श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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नर निहकेवल निरभउ नाउ ॥ अनाथह नाथ करे बलि जाउ ॥ पुनरपि जनमु नाही गुण गाउ ॥५॥ अंतरि बाहरि एको जाणै ॥ गुर कै सबदे आपु पछाणै ॥ साचै सबदि दरि नीसाणै ॥६॥ सबदि मरै तिसु निज घरि वासा ॥ आवै न जावै चूकै आसा ॥ गुर कै सबदि कमलु परगासा ॥७॥ जो दीसै सो आस निरासा ॥ काम क्रोध बिखु भूख पिआसा ॥ नानक बिरले मिलहि उदासा ॥८॥७॥ {पन्ना 224}

पद्अर्थ: नर निहकेवल = वासना रहित (शुद्ध) मनुष्य। बलि जाउ = मैं कुर्बान जाता हूँ। पुनरपि = पुनः+अपि, बार बार।5।

सबदे = शबद में (जुड़ के)। आपु = अपने असल को। नीसाण = राहदारी, परवाना। दरि = परमात्मा के दर पर।6।

निज घरि = अपने घर में, अपने अंतरात्मे में ही। चूके = खत्म हो जाती है। कमलु = हृदय रूपी कमल फूल। परगासा = खिल जाता है।7।

आस निरासा = आशा में निराशा, जिसकी आशाएं उम्मीदें बीच में ही रह गईं। बिखु = जहर। उदासा = आशाओं से ऊपर, निर्मोह।8।

अर्थ: मनुष्य निर्भय परमात्मा का नाम जप के (माया के हमलों से निर्भय हो के) वासना-रहित (शुद्ध) हो जाता है। वह पति-विहीनों को पति वाला बना देता है (वह है असल जोगी, और ऐसे जोगी से) मैं कुर्बान हूँ। उसे मुड़ मुड़ जनम नहीं लेना पड़ता, वह सदा प्रभू की सिफत सालाह करता है।5।

वह जोगी अपने अंदर व बाहर सारे जगत में एक परमात्मा को ही व्यापक जानता है। गुरू के शबद में जुड़ के वह अपने असले को पहिचानता है। गुरू के सच्चे शबद की बरकति से वह जोगी परमात्मा के दर पर (सिफत सालाह की) राहदारी ले कर जाता है।6।

जो मनुष्य गुरू के शबद द्वारा (विकारों की ओर से) मर जाता है (वह है असल जोगी, और) उसका निवास सदैव अपने अंतरात्में में रहता है। उसकी आशा (तृष्णा) खत्म हो जाती है, वह भटकना में नहीं पड़ता। गुरू के शबद में जुड़ने से उसका कमल रूपी हृदय सदैव खिला रहता है।7।

जगत में जो भी दिखाई देता है, वही गिरी हुई आशाओं वाला (निराशा में डूबा हुआ) ही दिखता है (किसी की सारी आशाएं कभी पूरी नहीं हुई)। हरेक को काम का जहर, क्रोध का विष (मारता जा रहा है, हरेक को माया की) भूख (माया की) प्यास (लगी हुई है)।

हे नानक! जगत में गिने चुने (विरले) लोग ही ऐसे मिलते हैं, जो आशा-तृष्णा के अधीन नहीं हैं (और, वही असल जोगी हैं)।8।7।

गउड़ी महला १ ॥ ऐसो दासु मिलै सुखु होई ॥ दुखु विसरै पावै सचु सोई ॥१॥ दरसनु देखि भई मति पूरी ॥ अठसठि मजनु चरनह धूरी ॥१॥ रहाउ ॥ नेत्र संतोखे एक लिव तारा ॥ जिहवा सूची हरि रस सारा ॥२॥ सचु करणी अभ अंतरि सेवा ॥ मनु त्रिपतासिआ अलख अभेवा ॥३॥ जह जह देखउ तह तह साचा ॥ बिनु बूझे झगरत जगु काचा ॥४॥ गुरु समझावै सोझी होई ॥ गुरमुखि विरला बूझै कोई ॥५॥ करि किरपा राखहु रखवाले ॥ बिनु बूझे पसू भए बेताले ॥६॥ गुरि कहिआ अवरु नही दूजा ॥ किसु कहु देखि करउ अन पूजा ॥७॥ संत हेति प्रभि त्रिभवण धारे ॥ आतमु चीनै सु ततु बीचारे ॥८॥ साचु रिदै सचु प्रेम निवास ॥ प्रणवति नानक हम ता के दास ॥९॥८॥ {पन्ना 224}

पद्अर्थ: दासु = हरी का दास। सचु = सदा स्थिर रहने वाला प्रभू (का मिलाप)। सोई = वह मनुष्य ही।1।

देखि = देख के। पूरी = अभुल। अठसठि = अढ़सठ (तीर्थ)। मजनु = स्नान। चरनह = (गुरू के) चरणों की।1। रहाउ।

नेत्र = आँखें। संतोखे = पर तन रूप देखने की ओर से तृप्त हो जाते हैं। सूची = पवित्र। सारा = श्रेष्ठ।2।

अभ अंतर = अभ्यंतर, दिल के अंदर। अलख अभेव सेवा = अलख अभेव प्रभू की सेवाभक्ति।3।

देखउ = मैं देखता हूँ। साचा = सदा स्थिर प्रभू। जगु काचा = (विकारों के मुकाबले) कमजोर मन वाला जगत।4।

सोझी = ये समझ कि प्रभू हर जगह मौजूद है।5।

बेताले = जीवन ताल से वंचित, भूतने।6।

गुरि = गुरू ने। कहु = बताओ। करउ = मैं करूँ। अनपूजा = किसी और की पूजा।7।

संत हेति = (मनुष्य को) संत बनाने के वास्ते। प्रभि = प्रभू ने। त्रिभवण = तीनों भवन, सारी सृष्टि। धारे = रचे हैं। चीनै = पहिचानता है, परखता है। ततु = असलियत।8।

रिदै = हृदय में। प्रणवति = विनती करता है। ता के = उस (गुरू) के।9।

अर्थ: (हरी के दास, गुरू का) दर्शन करके मनुष्य की अक्ल पूरी (सूझ वाली) हो जाती है। (गुरू के) चरणों की धूड़ (ही) अढ़सठ तीर्थों का स्नान है।1। रहाउ।

(परमात्मा का) ऐसा दास (मनुष्य को) मिल जाता है, (उसके अंदर) आत्मिक आनंद पैदा होता है। वह मनुष्य सदा स्थिर प्रभू की प्राप्ति कर लेता है, दुख उसके नजदीक नहीं फटकता।1।

उसकी आँखें (पराया रूप देखने की ओर से) तृप्त रहती हैं, उसकी सुरति की तार एक परमात्मा में रहती है। परमात्मा के नाम का श्रेष्ठ रस चख के उसकी जीभ पवित्र हो जाती है।2।

(परमात्मा का ऐसा दास, गुरू जिस मनुष्य को मिलता है) प्रभू का सिमरन उसकी (नित्य की) करनी बन जाता है। अलख और अभेव परमात्मा की अपने अंदर सेवा-भक्ति करके उसका मन (माया की ओर से) तृप्त हो जाता है।3।

(उस गुरू के दीदार की बरकति से ही) मैं जिधर देखता हूँ उधर उधर मुझे सदा स्थिर प्रभू दिखता है। पर माया के मुकाबले कमजोर मन वाला जगत इस ज्ञान से वंचित होने के कारण खहि खहि कर रहा है।4।

ये समझ कि परमात्मा हर जगह मौजूद है उसी को होती है जिसे गुरू ये समझ दे। कोई विरला मनुष्य गुरू के सन्मुख हो के ये समझ प्राप्त करता है।5।

हे राखनहार प्रभू! मेहर कर, और जीवों को (खहि खहि से) तू खुद बचा। गुरू से ज्ञान प्राप्त किए बिना जीव पशू (-स्वभाव) बन रहे हैं। भूतने हो रहे हैं।6।

मुझे सतिगुरू ने समझा दिया है कि प्रभू के बिना उस जैसा कोई नहीं है। बताओ, (हे भाई!) मैं किसे (उस जैसा) देख के किसी और की पूजा कर सकता हूँ? ।7।

परमात्मा ने (मनुष्यों को) संत बनाने के लिए ये सृष्टि रची है। जो मनुष्य (गुरू की शरण पड़ कर) अपने आप को पहिचानता है, वह इस अस्लियत को समझ लेता है।8।

(गुरू का दीदार करके ही) सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा मनुष्य के हृदय में निवास करता है, परमात्मा का प्यार हृदय में टिकता है।

नानक विनती करता है– मैं भी उस गुरू का दास हूँ।9।8।

गउड़ी महला १ ॥ ब्रहमै गरबु कीआ नही जानिआ ॥ बेद की बिपति पड़ी पछुतानिआ ॥ जह प्रभ सिमरे तही मनु मानिआ ॥१॥ ऐसा गरबु बुरा संसारै ॥ जिसु गुरु मिलै तिसु गरबु निवारै ॥१॥ रहाउ ॥ बलि राजा माइआ अहंकारी ॥ जगन करै बहु भार अफारी ॥ बिनु गुर पूछे जाइ पइआरी ॥२॥ हरीचंदु दानु करै जसु लेवै ॥ बिनु गुर अंतु न पाइ अभेवै ॥ आपि भुलाइ आपे मति देवै ॥३॥ दुरमति हरणाखसु दुराचारी ॥ प्रभु नाराइणु गरब प्रहारी ॥ प्रहलाद उधारे किरपा धारी ॥४॥ {पन्ना 224}

पद्अर्थ: ब्रहमै = ब्रहमा ने। गरबु = अहंकार (ब्रहमा ने अहंकार किया कि मैं कमल की नाभि में से नहीं जन्मा बल्कि अपने आप से ही पैदा हुआ हूँ)। बेद बिपति = वेदों के चुराए जाने की बिपता, (दैंत वेद छीन के ले गए थे। दुखी हुआ, परमात्मा का आसरा लिया। वेद वापिस दिलाए, दैंत मार के)। जह = जहां, जिस वक्त। तही = वहीं, उस वक्त। मानिआ = मान गया कि परमात्मा ही सबसे बड़ा है।1।

संसारै = संसार में। निवारै = दूर करता है।1। रहाउ।

बलि राजा = (एक दैंत राजा था। तप करके इसने सारे देवते जीत लिए। इंद्र की पदवी प्राप्त कर ली। इसने इकोत्र-सौ यज्ञ आरम्भ किए। आखिरी यज्ञ के निर्विघ्न समाप्ति पर इंद्र का तख्त छिन जाना था। इसने विष्णु से मदद मांगी। विष्णु ने बावन रूप धारण किया। ब्राहमण बल के राजे के यॅज्ञ-स्थल पे पहुँचा। कुटिया बनाने के लिए ढाई करम जगह माँगी। बल राजे के गुरू शुक्राचार्य ने मना किया कि ये छल है, इससे बचो। अपने दानी होने के अहंकार में गुरू का हुकम नहीं माना, और ढाई करम धरती देना मान गया। ब्राहमण-रूप धारे विष्णु ने एक ही करम में सारी धरती, और दूसरे में सारा आकाश नाप लिया। आधे करम के वास्ते बलि ने अपना सिर पेश किया। विष्णु ने असकी छाती पर पैर रख के उसे पाताल में पहुँचा दिया। पाताल का राज भी दिया, प्रसन्न हो के। पर विष्णु को वहाँ इस राजे का दरबान बनना पड़ा)। जगन = यज्ञ। अफारी = अफर के। पइआरी = पाताल में।2। हरीचंद = एक बचन-पाल धर्मी और दानी राजा। हरणाखसु = हर्णाकश्यप, मुल्तान का राजा।

हरीचंद– (हरिशचंद्र, एक बचन–पाल धर्मी और दानी राजा। पटना राजधानी। विशिष्ट इसका परोहित था। विशिष्ट ने विश्वामित्र के पास राजे के दान की शोभा बयान की। विश्वामित्र ने परीक्षा लेनी चाही। विशिष्ट की गैरहाजरी में राजे ने सारा राज दान कर दिया। दक्षिणा बन के राजा स्वयं उसकी रानी तारा और उसका पुत्र कांसी की मण्डी में बिके। राजे को शमशानघाट के ठेकेदार एक चूहड़े ने मूल्य ले लिया। रानी तारा और उसके पुत्र को एक ब्राहमण ने खरीद लिया। पुत्र सांप के डंक से मर गया। तारा शमशानघाट में पुत्र को जलाने के लिए ले गई। आगे मसूल लिए बगैर हरीचंद ने इजाजत नहीं दी। रानी के पास मसूल देने के पैसे नहीं थे। परीक्षा की हद हो गई। विश्वामित्र शर्मिंदा हुआ। राजे की जीत हुई, पर ये सारा कष्ट मिला क्योंकि राजे ने अपने गुरू विशिष्ट से सलाह नहीं ली)। अभेवै–अभेव प्रभू का। अभेव–जिसका भेद ना पाया जा सके।3।

हरणाखसु–हर्णाकश्यप, मुल्तान का राजा। जालिम होने के कारण दैंत कहलवाया। इसका पुत्र था प्रहिलाद। मुंद्राचल पर्वतों पर तप करके ब्रहमा से वर लिया था– ना दिन में मरूँ, ना रात मरूँ, ना घर के अंदर, ना घर के बाहर मरूँ, ना मनुष्य से मरूँ, ना देवताओं से मरूँ। इसने राज में हुकम दे दिया कि मैं ही ईश्वर हूँ, मेरा नाम जपो। प्रहिलाद प्रभू का भक्त निकला। प्रहिलाद को कई कष्ट दिए। विष्णु ने नरसिंह का रूप धार के नाखूनों से मारा, (नर व सिंह का रूप)।

दुराचारी = बुरे आचरण वाला। प्रहारी = नाश करने वाला।4।

अर्थ: जगत में अहंकार एक ऐसा विकार है, जो बहुत बुरा है। (बड़े-बड़े कहलवाने वाले भी जब जब अहंकार में आए तो बहुत खुआर हुए)। जिस (भाग्यशाली मनुष्य) को गुरू मिल जाता है (गुरू) उसका अहंकार दूर कर देता है।1। रहाउ।

ब्रहमा ने अहंकार किया (कि मैं इतना बड़ा हूँ, मैं कमल की नाभि में से कैसे पैदा हो सकता हूँ?) उसने परमात्मा की बेअंतता को नहीं समझा। (जब उसका घमण्ड तोड़ने के लिए उसके) वेद चुराए जाने की बिपदा उस पर आ पड़ी तब वह पछताया (कि मैंने अपने आप को व्यर्थ ही इतना बड़ा समझा)। जब (उस विपदा के वक्त) उसने परमात्मा को सिमरा (तो परमात्मा ने उसकी सहायता की) तब उसे यकीन आया (कि परमात्मा ही सबसे बड़ा है)।1।

राजे बलि को माया का गुमान हो गया। उसने बड़े यज्ञ किए। अहंकार प्रचण्ड हो गया। (इन्द्र का सिंहासन) छीनने के लिए उसने इकोत्र-सौ यज्ञ किये। अगर आखिरी यज्ञ निर्विघ्न सिरे चढ़ जाता, तो इन्द्र का राज भी छीन लेता। इंद्र ने विष्णु से सहायता मांगी। विष्णु ब्राहमण का रूप धारण करने दान मांगने आ गया। बलि के गुरू शुक्र ने बलि को समझाया कि ये छल है, इसमें ना फंसना। पर (माया के मान में) अपने गुरू की सालाह लिए बिना (उसने ब्राहमण-रूप धारी विष्णु को दान देना मान लिया और) पाताल में चला गया।2।

(राजा) हरिश्चंद्र (भी) बहुत दानी था, (दान की शोभा में ही मस्त रहा)। गुरू के बगैर वह भी ये ना समझ सका कि परमात्मा के गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता, उसका भेद नहीं पाया जा सकता (उसकी दृष्टि में बेअंत दानी हैं), (पर जीव के भी क्या वश?) परमात्मा खुद ही अक्ल देता है।3।

बुरी मति के कारण हर्णाकश्यप दुराचारी हो गया (अत्याचार करने लग पड़ा)। पर, नारायण प्रभू स्वयं ही (अहंकारियों का) अहंकार दूर करने वाला है। उसने मेहर की और प्रहलाद की रक्षा की (हर्णाक्षस का गुमान तोड़ा)।4।

भूलो रावणु मुगधु अचेति ॥ लूटी लंका सीस समेति ॥ गरबि गइआ बिनु सतिगुर हेति ॥५॥ सहसबाहु मधु कीट महिखासा ॥ हरणाखसु ले नखहु बिधासा ॥ दैत संघारे बिनु भगति अभिआसा ॥६॥ जरासंधि कालजमुन संघारे ॥ रकतबीजु कालुनेमु बिदारे ॥ दैत संघारि संत निसतारे ॥७॥ आपे सतिगुरु सबदु बीचारे ॥ दूजै भाइ दैत संघारे ॥ गुरमुखि साचि भगति निसतारे ॥८॥ {पन्ना 224}

पद्अर्थ: अचेति = अचेत पन में, मूर्खता में। सीस = सिर। गरबि = अहंकार के कारण। हेति = के कारण।5।

सहसबाहु = परशुराम के पिता जमदग्नि ऋषि का सांडू। ये राजा था। एक बार ऋषि ने राजे और उसकी सेना के भोजन की सेवा कामधेनु की सहायता से की। सहसबाहु ने कामधेनु काबू करनी चाही। लड़ाई हो गई। जमदाग्नि ऋषि मारा गया। जमदाग्नि के पुत्र परशुराम ने बदला लिया और सहसबाहु को मार दिया। मधु कीट = मधु, कैटभ ये दोनों दैंत्य विष्णु के कानों में से पैदा हुए। ये विष्णु ने ही मार दिए थे। महिखासा = (महिसासुर) राजा सुंभ नसुंभ का जरनैल, भैंसे की शक्ल, दुर्गा के हाथों मारा गया था। नखहु = नाखूनों से। बिधासा = फाड़ा।6।

जरासंधि = बिहार उड़ीसा का एक राजा। कंस का ससुर। कंस का बदला लेने के लिए इसने कृष्ण जी पर हमला किया। भीम ने कृष्ण जी की सहायता से इसे दो = फाड़ चीर दिया था। जरासंधि = दो रानियों से दो हिस्सों में पैदा हुआ बताया गया है।

रकतबीजु = सुंभ व नसुंभ का जरनैल। इसका दुर्गा के साथ युद्ध हुआ। घायल होने से जितने भी खून के कतरे धरती पर गिरते, उतने ही नए दैंत्य पैदा हो जाते। दुर्गा ने अपने माथे में से एक काली देवी कालिका निकाली। कालिका रक्तबीज के लहू के कतरे साथ-साथ पीती गई। आखिर दुर्गा ने रक्तबीज को मारा।

कालुनेमु = राजा बलि का मुख्य योद्धा। विष्णु ने त्रिशूल से इसका सिर काटा था।

कालजमुन = जरासंधि का साथी था। कृष्ण जी ने मारा।7।

दूजै भाइ = प्रभू को त्याग के किसी और के प्रेम में।8।

अर्थ: मूर्ख रावण बेसमझी में गलत रास्ते पर पड़ गया। (नतीजा ये निकला कि) उसकी लंका लूटी गई, और उसका सिर भी काट दिया गया। अहंकार के कारण, गुरू की शरण पड़े बिना अहंकार के मद में ही रावण तबाह हुआ।5।

सहसबाहु (को परशुराम ने मारा), मधु और कैटभ (को विष्णु ने मार दिया), महिसासुर (दुर्गा के हाथों मरा), हरणाखश को (नर सिंह ने) नाखूनों से मार दिया। ये सारे दैत्य प्रभू भक्ति के अभ्यास से वंचित रहने के कारण (अपनी मूर्खता की सजा भुगतते हुए) मारे गए।6।

परमात्मा ने दैत्य मार के संतों की रक्षा की। जरासंधि व कालजमुन (कृष्ण के हाथों) मारे गए। रक्तबीज (दुर्गा के हाथों) मरा। कालनेम (विष्णु के त्रिशूल से) चीरा गया (इन अहंकारियों को इनके अहंकार ने ही ले लिया)।7।

(इस सारी खेल का मालिक परमात्मा) खुद ही गुरू रूप हो के अपनी सिफत सालाह की बाणी को विचारता है, खुद ही दैत्यों को माया के मोह में फंसा के मारता है, खुद ही गुरू की शरण पड़े लोगों को अपने सिमरन में अपनी भक्ति मेुं जोड़ के (संसार समुंद्र से) पार लंघाता है।8।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh