श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 223 गउड़ी महला १ ॥ दूजी माइआ जगत चित वासु ॥ काम क्रोध अहंकार बिनासु ॥१॥ दूजा कउणु कहा नही कोई ॥ सभ महि एकु निरंजनु सोई ॥१॥ रहाउ ॥ दूजी दुरमति आखै दोइ ॥ आवै जाइ मरि दूजा होइ ॥२॥ धरणि गगन नह देखउ दोइ ॥ नारी पुरख सबाई लोइ ॥३॥ रवि ससि देखउ दीपक उजिआला ॥ सरब निरंतरि प्रीतमु बाला ॥४॥ करि किरपा मेरा चितु लाइआ ॥ सतिगुरि मो कउ एकु बुझाइआ ॥५॥ एकु निरंजनु गुरमुखि जाता ॥ दूजा मारि सबदि पछाता ॥६॥ एको हुकमु वरतै सभ लोई ॥ एकसु ते सभ ओपति होई ॥७॥ राह दोवै खसमु एको जाणु ॥ गुर कै सबदि हुकमु पछाणु ॥८॥ सगल रूप वरन मन माही ॥ कहु नानक एको सालाही ॥९॥५॥ {पन्ना 223} पद्अर्थ: दूजी = दूसरा-पन (द्वैत) पैदा करने वाली, मेर तेर पैदा करने वाली, परमात्मा से दूरी बनाने वाली। जगत चिक्त = जगत के जीवों के मनों में। बिनासु = आत्मिक जीवन की तबाही।1। दूजा = परमात्मा के बिना कोई और। कहा = मैं कहूँ। निरंजनु = माया के प्रभाव से निर्लिप।1। रहाउ। दोइ = द्वैत, प्रभू के बिना और किसी हस्ती का अस्तित्व। मरि = आत्मिक मौत मर के। दूजा = प्रभू से अलग।2। धणि = धरती। गगनि = आकाश में। देखउ = मैं देखता हूँ। दोइ = कोई दूसरी हस्ती। लोइ = सृष्टि।3। रवि = सूर्य। ससि = चंद्रमा। उजिआला = प्रकाश। सरब निरंतरि = सब के अंदर एक रस। बाला = जवान।4। करि = कर के। सतिगुरि = सतिगुरू ने। मो कउ = मुझे।5। गुरमुखि = गुरू की ओर मुंह करके। सबदि = (गुरू) के शबद के द्वारा।6। लोई = सृष्टि (में)। ओपति = उत्पक्ति।7। राह दोवै = दो रास्ते (गुरमुखता एवं दुरमति)।8। सराही = सलाहूँ, मैं सराहना करता हूँ।9। अर्थ: सारे जीवों में एक वही परमात्मा बस रहा है, जिस पर माया का प्रभाव नहीं पड़ सकता। कहीं भी उससे बिना कोई और नहीं है। उस प्रभू से अलग (अलग अस्तित्व वाला) मैं कोई भी बता नहीं सकता।1। रहाउ। परमात्मा से दूरी डालने वाली (परमात्मा की) माया (ही है जिस ने) जगत के जीवों के मनों में अपना ठिकाना बनाया हुआ है। (इस माया से पैदा हुए) काम-क्रोध-अहंकार (आदि विकार जीवों के आत्मिक जीवन का) नाश कर देते हैं।1। परमात्मा से दूरी पैदा करने वाली (माया के कारण ही मनुष्य की) बुरी मति (मनुष्य को) बताती रहती है कि माया की हस्ती प्रभू से अलग है। (इस दुरमति के असर तहत) जीव पैदा होता है मरता है, पैदा होता है मरता है। (इस तरह) आत्मिक मौत मर के परमात्मा से दूर हो जाता है।2। पर मैं तो धरती आकाश में, स्त्री पुरुष में, सारी ही सृष्टि में (कहीं भी परमात्मा के बिना) किसी और हस्ती को नहीं देखता।3। मैं सूर्य चंद्रमा (इन सृष्टि के) दीपकों का प्रकाश देखता हूँ, सभी के अंदर मुझे एक-रस सदा यौवन प्रीतम प्रभू ही दिखाई दे रहा है।4। सतिगुरू ने मेहर करके मेरा चिक्त प्रभू चरणों में जोड़ दिया, और मुझे ये समझ दे दी कि हर जगह एक परमात्मा ही बस रहा है।5। जो मनुष्य गुरू के सन्मुख होता है वह गुरू शबद की बरकति से (अपने अंदर से) परमात्मा से अलगाव मिटा के परमात्मा (के अस्तित्व) को पहचान लेता है, और ये जान लेता है कि एक निरंजन ही हर जगह मौजूद है।6। सारी सृष्टि में सिर्फ परमात्मा का ही हुकम चल रहा है, एक परमात्मा से ही सारी उत्पक्ति हुई है।7। (एक प्रभू से ही सारी उत्पक्ति होने पर भी माया के प्रभाव तले जगत में) दोनों रास्ते चल पड़ते हैं (-गुरमुखता व दुरमति)। (पर, हे भाई! सब में) एक परमात्मा को ही (रचा हुआ) जान। गुरू के शबद में जुड़ के (सारे जगत में परमात्मा का ही) हुकम चलता पहिचान।8। हे नानक! कह– मैं उस एक परमात्मा की ही सिफत सालाह करता हूँ, जो सारे रूपों में सारे वर्णों में और सार (जीवों के) मनों में व्यापक है।9।5। गउड़ी महला १ ॥ अधिआतम करम करे ता साचा ॥ मुकति भेदु किआ जाणै काचा ॥१॥ ऐसा जोगी जुगति बीचारै ॥ पंच मारि साचु उरि धारै ॥१॥ रहाउ ॥ जिस कै अंतरि साचु वसावै ॥ जोग जुगति की कीमति पावै ॥२॥ रवि ससि एको ग्रिह उदिआनै ॥ करणी कीरति करम समानै ॥३॥ एक सबद इक भिखिआ मागै ॥ गिआनु धिआनु जुगति सचु जागै ॥४॥ भै रचि रहै न बाहरि जाइ ॥ कीमति कउण रहै लिव लाइ ॥५॥ आपे मेले भरमु चुकाए ॥ गुर परसादि परम पदु पाए ॥६॥ गुर की सेवा सबदु वीचारु ॥ हउमै मारे करणी सारु ॥७॥ जप तप संजम पाठ पुराणु ॥ कहु नानक अपर्मपर मानु ॥८॥६॥ {पन्ना 223} पद्अर्थ: अधिआतम = आत्मा संबंधी, आत्मिक जीवन संबन्धी। अधिआतम करम = आत्मिक जीवन को ऊँचा करने वाले कर्म। साचा = सदा स्थिर, अडोल, अहिल। मुकति = विकारों से खलासी। भेदु = राज की बात। काचा = कच्चे मन वाला, जिसका मन विकारों के मुकाबले में कमजोर है।1। ऐसा = ऐसा आदमी। जुगति = सही जीवन का तरीका। पंच = कामादिक पाँचों विकार। उरि = हृदय में।1। रहाउ। जोग = प्रभू मिलाप। कीमति = कद्र।2। रवि = सूर्य, तपश। ससि = चंद्रमा, ठण्ड। उदिआनै = जंगल में। समानै = समान, साधारण। करम समानै = (उसके) साधारन कर्म (हैं), सोए हुए ही इस ओर लगा रहता है।3। भिखिआ = खैर, दान, भिक्षा।4। भै = प्रभू का डर अदब।5। भरमु = भटकना। चुकाए = चुका देता है, समाप्त कर देता है। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा।6। सारु = श्रेष्ठ।7। अपरंपर = वह प्रभू जो परे से परे है, जिसके गुणों का अंत नहीं। संजम = इन्द्रियों को विकारों की तरफ से रोकने का उद्यम। मानु = मानना, मन को समझाना।8। अर्थ: ऐसा (आदमी) जोगी (कहलाने का हकदार हो सकता है जो जीवन की सही) जुगति समझता है (वह जीवन-जुगति ये है कि कामादिक) पाँचों (विकारों) को मार के सदा कायम रहने वाले परमात्मा (की याद) को अपने हृदय में टिकाता है।1। रहाउ। जब मनुष्य आत्मिक जीवन ऊँचे करने वाले कर्म करता है, तब ही सच्चा (जोगी) है पर जिसका मन विकारों के मुकाबले में कमजोर है, वह विकारों से खलासी हासिल करने के भेद को क्या जान सकता है?1। जिस मनुष्य के अंदर परमात्मा अपना सदा स्थिर नाम बसाता है, वह मनुष्य प्रभू मिलाप की जुगति की कद्र समझता है।2। तपश, ठण्ड (भाव, किसी की ओर से बेरुखी भरा सलूक और किसी की तरफ से मधुर रवईया) घर, जंगल (भाव, घर में रहते हुए निर्मोही सलूक) उसे एक समान दिखते हैं। परमात्मा की सिफत सालाह रूपी करणी उसका समान (साधारन) कर्म हें (भाव, सोए हुए ही वह अर्थात सहज ही वह सिफत सालाह में जुड़ा रहता है)।3। (दर दर से रोटियां माँगने की जगह वह जोगी गुरू के दर से) परमातमा की सिफत सालाह की बाणी की खैर (भिक्षा) माँगता है। उसके अंदर प्रभू के साथ गहरी सांझ पड़ती है, उसकी ऊँची सुरति जाग पड़ती है, उसके अंदर सिमरन रूपी जुगति जाग जाती है।4। वह जोगी सदा प्रभू के डर-अदब में लीन रहता है, (इस डर से) बाहर नहीं जाता। ऐसे जोगी का कौन मुल्य डाल सकता है? वह सदा प्रभू चरणों में सुरति जोड़े रखता है।5। (ये जो साधना के हठ कुछ नहीं सवार सकते) प्रभू स्वयं ही अपने साथ मिलाता है और जीव की भटकना को खत्म करता है। गुरू की कृपा से मनुष्य सबसे ऊूंचा आत्मिक दर्जा हासिल करता है।6। (असल जोगी) गुरू की बताई हुई सेवा करता है, गुरू के शबद को अपनी विचार बनाता है। अहंकार को (अपने अंदर से) मारता है - यही है उस जोगी की श्रेष्ठ करणी।7। हे नानक! कह– बेअंत प्रभू की सिफत सालाह में अपने आप को जोड़ लेना - ये हैं जोगी के जप, तप, संजम और पाठ। यही है जोगी का पुराण आदिक कोई धर्म-पुस्तक।8।6। गउड़ी महला १ ॥ खिमा गही ब्रतु सील संतोखं ॥ रोगु न बिआपै ना जम दोखं ॥ मुकत भए प्रभ रूप न रेखं ॥१॥ जोगी कउ कैसा डरु होइ ॥ रूखि बिरखि ग्रिहि बाहरि सोइ ॥१॥ रहाउ ॥ निरभउ जोगी निरंजनु धिआवै ॥ अनदिनु जागै सचि लिव लावै ॥ सो जोगी मेरै मनि भावै ॥२॥ कालु जालु ब्रहम अगनी जारे ॥ जरा मरण गतु गरबु निवारे ॥ आपि तरै पितरी निसतारे ॥३॥ सतिगुरु सेवे सो जोगी होइ ॥ भै रचि रहै सु निरभउ होइ ॥ जैसा सेवै तैसो होइ ॥४॥ {पन्ना 223} पद्अर्थ: खिमा = दूसरों की ज्यादतियों को बर्दाश्त करने का स्वभाव। गही = पकड़ी, ग्रहण की। ब्रत = नित्य के नियम। सील = शील, मीठा स्वभाव। न बिआपै = जोर नहीं डाल सकता। जम दोखं = जम का डर। मुकत = विकारों से आजाद।1। रुखि = पेड़ के नीचे। बिरखि = वृक्ष के नीचे। ग्रिहि = घर में। बाहरि = घर से बाहर जंगल में। सोइ = वह प्रभू ही।1। रहाउ। अनदिनु = हर रोज। जागै = विकारों के हमलों से सुचेत रहता है। सचि = सदा स्थिर प्रभू मे।2। कालु = मौत का डर। जारे = जला देता है। ब्रहम अगनि = अंदर प्रकट हुए परमात्मा के तेज-रूप आग से। जरा = बुढ़ापा। मरण = मौत। गतु = दूर हो जाता है। गरबु = अहंकार। पितरी = पित्रों को, बड़े बडेरों को।3। भै = (परमात्मा के) डर अदब में। सेवे = सिमरता है, सेवा करता है।4। अर्थ: जिस मनुष्य को पेड़ पौधों में, घर में, बाहर जंगल (आदि) में हर जगह वह परमात्मा ही नजर आता है (वही है असल जोगी, और उस) जोगी को (माया के शूरवीरों कामादिकों के हमलों से) किसी तरह का कोई डर नहीं रहता (जिससे घबरा के वह गृहस्थ त्याग के भाग जाए)।1। रहाउ। वह जोगी (गृहस्थ में रह के ही) दूसरों की ज्यादती बर्दाश्त करने का स्वाभाव बनाता है। मीठा स्वभाव एवं संतोष उसके नित्य के कर्म हैं। (ऐसे असल जोगी पर कामादिक कोई) रोग जोर नहीं डाल सकता। उसे मौत का भी डर नहीं होता। ऐसे जोगी विकारों से आजाद हो जाते हैं, क्योंकि वह रूप-रेख रहित परमात्मा का रूप हो जाते हैं।1। जो परमात्मा माया के प्रभाव में नहीं आता, उसे जो मनुष्य सिमरता है वह है (असल) जोगी। वह भी (माया के हमलों से) नहीं डरता (उसे क्या जरूरत पड़ी है गृहस्थ से भागने की?)। वह तो हर समय (माया के हमलों से) सुचेत रहता है, क्योंकि वह सदा स्थिर प्रभू में सुरति जोड़े रखता है। मेरे मन में वह जोगी प्यारा लगता है (वही है असल जोगी)।2। (वही जोगी अपने अंदर प्रकट हुए) ब्रहम् (के तेज) की अग्नि से मौत (मौत के डर को) जाल को (जिसके सहम ने सारे जीवों को फंसाया हुया है) जला देता है। उस जोगी को बुढ़ापे का डर मौत का सहम दूर दूर हो जाता है। वह जोगी (अपने अंदर से) अहंकार दूर कर लेता है। वह स्वयं भी (संसार समुंद्र से) पार लांघ जाता है, अपने पित्रों को भी पार लंघा लेता है।3। जो मनुष्य गुरू के बताए हुए राह पर चलता है, वह (असल) जोगी बनता है, वह परमात्मा के डर अदब में (जीवन-राह पर) चलता है, वह (कामादिक विकारों के हमलों से) निडर रहता है (क्योंकि ये एक असूल की बात है कि) मनुष्य जैसे की सेवा (-भक्ति) करता है वैसा ही स्वयं बन जाता है (निरभउ निरंकार को सिमर के निर्भय ही बनना हुआ)।4। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |