श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गउड़ी महला १ ॥ प्रथमे ब्रहमा कालै घरि आइआ ॥ ब्रहम कमलु पइआलि न पाइआ ॥ आगिआ नही लीनी भरमि भुलाइआ ॥१॥ जो उपजै सो कालि संघारिआ ॥ हम हरि राखे गुर सबदु बीचारिआ ॥१॥ रहाउ ॥ माइआ मोहे देवी सभि देवा ॥ कालु न छोडै बिनु गुर की सेवा ॥ ओहु अबिनासी अलख अभेवा ॥२॥ सुलतान खान बादिसाह नही रहना ॥ नामहु भूलै जम का दुखु सहना ॥ मै धर नामु जिउ राखहु रहना ॥३॥ चउधरी राजे नही किसै मुकामु ॥ साह मरहि संचहि माइआ दाम ॥ मै धनु दीजै हरि अम्रित नामु ॥४॥ {पन्ना 227}

पद्अर्थ: प्रथमे = सबसे पहले। कालै घरि = काल के घर में, मौत के सहम में। पइआलि = पाताल में। ब्रहम कमलु = विष्णु का कमल, विष्णु की नाभि में से उगे हुए कमल का अंत। भरमि = भटकना में। भुलाइआ = गलत रास्ते पड़ गया।1।

उपजै = पैदा होता है। सो = उसे। कालि = काल ने, मौत (के सहम) ने। संघारिआ = मारा है, आत्मिक जीवन की ओर से मारा। हम = मुझे। राखे = आत्मिक मौत से बचा लिया।1। रहाउ।

सभि = सारे। कालु = मौत का सहम।2।

नामहु = नाम से। भूले = वंचित रहता है। मै = मुझे। धर = आसरा।3।

मुकामु = पक्का ठिकाना। मरहि = मरते हैं। संचहि = इकट्ठा करते हैं। दाम = पैसे, धन।4।

अर्थ: (जगत में) जो जो जीव जनम लेता है (और गुरू का शबद अपने हृदय में नहीं बसाता) मौत (के सहम) ने उस उस का आत्मिक जीवन प्रफुल्लित नहीं होने दिया। मेरे आत्मिक जीवन को परमात्मा ने खुद बचा लिया, (क्योंकि उसकी मेहर से) मैंने गुरू के शबद को अपने हृदय में बसा लिया।1। रहाउ।

(और जीवों की तो बात ही क्या करनी है) सबसे पहले ब्रहमा ही आत्मिक मौत की जंजीर में फंस गया। उसने अपने गुरू की आज्ञा पर गौर ना किया, (इस अहंकार में आ के मैं इतना बड़ा हूँ कि मैं कैसे कमल की डंडी में से पैदा हो सकता हूँ) भटकना में पड़ कर गलत रास्ते पर पड़ गया (विष्णु की नाभि से उगे हुए जिस कमल में से ब्रहमा पैदा हुआ था, उस का अंत लेने के लिए) पाताल में (जा पहुँचा) पर ब्रहम् कमल (का अंत) ना ढूँढ सका (और शर्मिंदा होना पड़ा। ये अहंकार ही मौत है)।1।

सारे देवियां और देवते माया के मोह में फंसे हुए हैं (यही है आत्मिक मौत, ये आत्मिक) मौत गुरू की बताई हुई सेवा किए बिना खलासी नहीं करती। (इस आत्मिक) मौत से बचा हुआ सिर्फ एक परमातमा है जिसके गुण बयान नहीं हो सकते, जिसका भेद पाया नहीं जा सकता।2।

(वैसे तो) सुल्तान हों, खान हों, बादशाह हों, किसी ने भी सदा यहाँ टिके नहीं रहना, पर परमातमा के नाम से जो जो वंचित रहता है वह जम का दुख सहता है (वह अपनी आत्मिक मौत भी सहेड़ लेता है, इस करके, हे प्रभू!) मुझे तेरा नाम ही सहारा है (मैं यही अरदास करता हूँ) जैसे हो सके मुझे अपने नाम में जोड़े रख, मैं तेरे नाम में ही टिका रहूँ।3।

चौधरी हों, राजे हों, किसी का भी यहाँ पक्का डेरा नहीं है। पर (जो) शाह निरी माया ही जोड़ते हैं, सिर्फ पैसे ही एकत्र करते हैं, वे आत्मिक मौत मर जाते हैं। हे हरी! मुझे आत्मिक जीवन देने वाला अपना नाम-धन बख्श।4।

रयति महर मुकदम सिकदारै ॥ निहचलु कोइ न दिसै संसारै ॥ अफरिउ कालु कूड़ु सिरि मारै ॥५॥ निहचलु एकु सचा सचु सोई ॥ जिनि करि साजी तिनहि सभ गोई ॥ ओहु गुरमुखि जापै तां पति होई ॥६॥ काजी सेख भेख फकीरा ॥ वडे कहावहि हउमै तनि पीरा ॥ कालु न छोडै बिनु सतिगुर की धीरा ॥७॥ कालु जालु जिहवा अरु नैणी ॥ कानी कालु सुणै बिखु बैणी ॥ बिनु सबदै मूठे दिनु रैणी ॥८॥ हिरदै साचु वसै हरि नाइ ॥ कालु न जोहि सकै गुण गाइ ॥ नानक गुरमुखि सबदि समाइ ॥९॥१४॥ {पन्ना 227}

पद्अर्थ: महर = मुखिए। मुकदम = चौधरी। सिकदार = सरदार। संसारै = संसार में। अफरिओ = बली, अमोड़। कूड़ु = माया का मोह। सिरि = (उसके) सिर पर। मारै = मारता है, आत्मिक मौत मरता है, आत्मिक जीवन को प्रफुल्लित नहीं होने देता।5।

निहचलु = अॅटल, सदा स्थिर। जिनि = जिस (परमातमा) ने। तिनहि = उसी (प्रभू) ने। गोई = ले कर दी। सभ = सारी सृष्टि। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ने से। ओह = वह परमात्मा। पति = इज्जत।6।

तनि = तन में। पीरा = पीड़ा। धीरा = धीरज, सहारा।7।

जिहवा = जीभ से। नैणी = आँखों से। कानी = कानों से। बिखु = जहर, आत्मिक मौत लाने वाले। बैणी = बचन। मूठे = लूटे जाते हैं।8।

नाइ = नाम में। न जोहि सकै = देख नहीं सकता, सहम नहीं डाल सकता, आत्मिक जीवन को मार नहीं सकता। सबदि = शबद द्वारा।9।

अर्थ: प्रजा, प्रजा के मुखिए, चौधरी, सरदार - कोई भी ऐसा नहीं दिखता जो संसार में सदा टिका रह सके। पर बली काल उसके सिर पर चोट मारता है (उसे आत्मिक मौत मारता है) जिसके हृदय में माया का मोह है।5।

सदा अटॅल रहने वाला केवल एक ही एक परमात्मा ही है, जिस ने यह सारी सृष्टि रची बनाई है, वह खुद ही इसे (अपने अंदर) लय कर लेता है। जब गुरू की शरण पड़ने से वह परमात्मा हर जगह दिखाई दे जाए (तो जीव का आत्मिक जीवन प्रफुल्लित होता है) तब (इसे प्रभू की हजूरी में) आदर मिलता है।6।

काजी कहलाएं, शेख कहलवाएं, बड़े बड़े भेषों वाले फ़कीर कहलाएं, (दुनिया में अपने आप को) बड़े बड़े कहलवाएं; पर अगर शरीर में अहंकार की पीड़ा है, तो मौत खलासी नहीं करती (आत्मिक मौत खलासी नहीं करती, आत्मिक जीवन प्रफुल्लित नहीं होता)। सतिगुरू से मिले (नाम-) आधार के बिना (ये आत्मिक मौत टिकी ही रहती है)।7।

(निंदा आदि के कारण) जीभ से, (पराया रूप देखने के कारण) आँखों द्वारा, और कानों से (क्योंकि जीव) आत्मिक मौत लाने वाले (निंदा आदि के) बचन सुनता है आत्मिक मौत (का) जाल (जीवों के सिर पर सदैव तना रहता है)। गुरू के शबद (का आसरा लिए) बिना जीव दिन रात (आत्मिक जीवन के गुणों से) लूटे जा रहे हैं।8।

जिस मनुष्य के हृदय में सदा-स्थिर प्रभू (सदा) बसा रहता है, जो मनुष्य परमात्मा के नाम में (सदा) टिका रहता है, आत्मिक मौत (मौत का सहम) उसकी तरफ कभी देख भी नहीं सकती (क्योंकि वह सदा प्रभू के) गुण गाता है। हे नानक! वह मनुष्य गुरू के सन्मुख हो के गुरू के शबद के द्वारा (प्रभू के चरणों में सदा) लीन रहता है।9।14।

गउड़ी महला १ ॥ बोलहि साचु मिथिआ नही राई ॥ चालहि गुरमुखि हुकमि रजाई ॥ रहहि अतीत सचे सरणाई ॥१॥ सच घरि बैसै कालु न जोहै ॥ मनमुख कउ आवत जावत दुखु मोहै ॥१॥ रहाउ ॥ अपिउ पीअउ अकथु कथि रहीऐ ॥ निज घरि बैसि सहज घरु लहीऐ ॥ हरि रसि माते इहु सुखु कहीऐ ॥२॥ गुरमति चाल निहचल नही डोलै ॥ गुरमति साचि सहजि हरि बोलै ॥ पीवै अम्रितु ततु विरोलै ॥३॥ सतिगुरु देखिआ दीखिआ लीनी ॥ मनु तनु अरपिओ अंतर गति कीनी ॥ गति मिति पाई आतमु चीनी ॥४॥ {पन्ना 227}

पद्अर्थ: बोलहि = बोलते हैं। साचु = सदा अटॅल रहने वाला बोल। मिथिआ = झूठ। राई = रत्ती भर। हुकमि रजाई = रजा के मालिक प्रभू के हुकम में। अतीत = माया के प्रभाव से परे।1।

सच घरि = सच के घर में, सदा स्थिर प्रभू के चरणों में। बैसे = (जो) बैठता है। कालु = मौत का सहम, आत्मिक मौत। मोहै = मोह के कारण। आवत जावत = पैदा होने मरने का।1। रहाउ।

अपिउ = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस। पीअउ = बेशक कोई भी पक्ष पीए। कथि = कह के, सिफत सालाह करके। रहीअै = रह सकते हैं, (निज घर में टिके) रह सकते हैं। बैसि = बैठ के, टिक के। सहज घरु = आत्मिक अडोलता देने वाला घर। लहीअै = प्राप्त कर सकते हैं। रसि = रस में। माते = मस्त होने से। कहीअै = कह सकते हैं।2।

चाल = जीवन चाल, जिंदगी की जुगति। निहचल = जिसे माया का मोह हिला नहीं सकता। साचि = सदा स्थिर प्रभू में (टिक के)। विरोलै = मथना, मंथन करके, मथ के ढूँढ लेता है।3।

दीखिआ = शिक्षा। अरपिओ = अर्पित किया, हवाले किया। अंतर गति = आंतरिक आत्मिक हालत। गति = परमात्मा की आत्मिक अवस्था। मिति = परमात्मा का बड़प्पन। आतमु = आपना आप।4।

अर्थ: जो मनुष्य सदा स्थिर प्रभू के चरणों में टिका रहता है, उसे मौत का सहम छू नहीं सकता (उसके आत्मिक जीवन को कोई खतरा नहीं होता) पर अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य को मोह (में फंसे होने) के कारण जनम मरण का दुख (दबाए रखता) है।1। रहाउ।

जो मनुष्य गुरू के सन्मुख रह के रजा के मालिक प्रभू के हुकम में चलते हैं, वे सदा स्थिर प्रभू की शरण में रह के माया के प्रभाव से ऊपर रहते हैं। इस वास्ते वो रत्ती भर भी झूठ नहीं बोलते, वे सदा अटॅल रहने वाले बोल ही बोलते हैं।1।

कोई भी जीव नाम-रस पीए (और पी के देख ले), बेअंत गुणों के मालिक प्रभू की सिफत सालाह करके (“निज घर में”) टिके रह सकते हैं, और उस स्वै-स्वरूप में बैठ के आत्मिक अडोलता का ठिकाना ढूँढ सकते हैं। हरि-नाम-रस में मस्त होने से ये कह सकते हैं कि यही है असल आत्मिक सुख।2।

गुरू की मति पर चलने वाली जीवन-जुगति (ऐसी है कि इसे) माया का मोह हिला नहीं सकता, माया के मोह में ये डोल नहीं सकती। जो मनुष्य गुरू की मति धारण करके नाम-रस पीता है, वह अस्लियत को मथ कर तलाश लेता है।3।

जिस मनुष्य ने (पूरे) गुरू के दर्शन कर लिए और गुरू की शिक्षा ग्रहण कर ली, अपने अंतरात्मे बसा ली और (उस शिक्षा की खातिर) अपना मन और अपना तन भेट कर दिया, (और जिस मनुष्य ने इस शिक्षा की बरकति से सदा स्थिर प्रभू के चरणों में जुड़ना आरम्भ कर दिया) उसने अपनी अस्लियत को पहिचान लिया, उसे समझ आ गई कि परमात्मा सबसे उच्च आत्मिक अवस्था वाला है और बेअंत वडियाई वाला है।4।

भोजनु नामु निरंजन सारु ॥ परम हंसु सचु जोति अपार ॥ जह देखउ तह एकंकारु ॥५॥ रहै निरालमु एका सचु करणी ॥ परम पदु पाइआ सेवा गुर चरणी ॥ मन ते मनु मानिआ चूकी अहं भ्रमणी ॥६॥ इन बिधि कउणु कउणु नही तारिआ ॥ हरि जसि संत भगत निसतारिआ ॥ प्रभ पाए हम अवरु न भारिआ ॥७॥ साच महलि गुरि अलखु लखाइआ ॥ निहचल महलु नही छाइआ माइआ ॥ साचि संतोखे भरमु चुकाइआ ॥८॥ जिन कै मनि वसिआ सचु सोई ॥ तिन की संगति गुरमुखि होई ॥ नानक साचि नामि मलु खोई ॥९॥१५॥ {पन्ना 227-228}

पद्अर्थ: सारु = श्रेष्ठ। परम = सब से बड़ा। सचु = सदा स्थिर। देखउ = बेशक वह देख ले।5

निरालमु = निर्लिप। करणी = नित्य आचरण। परम पदु = सबसे उच्च आत्मिक दर्जा। मन ते = मन से, अंदर ही। अहं = अहंकार। भ्रमणी = भटकना।6।

जसि = यश ने। भारिआ = ढूँढा।7।

महलि = महल में। गुरि = गुरू ने। छाइआ = छाया, साया, प्रभाव।8।

मनि = मन में। सचु = सदा स्थिर प्रभू! नामि = नाम में (जुड़ के)।9।

अर्थ: जो मनुष्य (सदा स्थिर प्रभू के चरणों में जुड़ता है) निरंजन के श्रेष्ठ नाम को अपनी आत्मिक खुराक बनाता है, वह सदा स्थिर रहने वाला परम हंस बन जाता है। बेअंत (प्रभू) की ज्योति (उसके अंदर चमक पड़ती है)। बेशक किसी भी तरफ वह देख ले, उसे हर जगह वह एक परमात्मा ही दिखाई देता है।5।

(‘सच घर’ में बैठने वाला) वह मनुष्य माया (के प्रभाव) से निर्लिप रहता है, सदा स्थिर प्रभू का सिमरन ही उसकी नित्य की करनी हो जाती है। गुरू की बताई सेवा करके गुरू के चरणों में टिका रह के वह सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा हासिल कर लेता है। अंदर अंदर से उसका मन सिमरन में रच-मिच जाता है, अहंकार वाली उसकी भटकना समाप्त हो जाती है।6।

(‘सच घर’ में बैठे रहने की) इस विधी ने किस किस को (संसार समुंद्र से) पार नहीं लंघाया? परमात्मा की सिफत सालाह ने सारे संतों को भक्तों को पार लंघा दिया है। जिस जिस ने यश किया, उसे प्रभू जी मिल गए। (मैं भी प्रभू की सिफत सालाह ही करता हूँ और) उसके बिना किसी और को नहीं ढूँढता।7।

सदा स्थिर प्रभू के महल में (पहुँचा के) गुरू ने जिस मनुष्य को अलख प्रभू का स्वरूप (हृदय में) प्रत्यक्ष कर दिया है, उसे वह अटल ठिकाना (सदा के लिए प्राप्त हो जाता है) जिस पर माया का प्रभाव नहीं पड़ता। जो जो लोग सदा स्थिर प्रभू में जुड़ के माया की ओर से तृप्त हो जाते हैं, उनकी भटकना समाप्त हो जाती है।8।

जिन मनुष्यों के मन में वह सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा बस पड़ता है, उनकी संगति जिस मनुष्य को गुरू की संगति पड़ कर प्राप्त होती है। हे नानक! वह मनुष्य प्रभू के सदा-स्थिर नाम में जुड़ के (अपने मन की विकारों की) मैल साफ कर लेता है।9।15।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh