

नदरि करे ता मेलि मिलाए ॥ गुण संग्रहि अउगण सबदि जलाए ॥ गुरमुखि नामु पदारथु पाए ॥६॥ बिनु नावै सभ दूख निवासु ॥ मनमुख मूड़ माइआ चित वासु ॥ गुरमुखि गिआनु धुरि करमि लिखिआसु ॥७॥ मनु चंचलु धावतु फुनि धावै ॥ साचे सूचे मैलु न भावै ॥ नानक गुरमुखि हरि गुण गावै ॥८॥३॥ {पन्ना 222}

पद्अर्थ: संग्रहि = एकत्र करके। सबदि = गुरू शबद के द्वारा। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर।6।

दूख निवास = दुखों का निवास (मन में)। मनमुख = मन का मुरीद। चित वासु = चिक्त का वास, चिक्त का ठिकाना। करमि = मेहर से।7।

फुनि = बारंबार। धावै = (माया के पीछे) दौड़ता है।8।

अर्थ: (पर जीव के भी क्या वश?) जब परमात्मा मेहर की निगाह करता है, तब गुरू इसे अपने शबद में जोड़ के प्रभू चरणों में मिला देता है। (गुरू के सन्मुख हो के) जीव आत्मिक गुण (अपने अंदर) इकट्ठे करके गुरू शबद के द्वारा (अपने अंदर से) अवगुणों को जला देता है। गुरू के सन्मुख हो के मनुष्य नाम-धन ढूँढ लेता है।6।

प्रभू के नाम में जुड़े बिना मनुष्य के मन में सारे दुख-कलेशों का डेरा आ लगता है, मूर्ख मनुष्य के चिक्त का बसेरा माया (के मोह) में रहता है। धुर से ही परमात्मा की मेहर से (जिस माथे पर किए कर्मों के संस्कारों के) लेख उघाड़ता है, वह मनुष्य गुरू के सन्मुख हो के परमात्मा के साथ गहरी सांझ डालता है।7।

(आत्मिक गुणों से वंचित) मन चंचल रहता है (माया के पीछे) दौड़ता है बार बार भागता है। सदा स्थिर रहने वाले और (विकारों की झूठ, अपवित्रता से) स्वच्छ परमात्मा को (मनुष्य के मन की ये) मैल अच्छी नहीं लगती (इस वास्ते ये परमात्मा से विछुड़ा रहता है)।

हे नानक! जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है, वह परमात्मा के गुण गाता है (और उसका जनम मनोरथ सफल हो जाता है)।8।3।

गउड़ी गुआरेरी महला १ ॥ हउमै करतिआ नह सुखु होइ ॥ मनमति झूठी सचा सोइ ॥ सगल बिगूते भावै दोइ ॥ सो कमावै धुरि लिखिआ होइ ॥१॥ ऐसा जगु देखिआ जूआरी ॥ सभि सुख मागै नामु बिसारी ॥१॥ रहाउ ॥ अदिसटु दिसै ता कहिआ जाइ ॥ बिनु देखे कहणा बिरथा जाइ ॥ गुरमुखि दीसै सहजि सुभाइ ॥ सेवा सुरति एक लिव लाइ ॥२॥ सुखु मांगत दुखु आगल होइ ॥ सगल विकारी हारु परोइ ॥ एक बिना झूठे मुकति न होइ ॥ करि करि करता देखै सोइ ॥३॥ त्रिसना अगनि सबदि बुझाए ॥ दूजा भरमु सहजि सुभाए ॥ गुरमती नामु रिदै वसाए ॥ साची बाणी हरि गुण गाए ॥४॥ {पन्ना 222}

पद्अर्थ: हउमै = हउ हउ, मैं मैं। हउमै करतिआ = हर वक्त अपने ही बड़प्पन और सुख की बातें करते हुए। मन मति = मन की समझदारी। झूठी = नाशवंत पदार्थों में। सोइ = वह प्रभू। सचा = सदा स्थिर रहने वाला। बिगूते = दुखी हुए। दोइ = द्वैत, तेर-मेर।1।

सभि = सारे। बिसारी = बिसार के, भुला के।1। रहाउ।

अदिसटु = इन आँखों से ना दिखने वाला। ता = तब। कहिआ जाइ = सिमरा जा सकता है, उसका जिक्र किया जा सकता है, जिक्र करने को जी करता है। बिरथा = व्यर्थ। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ने से। दीसै = दिखाई दे जाता है। सहजि = सहज अवस्था में, अडोल अवस्था में। सुभाइ = प्रेम में।2।

आगल = ज्यादा। विकारी हारु = विकारों का हार। झूठे = नाशवंत पदार्थों के मोह में फंसे हुए को। मुकति = दुखों और विकारों से खलासी।3।

सबदि = गुरू के शबद द्वारा। दूजा भरमु = प्रभू के बिना और और तरफ की भटकना। रिदै = हृदय में। साची बाणी = सिफत सालाह की बाणी के द्वारा।4।

अर्थ: मैंने देखा है कि जगत जूए की खेल खेलता है, ऐसी (खेल खेलता है कि) सुख तो सारे ही मांगता है, पर (जिस नाम से सुख मिलते हैं उस) नाम को विसार रहा है।1। रहाउ।

(अपने मन की अगवाई में रह के) हर समय अपने ही बड़प्पन व सुख की बातें करने से सुख नहीं मिल सकता। मन की समझदारी नाशवंत पदार्थों में (जोड़ती है), वह परमात्मा सदा स्थिर रहने वाला है (और सुख का श्रोत है। ‘मन मति’ और ‘परमात्मा’ का स्वाभाव अलग अलग है, दोनों का मेल नहीं। सुख कहाँ से आए?) जिन को (नाम विसार के) मेर-तेर अच्छी लगती है, वह सारे खुआर ही होते हैं। (पर जीवों के भी क्या वश?) (किए कर्मों के अनुसार जीव के माथे पर) जो धुर से लेख लिखे होते हैं, उसी के अनुसार यहाँ कमाई करता है (नाम-सिमरन छोड़ के नाशवंत पदार्थों में सुख की तलाश के व्यर्थ प्रयत्न करता है)।1।

परमात्मा (इन आँखों से) दिखाई नहीं देता। अगर आँखों से दिखाई दे, तो ही (उससे मिलने की कसक पैदा हो, और) उसका नाम लेने को चिक्त करे। आँखों को दिखे बिना (उसके दीदार की खींच नहीं बनती और चाह से) उसका नाम नहीं लिया जा सकता (खींच बनी रहती है दिखाई देते पदार्थों से)। गुरू के सन्मुख रहने से मनुष्य का मन (दिखते पदार्थों से हट के) अडोलता में टिकता है, प्रभू के प्रेम में लीन होता है और इस तरह अंतरात्मे वह प्रभू दिख पड़ता है। गुरू के सन्मुख मनुष्य की सूरति गुरू की बताई सेवा में जुड़ती है, उसकी लिव एक परमात्मा में लगती है।2।

(प्रभू का नाम विसार के) सुख मांगने से (बल्कि) बहुत दुख बढ़ता है (क्योंकि) मनुष्य सारे विकारों का हार परो के (अपने गले में डाल लेता है)। नाशवंत पदार्थों के मोह में फंसे हुए को परमात्मा के नाम के बिना (दुखों व विकारों से) खलासी हासिल नहीं होती। (प्रभू की ऐसी ही रजा है) वह करतार स्वयं ही सब कुछ करके खुद ही इस खेल को देख रहा है।3।

जो मनुष्य गुरू के शबद में जुड़ के (अपने अंदर से) तृष्णा की आग बुझाता है, अडोल अवस्था में टिक के प्रभू के प्रेम में जुड़ के उसकी मायावी पदार्थों की ओर की भटकना खत्म हो जाती है। गुरू की शिक्षा पर चल कर वह परमात्मा का नाम अपने हृदय में बसाता है। प्रभू की सिफत सालाह की बाणी के द्वारा वह परमात्मा के गुण गाता है (और उसके अंदर आत्मिक आनंद पैदा होता है)।4।

तन महि साचो गुरमुखि भाउ ॥ नाम बिना नाही निज ठाउ ॥ प्रेम पराइण प्रीतम राउ ॥ नदरि करे ता बूझै नाउ ॥५॥ माइआ मोहु सरब जंजाला ॥ मनमुख कुचील कुछित बिकराला ॥ सतिगुरु सेवे चूकै जंजाला ॥ अम्रित नामु सदा सुखु नाला ॥६॥ गुरमुखि बूझै एक लिव लाए ॥ निज घरि वासै साचि समाए ॥ जमणु मरणा ठाकि रहाए ॥ पूरे गुर ते इह मति पाए ॥७॥ कथनी कथउ न आवै ओरु ॥ गुरु पुछि देखिआ नाही दरु होरु ॥ दुखु सुखु भाणै तिसै रजाइ ॥ नानकु नीचु कहै लिव लाइ ॥८॥४॥ {पन्ना 222-223}

पद्अर्थ: साचो = सदा स्थिर प्रभू। भाउ = प्रेम। निज ठाउ = अपना असल ठिकाना, शांति, अडोलता। पराइण = आसरे। प्रेम पराइण = प्रेम के वश। प्रीतम राउ = परमात्मा।5।

कुचील = गंदा। कुछित = कुत्सित, बदनाम, निंदित। बिकराला = डरावना। नाला = अपने साथ (ले जाता है)।6।

निज घरि = अपने असल घर में, अडोलता में। ठाकि रहाए = रोक लेता है। गुर ते = गुरू से।7।

ओरु = ओड़क, आखिर तक, गुणों का अंत। कथनी कथउ = मैं गुणों का कथन करता हूँ, मैं गुण गाता हूँ। पुछि = पूछ के। तिसै रजाइ = उस परमात्मा के हुकम अनुसार। नीचु = अंजान मति।8।

अर्थ: (वैसे तो) हरेक शरीर में सदा स्थिर प्रभू बसता है, पर गुरू की शरण पड़ने से ही उसके साथ प्रेम जागता है (और मनुष्य नाम सिमरता है) नाम के बिना मन एक टिकाने पर आ नहीं सकता। प्रीतम प्रभू भी प्रेम के अधीन है (जो उसके साथ प्रेम करता है) प्रभू उस के ऊपर मेहर की नजर करता है और वह उसके नाम की कद्र समझता है।5।

माया के मोह सारे (मायावी) बंधन पैदा करते हैं। (इस करके) मन के मुरीद मनुष्य का जीवन गंदा, बुरा व डरावना बन जाता है। जो मनुष्य गुरू का बताया हुआ राह पकड़ता है, उसके माया वाले बंधन टूट जाते हैं। वह आत्मिक जीवन देने वाला नाम जपता है, और सदा ही आत्मिक आनंद अपने अंदर पाता है।6।

गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य (नाम की कद्र) समझता है, एक परमात्मा में सुरति जोड़ता है, अपने स्वै-स्वरूप में टिका रहता है, सदा स्थिर प्रभू (के चरणों) में लीन रहता है। वह अपना जनम मरन का चक्र रोक लेता है। पर ये बुद्धि वह पूरे गुरू से ही प्राप्त करता है।7।

जिस परमात्मा के गुणों का अंत नहीं पड़ सकता, मैं उसके गुण गाता हूँ। मैंने अपने गुरू को पूछ के देख लिया है कि (उस प्रभू के बिना सुख का) और कोई ठिकाना नहीं है। जीव के दुख और सुख उस प्रभू की रजा में ही उस प्रभू की मर्जी से ही मिलते हैं। अंजान मति नानक (प्रभू चरणों में) सुरति जोड़ के प्रभू की सिफत सालाह ही करता है (इसी में ही सुख है)।8।4।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh