श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 228 गउड़ी महला १ ॥ रामि नामि चितु रापै जा का ॥ उपज्मपि दरसनु कीजै ता का ॥१॥ राम न जपहु अभागु तुमारा ॥ जुगि जुगि दाता प्रभु रामु हमारा ॥१॥ रहाउ ॥ गुरमति रामु जपै जनु पूरा ॥ तितु घट अनहत बाजे तूरा ॥२॥ जो जन राम भगति हरि पिआरि ॥ से प्रभि राखे किरपा धारि ॥३॥ जिन कै हिरदै हरि हरि सोई ॥ तिन का दरसु परसि सुखु होई ॥४॥ सरब जीआ महि एको रवै ॥ मनमुखि अहंकारी फिरि जूनी भवै ॥५॥ सो बूझै जो सतिगुरु पाए ॥ हउमै मारे गुर सबदे पाए ॥६॥ अरध उरध की संधि किउ जानै ॥ गुरमुखि संधि मिलै मनु मानै ॥७॥ हम पापी निरगुण कउ गुणु करीऐ ॥ प्रभ होइ दइआलु नानक जन तरीऐ ॥८॥१६॥ सोलह असटपदीआ गुआरेरी गउड़ी कीआ ॥ {पन्ना 228} पद्अर्थ: रामि = राम में। नामि = नाम में। रापै = रंगा जाता है। जा का चितु = जिस (मनुष्य) का चित्त। उपजंपि = सवेरे उठते ही।1। अभागु = बद्किस्मती। जुगि जुगि = हरेक युग में, सदा ही।1। रहाउ। तितु = उस में। घटि = घट में। तितु घटि = उस हृदय में। अनाहत = (हत् = चोट करनी) अन+आहत, बिना चोट के, बिना बजाए, एक रस, लगातार। तूरा = तुरम।2। पिआरि = प्यार में। से = वह लोग। प्रभि = प्रभू ने। धारि = धर के, कर के।3। परसि = परस के, छू के, कर के।4। रवै = व्यापक है।5। अरध = अर्ध, निचले लोक से संबंध रखने वाला, जीवात्मा। उरध = उध्र्व, ऊँचे मण्डलों का वासी, परमात्मा। संधि = मिलाप। मानै = पतीजता है।7। कउ = को। करीअै = (कृपा करके) करो।8। अर्थ: हे भाई! (अगर) तुम परमात्मा का नाम नहीं सिमरते, तो ये तुम्हारी बद्किस्मती है। परमात्मा प्रभू सदा से ही हमें (सभी जीवों को) दातें देता चला आ रहा है (ऐसे दाते को भुलाना दुर्भाग्यपूर्ण है)।1। रहाउ। जिस मनुष्य का मन परमात्मा के नाम (-रंग) में रंगा हुआ है, उसका दर्शन नित्य सवेरे उठते हुए ही करना चाहिए (ऐसे भाग्यशाली मनुष्य की संगति से परमात्मा का नाम याद आता है)।1। जो मनुष्य गुरू की शिक्षा ले के परमात्मा का नाम जपता है, वह पूर्ण हो जाता है (उसका मन माया के मोह में डोलता नहीं)। उस (के) हृदय में (प्रसन्नता ही प्रसन्नता बनी रहती है, जैसे) एक-रस तुर्मा आदि बाजे बजते रहते हैं।2। जो लोग हरि परमात्मा की भक्ति और प्यार में (जुड़ते) हैं, उन्हें प्रभू ने मेहर करके (अहंकार आदि से) बचा लिया है।3। जिन मनुष्यों के हृदय में वह (दया-निधि) परमात्मा बसता है, उसका दर्शन करने से (आत्मिक) आनंद मिलता है।4। सब जीवों के अंदर एक परमात्मा ही व्यापक है। (पर) मन का मुरीद (मन के पीछे चलने वाला) मनुष्य (ये बात नहीं समझता, वह इन में ईश्वर बसता नहीं देखता, वह) जीवों के साथ अहंकार भरा बर्ताव करता है, और मुड़ मुड़ के जूनियों में भ्रमित होता है।5। जिस मनुष्य को सतिगुरू मिलता है वह समझ लेता है (कि सब जीवों में परमात्मा ही बसता है, इस वास्ते) वह (अपने अंदर से) अहंकार मारता है, गुरू के शबद में जुड़ के वह (परमात्मा का मेल) प्राप्त कर लेता है।6। (सिमरन से वंचित रहने से मनुष्य को) जीवात्मा और परमात्मा के मिलाप की पहिचान नहीं आ सकती, (वही पहिचानता है) जो गुरमुखों की संगति में मिलता है, और उसका मन (सिमरन में) लग जाता है।7। हे प्रभू! हम जीव विकारी हैं, गुण-हीन हैं (अपना नाम सिमरने का) गुण तू खुद बख्श। हे नानक! (कह–) हे प्रभू! तू दयाल हो के (जब नाम की दाति बख्शता है, तब) तेरे दास (संसार समुंद्र से) पार लांघ सकते हैं।8।16। गउड़ी बैरागणि महला १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ जिउ गाई कउ गोइली राखहि करि सारा ॥ अहिनिसि पालहि राखि लेहि आतम सुखु धारा ॥१॥ इत उत राखहु दीन दइआला ॥ तउ सरणागति नदरि निहाला ॥१॥ रहाउ ॥ जह देखउ तह रवि रहे रखु राखनहारा ॥ तूं दाता भुगता तूंहै तूं प्राण अधारा ॥२॥ किरतु पइआ अध ऊरधी बिनु गिआन बीचारा ॥ बिनु उपमा जगदीस की बिनसै न अंधिआरा ॥३॥ जगु बिनसत हम देखिआ लोभे अहंकारा ॥ गुर सेवा प्रभु पाइआ सचु मुकति दुआरा ॥४॥ निज घरि महलु अपार को अपर्मपरु सोई ॥ बिनु सबदै थिरु को नही बूझै सुखु होई ॥५॥ किआ लै आइआ ले जाइ किआ फासहि जम जाला ॥ डोलु बधा कसि जेवरी आकासि पताला ॥६॥ गुरमति नामु न वीसरै सहजे पति पाईऐ ॥ अंतरि सबदु निधानु है मिलि आपु गवाईऐ ॥७॥ नदरि करे प्रभु आपणी गुण अंकि समावै ॥ नानक मेलु न चूकई लाहा सचु पावै ॥८॥१॥१७॥ {पन्ना 228} पद्अर्थ: गोइली = ग्वाला, गाएं चराने वाला, गायों का रखवाला। राखहि = तू रक्षा करता है। सारा = संभाल, ध्यान। अहि = दिन। निसि = रात। आतम सुखु = आत्मिक आनंद। धारा = धरता है, देता है।1। इत उत = लोक परलोक में, यहाँ वहाँ। तउ = तेरी। सरणागति = शरण आए हैं। नदरि निहाला = मेहर की निगाह से देख।1। रहाउ। देखउ = देखूँ, मैं देखता हूँ। रवि रहे = तू व्यापक है। भुगता = भोगने वाला।2। किरतु = किए कर्मों का संग्रह। पइआ = इकट्ठा हुआ। किरत पइआ = किए कर्मों के इकट्ठे हुए संस्कारों के अनुसार। अध = अधस्, नीचे। ऊरधी = ऊपर। उपमा = उस्तति।3। बिनसत = विनाश होते हुए, आत्मिक मौत मरते हुए। मुकति = विकारों से मुक्ति।4। निज घरि = अपने घर में, अपने हृदय में, अपने आप में। महलु = ठिकाना। को = का। अपरंपरु = परे से परे। थिरु = (अपने आप में) टिका हुआ।5। लै = ले कर। ले = ले के। फासहि = तू फंस रहा है। कसि = कस के। आकासि = आकाश में।6। पति = इज्जत। सहजे = सहज ही, अडोल अवस्था में (टिक के)। निधानु = खजाना। मिलि = मिल के। आपु = स्वै भाव।7। अंकि = (प्रभू के) अंक में, जॅफी में, गले मिल के। न चूकई = नहीं खत्म होता।8। अर्थ: हे दीनों पर दया करने वाले प्रभू!लोक परलोक में (मेरी) रक्षा कर। (मैं) तेरी शरण आया हूँ, मेहर की निगाह से (मेरी ओर) देख!।1। रहाउ। जैसे ग्वाला गायों की रक्षा करता है, वैसे ही तू संभाल करके (जीवों की) रक्षा करता है, तू दिन रात जीवों को पालता है, रक्षा करता है और, आत्मिक सुख बख्शता है।1। हे राखनहार प्रभू! मैं जिधर देखता हूँ, उधर ही (हर जगह) तू मौजूद है, और सब का रक्षक है, तू स्वयं ही जीवों को दातें देने वाला है और (सब जीवों में व्यापक हो के) खुद ही भोगने वाला है, तू ही सबकी जिंदगी का आसरा है।2। (इस) ज्ञान के बिना, विचार के बिना, जीव अपने किए कर्मों के इकट्ठे हुए संस्कारों के तहत कभी पाताल में गिरता है और कभी आकाश की ओर चढ़ता है (कभी दुखी तो कभी सुखी)। प्रभू की सिफत सालाह किए बिना जीव की अज्ञानता नहीं मिटती।3। रोजाना देखते हैं कि जगत लोभ व अहंकार के वश हो के आत्मिक मौत मरता रहता है। गुरू की बताई सेवा करने से सदा स्थिर प्रभू मिल जाता है, और (लोभ व अहंकार से) मुक्ति का रास्ता मिल जाता है।4। बेअंत परमात्मा का ठिकाना अपने आप में है, वह प्रभू (लोभ व अहंकार के प्रभाव से) परे से परे है। कोई भी जीव गुरू के शबद (में जुड़े) बिना (उस स्वरूप में) सदा स्थिर नहीं हो सकता। जो मनुष्य गुरू के शबद को समझता है, उसे आत्मिक आनंद प्राप्त होता है।5। हे जीव! ना तू कोई धन-पदार्थ अपने साथ ले के (जगत में) आया था, और ना ही (यहां से कोई माल धन) ले कर जाएगा। (व्यर्थ ही माया मोह के कारण) जम के जाल में फंस रहा है। जैसे रस्सी से बंधा हुआ डोल (कभी कूएं में जाता है कभी बाहर आ जाता है, वैसे ही तू कभी) आकाश में चढ़ता है कभी पाताल में गिरता है।6। (हे जीव!) अगर गुरू की मति ले कर कभी परमात्मा का नाम ना भूले, तो (नाम की बरकति से) अडोल अवस्था में टिक के (प्रभू के दर पर) इज्जत प्राप्त कर लेते हैं। जिस मनुष्य के हृदय में गुरू का शबद रूपी खजाना है (वह प्रभू को मिल जाता है)। (प्रभू को) मिल के स्वैभाव गवा सकते हैं।7। जिस जीव पर प्रभू अपनी मेहर की नजर करता है (उसे अपने) गुण (बख्शता है, और गुणों की बरकति से वह प्रभू के) अंक में लीन हो जाता है। हे नानक! उस जीव का परमात्मा से बना मिलाप कभी टूटता नहीं, वह जीव प्रभू की सिफत सालाह कमा लेता हैं8।1।17। नोट: अंक नं:१ बताता है ‘गउड़ी बैरागणि’ रागणी में गुरू नानक देव जी की ये पहली अष्टपदी है। ‘गउड़ी गुआरेरी’ की १६ मिला के कुल जोड़ १७ बन गया है। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |