श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गउड़ी महला १ ॥ गुर परसादी बूझि ले तउ होइ निबेरा ॥ घरि घरि नामु निरंजना सो ठाकुरु मेरा ॥१॥ बिनु गुर सबद न छूटीऐ देखहु वीचारा ॥ जे लख करम कमावही बिनु गुर अंधिआरा ॥१॥ रहाउ ॥ अंधे अकली बाहरे किआ तिन सिउ कहीऐ ॥ बिनु गुर पंथु न सूझई कितु बिधि निरबहीऐ ॥२॥ खोटे कउ खरा कहै खरे सार न जाणै ॥ अंधे का नाउ पारखू कली काल विडाणै ॥३॥ सूते कउ जागतु कहै जागत कउ सूता ॥ जीवत कउ मूआ कहै मूए नही रोता ॥४॥ {पन्ना 229}

पद्अर्थ: बेझि ले = समझ ले। तउ = तब। निबेरा = निर्णय, खलासी, माया के मोह के अंधेरे से निजात। घरि घरि = हरेक हृदय घर में। ठाकुरु = पालणहार, मालिक।1।

न छूटीअै = (माया के मोह के अंधकार से) खलासी नहीं होती। जे कमावही = अगर तू कमाए, अगर तू करे। अंधिआरा = अंधेरा, आत्मिक अंधेरा, माया के प्रभाव का अंधकार।1। रहाउ।

अकली बाहरे = अक्ल से खाली। किआ तिन सिउ कहीअै = उन्हें समझाने का कोई लाभ नहीं। पंथु = (जीवन का सीधा) रास्ता। कितु बिधि निरबहीअै = (सही जीवन = राह के राही का उनके साथ) किसी तरह भी निर्बाह नहीं हो सकता, साथ नहीं निभ सकता।2।

कहै = कहता है। सार = कद्र, कीमत। पारखू = समझदार। विडाणै = आश्चर्य का। कली काल विडाणै = आश्चर्यजनक कलिजुग का हाल। आश्चर्य माया में फंसी दुनिया का हाल ।3।

(नोट: सतिगुरू जी ये नहीं कह रहे कि कोई एक युग किसी दूसरे युग से अच्छा है या बुरा। माया में मोह जगत का जिक्र है। जिस समय का नाम ब्राहमण ने कलियुग रख दिया था, उसी में आने के कारण आप शब्द ‘जगत’ की जगह ‘कली काल’ बरत रहे हैं)।

सूते कउ = (माया के मोह में) सोए हुए को। जागतु = सुचेत। जागत कउ = उसे जो प्रभू नाम में जुड़ के माया के हमलों से सुचेत हैं। मूआ = दुनिया के मतलब का गया गुजरा।4।

अर्थ: (माया के मोह ने जीवों की आत्मिक आँखों के आगे अंधकार खड़ा कर दिया है, हे भाई!) विचार करके देख लो, गुरू के शबद के बिना (इस आत्मिक अंधेरे से) खलासी नहीं हो सकती। (हे भाई!) अगर तू लाखों ही धर्म-कर्म करता रहे, तो भी गुरू की शरण आए बिना ये आत्मिक अंधेरा (टिका ही रहेगा)।1। रहाउ।

(हे भाई!) अगर तू गुरू की कृपा से ये बात समझ ले कि माया रहित प्रभू का नाम हरेक हृदय-घर में बसता है और वही निरंजन मेरा भी पालनहार मालिक है, तो माया के प्रभाव से पैदा हुए आत्मिक अंधेरे में से तुझे निजात मिल जाएगी।1।

जिन लोगों को माया के मोह ने अंधा कर दिया है और बुद्धि हीन कर दिया है, उन्हें ये समझाने का कोई लाभ नहीं। गुरू की शरण के बिना उन्हे जीवन का सही रास्ता मिल नहीं सकता, सही जीवन-राह के राही का उनके साथ किसी तरह का भी साथ नहीं निभ सकता।2।

माया के मोह में अंधा हुआ मनुष्य उस धन को जिसका प्रभू की दरगाह में कोई मूल्य नहीं है, असल धन कहता है। पर (जो नाम-धन) असल धन (है उस) की कद्र ही नहीं समझता। माया में अंधे हुए मनुष्य को समझदार कहा जा रहा है - ये आश्चर्यजनक चाल है दुनिया के समय की।3।

माया की मोह की नींद में सोए हुए को जगत कहता है कि ये जागता है सुचेत है, पर जो मनुष्य (परमातमा की याद में) जागता है सुचेत है, उसको कहता है कि ये सोया हुआ है। प्रभू की भक्ति की बरकति से जीते आत्मिक जीवन वाले को जगत कहता है कि हमारे लिए तो मरा हुआ है। पर आत्मिक मौत मरे हुए को देख के कोई अफसोस नहीं करता।4।

आवत कउ जाता कहै जाते कउ आइआ ॥ पर की कउ अपुनी कहै अपुनो नही भाइआ ॥५॥ मीठे कउ कउड़ा कहै कड़ूए कउ मीठा ॥ राते की निंदा करहि ऐसा कलि महि डीठा ॥६॥ चेरी की सेवा करहि ठाकुरु नही दीसै ॥ पोखरु नीरु विरोलीऐ माखनु नही रीसै ॥७॥ इसु पद जो अरथाइ लेइ सो गुरू हमारा ॥ नानक चीनै आप कउ सो अपर अपारा ॥८॥ सभु आपे आपि वरतदा आपे भरमाइआ ॥ गुर किरपा ते बूझीऐ सभु ब्रहमु समाइआ ॥९॥२॥१८॥ {पन्ना 229}

पद्अर्थ: पर की कउ = उस माया को जो पराए की बन जानी है। भाइआ = भाया, अच्छा लगा।5।

राते की = नाम रंग में रंगे हुए की। करहि = करते हैं। कलि महि = जगत में।6।

चेरी = परमात्मा की दासी, माया। दीसै = दिखता। पोखरु = छप्पड़। नीरु = पानी। विरोलीअै = अगर मंथन करें। नही रीसै = नहीं निकलता।7।

पद = आत्मिक दर्जा। अरथाइ लेइ = यत्न से हासिल कर ले। चीनै = परखे, पहचाने। अपर = माया के प्रभाव से परे। अपारा = जिसके गुणों का पार न पाया जा सके।8।

सभु = हर जगह। आपे = (प्रभू) स्वयं ही। भरमाइआ = भुलेखे में डाला। ते = से, साथ।9।

अर्थ: परमात्मा के रास्ते पर आने वाले को जगत कहता है कि ये गया गुजरा है, पर प्रभू की ओर से गए गुजरे को जगत समझता है कि इसी का जगत में आना सफल हुआ है। जिस माया ने दूसरे की बन जाना है उसे जगत अपनी कहता है, पर जो नाम-धन असल में अपना है वह अच्छा नहीं लगता।5।

नाम-रस और सारे रसों से मीठा है, इसको जगत कड़वा कहता है। विषियों का रस (अंत को) कड़वा (दुखदाई साबत होता) है, इसे जगत स्वादिष्ट कह रहा है। प्रभू के नाम-रंग में रंगे हुए की लोग निंदा करते हैं। जगत में ये आश्चर्यजनक तमाशा देखने में आ रहा है।6।

लोग परमात्मा की दासी (माया) की तो सेवा खुशामद कर रहे हैं, पर (माया का) मालिक किसी को दिखता ही नहीं। (माया में से सुख ढूँढना इस तरह है जैसे पानी मथ के उसमें से मक्खन ढूँढना)। यदि छप्पड़ को मथें, अगर पानी को मथें, उसमें से मक्खन नहीं निकल सकता।7।

हे नानक! जो मनुष्य अपनी अस्लियत को पहिचान लेता है, वह उस परमात्मा का रूप बन जाता है जो माया के प्रभाव से परे है और जिसके गुणों का परला छोर नहीं मिल सकता। स्वै-पहिचान के आत्मिक दर्जे को मनुष्य प्राप्त कर लेता है, मैं उसके आगे अपना सिर झुकाता हूँ।8।

(पर माया में और जीवों में) हर जगह परमात्मा स्वयं ही स्वयं व्यापक है, खुद ही जीवों को गलत राह पर डालता है। गुरू की मेहर से ही ये समझ पड़ती है कि परमातमा हरेक जगह मौजूद है।9।2।18।

रागु गउड़ी गुआरेरी महला ३ असटपदीआ    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मन का सूतकु दूजा भाउ ॥ भरमे भूले आवउ जाउ ॥१॥ मनमुखि सूतकु कबहि न जाइ ॥ जिचरु सबदि न भीजै हरि कै नाइ ॥१॥ रहाउ ॥ सभो सूतकु जेता मोहु आकारु ॥ मरि मरि जमै वारो वार ॥२॥ सूतकु अगनि पउणै पाणी माहि ॥ सूतकु भोजनु जेता किछु खाहि ॥३॥ सूतकि करम न पूजा होइ ॥ नामि रते मनु निरमलु होइ ॥४॥ सतिगुरु सेविऐ सूतकु जाइ ॥ मरै न जनमै कालु न खाइ ॥५॥ सासत सिम्रिति सोधि देखहु कोइ ॥ विणु नावै को मुकति न होइ ॥६॥ जुग चारे नामु उतमु सबदु बीचारि ॥ कलि महि गुरमुखि उतरसि पारि ॥७॥ साचा मरै न आवै जाइ ॥ नानक गुरमुखि रहै समाइ ॥८॥१॥ {पन्ना 229}

पद्अर्थ: सूतकु = किसी बालक के जन्म से किसी के घर में पैदा हुई अपवित्रता। भाउ = प्यार। दूजा भाउ = परमात्मा को बिसार के माया आदि के साथ डाला हुआ प्यार। अवउ जाउ = जनम मरण का चक्कर।1।

मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। सबदि = शबद में। भीजै = भीगता है, पतीजता। नाइ = नाम में।1। रहाउ।

सभो = सारा ही। जेता = जितना ही। आकारु = ये दिखाई देता जगत। वारो वार = बार बार।2।

माहि = में। जेता किछु = जितना कुछ।3।

सूतकि = अपवित्रता के कारण। नामि = नाम में।4।

सेविअै = अगर सेवा की जाए, अगर शरण ली जाए। जाइ = दूर होता है। कालु = मौत, आत्मिक मौत।5।

सोधि देखहु = विचार के देख लो। को = कोई मनुष्य। मुकति = सूतक से खलासी।6।

जुग चारे = चारों युगों में, सदा ही। सबदु बीचारि = गुरू के शबद को विचार के। कलि महि = इस समय में भी जिसे कलिजुग कह रहे हैं। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ा मनुष्य (ही)।7।

साचा = सदा कायम रहने वाला। न आवै जाइ = आता जाता नहीं, पैदा होता मरता नहीं। गुरमुखि = गुरू की शरण में रहने वाला मनुष्य।8।

अर्थ: (हे भाई!) जब तक (मनुष्य गुरू के) शबद में नहीं पतीजता, परमात्मा के नाम में नहीं जुड़ता (तब तक मनुष्य अपने मन के पीछे चलता है, और) अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (के मन) की अपवित्रता कभी दूर नहीं होती।1। रहाउ।

(हे भाई!परमात्मा को भुला के माया आदि) के साथ डाला प्यार मन की अपवित्रता (का कारण बनता) है (इस अपवित्रता के कारण माया की) भटकना में गलत रास्ते पर पड़े हुए मनुष्य को जनम मरण का चक्र बना रहता है।1।

(हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य के लिए) ये जितना ही जगत है, जितना ही जगत का मोह है ये सारा अपवित्रता (का मूल) है, वह मनुष्य (इस आत्मिक मौत में) मर मर के बारंबार पैदा होता रहता है।2।

(मनमुखों के वास्ते) आग में, हवा में, पानी में भी अपवित्रता ही है, जितना कुछ भोजन आदि वो खाते हैं वह भी (उनके मन के वास्ते) अपवित्रता (का कारण ही बनता) है।3।

(हे भाई!) सूतक (के भ्रम में ग्रसे हुए मन को) कोई कर्म-कांड पवित्र नहीं कर सकते। कोई देव-पूजा पवित्र नहीं कर सकती। परमात्मा के नाम में रंगे जा के ही मन पवित्र होता है।4।

(हे भाई!) अगर सतिगुरू का आसरा लिया जाए तो मन की अपवित्रता दूर हो जाती है, (गुरू की शरण में रहने वाला मनुष्य) ना मरता है ना पैदा होता है, ना ही उसे आत्मिक मौत खाती है।5।

(हे भाई!बेशक) कोई स्मृतियों-शास्त्रों को भी विचार के देख लो। परमात्मा के नाम के बिना कोई मनुष्य मानसिक अपवित्रता से खलासी नहीं पा सकता।6।

(हे भाई!) चारों युगों में गुरू के शबद को विचार के (परमात्मा का) नाम (जप के ही मनुष्य) उत्तम बन सकता है। इस युग में भी जिसे कलियुग कहा जा रहा है वही मनुष्य (विकारों के समुंद्रों से) पार लांघता है जो गुरू की शरण पड़ता है।7।

हे नानक! गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य उस परमात्मा में सदा लीन रहता है जो सदा कायम रहने वाला है और जो कभी पैदा होता मरता नहीं (इस तरह उस मनुष्य को कोई अपवित्रता छू नहीं सकती)।8।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh