श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 225 बूडा दुरजोधनु पति खोई ॥ रामु न जानिआ करता सोई ॥ जन कउ दूखि पचै दुखु होई ॥९॥ जनमेजै गुर सबदु न जानिआ ॥ किउ सुखु पावै भरमि भुलानिआ ॥ इकु तिलु भूले बहुरि पछुतानिआ ॥१०॥ कंसु केसु चांडूरु न कोई ॥ रामु न चीनिआ अपनी पति खोई ॥ बिनु जगदीस न राखै कोई ॥११॥ बिनु गुर गरबु न मेटिआ जाइ ॥ गुरमति धरमु धीरजु हरि नाइ ॥ नानक नामु मिलै गुण गाइ ॥१२॥९॥ {पन्ना 225} पद्अर्थ: पति = इज्जत। दुरजोधनु = धृतराष्ट् का बड़ा बेटा जो बड़ा अहंकारी व लोभी था। इसी ने पांडवों से जूए में दगा-फरेब से राज छीना था। आखिर पांडवों के हाथों युद्ध में मारा गया।9। जनमेजै = (जनमेजा) परीक्षित का पुत्र, एक प्रसिद्ध राजा था। इसके पिता परीक्षित को तक्शक साँप ने डस लिया था। जनमेजा साँपों का वैरी बना। सर्पमेध यज्ञ करके अनेकों साँप मारे। ब्यास इसका गुरू था। एक बार अश्वमेध यज्ञ इसने किया। इसकी स्त्री बहुत ही बारीक वस्त्रों में वहाँ आई। भोजन खाने आए अठारह ब्राहमण ये देख के हस पड़े। राजा ने कत्ल करा दिए। ब्रहम् हत्या के कारण, कुष्ठ हो गया। महाभारत की कथा सुनी। कुष्ठ हटता गया। जब ये सुना कि भीम ने जो हाथी आकाश में फेंके थे अभी तक वापस नहीं गिरे तो जनमेजे ने शक किया। कुष्ठ अंगूठे पर ही टिक गया।10। कंसु = उग्रसेन का पुत्र, कृष्ण का मामा। कृष्ण जी के हाथों मारा गया। केसु = केसी, कंस का पहलवान। कृष्ण जी ने मारा था। चांडूरु = कंस का योद्धा, कृष्ण जी ने मारा था।11। नाइ = नाम में जुड़ने से।12। अर्थ: दुर्योधन (अहंकार में) डूबा, और अपनी इज्जत गवा बैठा। (अहंकार में आ के) उसने परमात्मा को करतार को याद ना रखा (इस हद तक गिरा कि अनाथ द्रोपदी को बेआबरू करने पर उतर आया)। पर जो परमात्मा के दास को (दुख देता है वह उस) दुख के कारण खुद ही खुआर होता है। उसे खुद ही वह दुख (मार) देता है।9। राजा जनमेजा ने अपने गुरू की शिक्षा को ना समझा (अपने धन और अक्ल पर गुमान किया। अहंकार के कारण) भुलेखे में पड़ के गलत राह पड़ गया, फिर सुख कहाँ मिलता? (गुरू ने समझा के कुष्ठ की भारी बिपदा से बचाने का उद्यम किया, पर फिर भी) थोड़ा सा थिरक गया, और फिर पछताया। (अहंकार बड़े बड़े समझदारों की अक्ल को चक्कर में डाल देता है)।10। कंस, केसी और चांडूर (महान योद्धा थे, शूरबीरता में इनके बराबर का) और कोई नहीं था। (पर अपने ताकत के अहंकार में) इन्होंने परमात्मा की लीला को नहीं समझा और अपनी इज्जत गवा ली। (अपनी शक्ति का मान झूठा है। ये ताकत कोई मदद नहीं करती) ईश्वर के बिना और कोई (किसी की) रक्षा नहीं कर सकता।11। (अहंकार बड़ा बलशाली है) गुरू की शरण पड़े बिना इस अहंकार को (अंदर से) मिटाया नहीं जा सकता। जो मनुष्य गुरू की शिक्षा धारण करता है वह (अहंकार मिटा के) धीरज धारता है। (धैर्य बहुत ऊँचा) धर्म है। हे नानक! गुरू की शिक्षा पर चलने से ही परमात्मा का नाम प्राप्त होता है, और जीव परमात्मा की सिफत सालाह करता है।12।9। गउड़ी महला १ ॥ चोआ चंदनु अंकि चड़ावउ ॥ पाट पट्मबर पहिरि हढावउ ॥ बिनु हरि नाम कहा सुखु पावउ ॥१॥ किआ पहिरउ किआ ओढि दिखावउ ॥ बिनु जगदीस कहा सुखु पावउ ॥१॥ रहाउ ॥ कानी कुंडल गलि मोतीअन की माला ॥ लाल निहाली फूल गुलाला ॥ बिनु जगदीस कहा सुखु भाला ॥२॥ नैन सलोनी सुंदर नारी ॥ खोड़ सीगार करै अति पिआरी ॥ बिनु जगदीस भजे नित खुआरी ॥३॥ दर घर महला सेज सुखाली ॥ अहिनिसि फूल बिछावै माली ॥ बिनु हरि नाम सु देह दुखाली ॥४॥ हैवर गैवर नेजे वाजे ॥ लसकर नेब खवासी पाजे ॥ बिनु जगदीस झूठे दिवाजे ॥५॥ सिधु कहावउ रिधि सिधि बुलावउ ॥ ताज कुलह सिरि छत्रु बनावउ ॥ बिनु जगदीस कहा सचु पावउ ॥६॥ खानु मलूकु कहावउ राजा ॥ अबे तबे कूड़े है पाजा ॥ बिनु गुर सबद न सवरसि काजा ॥७॥ हउमै ममता गुर सबदि विसारी ॥ गुरमति जानिआ रिदै मुरारी ॥ प्रणवति नानक सरणि तुमारी ॥८॥१०॥ {पन्ना 225} पद्अर्थ: चोआ = इत्र। अंकि = शरीर पर। चढ़ावउ = (अगर) मैं लगा लूँ। पाट = पॅट, रेशम। पटंबर = पॅट+अंबर। पॅट = रेशम। अंबर = कपड़े। पहिरि = पहिन के। पावउ = मैं पाऊँ, मैं पा सकता हूँ।1। किआ पहिरउ = बढ़िया कपड़े पहनने से क्या लाभ? ओढि = पहन के। जगदीस = जगत का मालिक।1। रहाउ। कानी = कानों में। गलि = गले में। लाल निहाली = लाल रंग की तुलाई (गद्दा)। फूल गुलाला = गुलाल के फूल।2। नैन = आँखें। सलोनी = सुंदर लोइण वाली, सुंदर आँखों वाली। खोड़ = सोलह। बिनु भजे = सिमरन के बिना।3। महला = महल माढ़ीयां। सुखली = सुख देने वाली। अहि = दिन। निसि = रात। दुखाली = दुखों का घर।4। हैवर = हय+वर, बढ़िया घोड़े। गैवर = गज+वर = बढ़िया हाथी। नेब = नायब। खवासी = शाही नौकर। पाजे = पाज, दिखावा। दिवाजे = दिखावे।5। सिधु = करामाती योगी। कहावउ = अगर मैं कहलाऊँ। रिधि सिधि = करामाती ताकतें। कुलह = टोपी। सिरि = सिर पर। सचु = सदा स्थिर रहने वाला (राज-भाग)।6। मलूक = बादशाह। अबे तबे = नौकरों को झिड़कें। कूड़े = झूठे, नाशवंत। काजा = जीवन मनोर्थ।7। ममता = मल्कियत की तमन्ना। सबदि = शबद से। गुरमति = गुरू की शिक्षा से। मुरारी = मुर+अरि, परमात्मा।8। अर्थ: बढ़िया बढ़िया कपड़े पहनने और पहन कर दूसरों को दिखाने से क्या लाभ है? परमात्मा (के चरणों में जुड़े) बिनां कहीं और सुख नहीं मिल सकता।1। रहाउ। अगर मैं इत्र और चंदन अपने तन पर लगा लूँ, अगर मैं रेशम व रेशमी कपड़े पहनूँ, (फिर भी) अगर मैं परमात्मा के नाम से वंचित हूँ, तो कहीं भी मुझे सुख नहीं मिल सकता।1। अगर मैं अपने कानों में कुण्डल डाल लूँ, गले में मोतियों की माला पहन लूँ, मेरे लाल रंग गद्दे पर गुलाल के फूल (बिखरे हुए) हों, (फिर भी) परमात्मा के सिमरन के बिना मुझे कहीं भी सुख नहीं मिल सकता।2। अगर सुंदर आँखों वाली खूबसूरत मेरी स्त्री हो, वह सोलह तरह के हार-श्रृंगार करती हो, और मुझे बहुत प्यारी लगती हो; फिर भी जगत के मालिक प्रभू का सिमरन किए बगैर सदा ख्वारी ही होती है।3। अगर मेरे पास बसने के लिए महिल-माढ़ियां हों, सुख देने वाला मेरा पलंघ हो, उस पर माली दिन रात फूल बिछाता रहे, (फिर भी) परमात्मा के नाम सिमरन के बगैर ये शरीर दुखों का घर ही बना रहता है।4। अगर मेरे पास बढ़िया घोड़े हाथी हों, शस्त्रों से लेस फौजें हों, लश्कर हों, हायब हों, शाही नौकर हों, ये सारा दिखावा हो, (फिर भी) जगत के मालिक परमात्मा का सिमरन किए बिना ये (शक्ति के) दिखावे नाशवंत ही हैं।5। अगर मैं (अपने आप को) करामाती साधु कहला लूँ, (जब चाहूँ) चमत्कारी शक्तियों को (अपने पास) बुला सकूँ। मेरे सिर पर ताज की टोपी हो, मैं अपने सिर पर (शाही) छत्र झुला सकूँ, (फिर भी) जगत के मालिक प्रभू के सिमरन के बिना सदा टिके रहने वाली (आत्मिक) शक्ति कहीं से हासिल नहीं कर सकता।6। यदि मैं अपने आप को खान कहलवा लूँ, बादशाह कहलवाऊँ, राजा कहलाऊँ, नौकरों चाकरों को डांट-फटकार भी दे सकूँ, (ताकत का सारा ये) दिखावा नाश हो जाने वाला है। गुरू के शबद का आसरा लिए बिना मानस जीवन का मनोर्थ सिरे नहीं चढ़ता।7। मैं बड़ा बन जाऊँ, और मेरी बहुत सारी मल्कियतें हों -ये चाहत गुरू के शबद में जुड़ने से ही मन से भूलती हैं। गुरू की मति पर चलने से ही परमात्मा हृदय में टिका पहचाना जा सकता है। (पर, ये सब कुछ तभी हो सकता है अगर परमात्मा की अपनी मेहर हो। इस वास्ते) नानक प्रभू-दर पे विनती करता है - (हे प्रभू!) मैं तेरी शरण आया हूँ।8।10। गउड़ी महला १ ॥ सेवा एक न जानसि अवरे ॥ परपंच बिआधि तिआगै कवरे ॥ भाइ मिलै सचु साचै सचु रे ॥१॥ ऐसा राम भगतु जनु होई ॥ हरि गुण गाइ मिलै मलु धोई ॥१॥ रहाउ ॥ ऊंधो कवलु सगल संसारै ॥ दुरमति अगनि जगत परजारै ॥ सो उबरै गुर सबदु बीचारै ॥२॥ भ्रिंग पतंगु कुंचरु अरु मीना ॥ मिरगु मरै सहि अपुना कीना ॥ त्रिसना राचि ततु नही बीना ॥३॥ कामु चितै कामणि हितकारी ॥ क्रोधु बिनासै सगल विकारी ॥ पति मति खोवहि नामु विसारी ॥४॥ पर घरि चीतु मनमुखि डोलाइ ॥ गलि जेवरी धंधै लपटाइ ॥ गुरमुखि छूटसि हरि गुण गाइ ॥५॥ जिउ तनु बिधवा पर कउ देई ॥ कामि दामि चितु पर वसि सेई ॥ बिनु पिर त्रिपति न कबहूं होई ॥६॥ पड़ि पड़ि पोथी सिम्रिति पाठा ॥ बेद पुराण पड़ै सुणि थाटा ॥ बिनु रस राते मनु बहु नाटा ॥७॥ जिउ चात्रिक जल प्रेम पिआसा ॥ जिउ मीना जल माहि उलासा ॥ नानक हरि रसु पी त्रिपतासा ॥८॥११॥ {पन्ना 225-226} पद्अर्थ: ऐक = एक परमात्मा की। परपंच = सृष्टि। बिआधि = रोग। कवरे = कड़वे। भाइ = प्रेम में। साचै = सदा स्थिर प्रभू को। रे = हे भाई! ।1। राम भगतु = परमात्मा का भगत। गाइ = गा के।1। रहाउ। ऊंधो = उलटा, उध्र्व (परमात्मा की याद से बेमुख हुआ)। संसारै = संसार का। परजारै = अच्छी तरह जलाती है। सो = वह मनुष्य।2। भ्रिंग = भृंग, भंवरा। कुंचरु = हाथी। अरु = और। मीना = मछली। मिरग = हिरन। सहि = सह के। राचि = रच के, फस के। ततु = अस्लियत। बीना = पहचाना, देखा।3। चितै = चितवता है। हितकारी = हित करने वाला, प्रेमी। कामणि = स्त्री। विकारी = विकारियों को। पति = इज्जत। विसारी = बिसार के, भुला के।4। पर घरि = पराए घर में। गलि = गले में। जेवरी = जंजीर, रस्सी, फांसी।5। पर कउ = पराए (मनुष्य) को। कामि = काम में। दामि = दाम (के लालच) में। सेई = वही, वह विधवा। त्रिपति = शांति।6। थाटा = बनावट, रचना। नाटा = नाटक, चंचलता की बातें।7। चात्रिक = पपीहा। उलासा = खुश। पी = पी कर। त्रिपतासा = तृप्त होता है, संतुष्ट होता है।8। अर्थ: परमात्मा का भगत परमात्मा का सेवक इस तरह का होता है, वह परमात्मा के गुण गा के (उसके चरणों में) मिलता है और (अपने मन के विकारों की) मैल धो लेता है।1। रहाउ। हे भाई! परमात्मा का भगत एक परमात्मा की सेवा (भगती) करता है, किसी और को वह (परमात्मा के बराबर का) नहीं समझता। संसार के रोग (पैदा करने वाले भोगों) को वह कड़वा जान के त्याग देता है। (परमात्मा के) प्रेम में जुड़ के वह सदा स्थिर परमात्मा (के चरणों) में मिल जाता है, वह सदा स्थिर प्रभू का रूप हो जाता है।1। सारे जगत (के जीवों) का हृदय कमल (परमात्मा के सिमरन की ओर से) उल्टा हुआ है। इस बुरी कोझी मति की आग संसार (के जीवों के आत्मिक जीवन) को अच्छी तरह जला रही है। (इस आग में से) वही मनुष्य बचता है जो गुरू के शबद को विचारता है।2। भंवरा, पतंगा, हाथी, मछली और हिरन - हरेक अपना अपना किया पा के मर जाते हैं। (इसी तरह दुरमति का मारा मनुष्य) तृष्णा में फंस के अपने असल (परमात्मा) को नहीं देखता (और आत्मिक मौत मरता है)।3। (दुरमति के अधीन हो के) स्त्री का प्रेमी मनुष्य सदा काम वासना ही चितवता है। (फिर) क्रोध सारे विकारियों (के आत्मिक जीवन) को तबाह करता है। ऐसे मनुष्य प्रभू का नाम भुला के अपनी इज्जत और अक्ल गवा लेते हैं।4। अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य पराए घर में अपने चिक्त को डुलाता है (नतीजा ये निकलता है कि विकारों के) जंजाल में वह फंसता है और उसके गले में विकारों की जंजीर (पक्की होती जाती है)। जो मनुष्य गुरू के बताए रास्ते पर चलता है, वह परमात्मा की सिफत सालाह करके इस जंजाल में से बच निकलता है।5। जैसे विधवा अपना शरीर पराए मनुष्य के हवाले करती है, काम वासना में (फस के) पैसे (के लालच) में (फस के) वह अपना मन (भी) पराए मनुष्य के वश में करती है, पर पति के बिना उसे कभी भी शांति नसीब नहीं हो सकती (ऐसे ही पति प्रभू को भुलाने वाली जीव स्त्री अपना आप विकारों के अधीन करती है, पर पति प्रभू के बिना आत्मिक सुख कभी नहीं मिल सकता)।6। (विद्वान पंडित) वेद-पुराण-स्मृतियां आदिक धर्म पुस्तकें बारंबार पढ़ता है, उनकी (काव्य) रचना बार बार सुनता है, पर जब तक उसका मन परमात्मा के नाम रस का रसिया नहीं बनता, तब तक (माया के हाथों पर ही) नाच करता है।7। जैसे पपीहे का (वर्षा-) जल से प्रेम है, (वर्षा-) जल की उसे प्यास है। जैसे मछली पानी में बहुत प्रसन्न रहती है, वैसे ही, हे नानक! परमात्मा का भगत परमात्मा का नाम-रस पी के तृप्त हो जाता है।8।11। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |