श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गउड़ी महला ३ ॥ गुरमुखि सेवा प्रान अधारा ॥ हरि जीउ राखहु हिरदै उर धारा ॥ गुरमुखि सोभा साच दुआरा ॥१॥ पंडित हरि पड़ु तजहु विकारा ॥ गुरमुखि भउजलु उतरहु पारा ॥१॥ रहाउ ॥ गुरमुखि विचहु हउमै जाइ ॥ गुरमुखि मैलु न लागै आइ ॥ गुरमुखि नामु वसै मनि आइ ॥२॥ गुरमुखि करम धरम सचि होई ॥ गुरमुखि अहंकारु जलाए दोई ॥ गुरमुखि नामि रते सुखु होई ॥३॥ आपणा मनु परबोधहु बूझहु सोई ॥ लोक समझावहु सुणे न कोई ॥ गुरमुखि समझहु सदा सुखु होई ॥४॥ {पन्ना 230}

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरू की ओर मुँह करके। हिरदै = हृदय में। उर = हृदय। साच दुआरा = सदा स्थिर रहने वाले हरी के दर पर।1।

पंडित = हे पण्डित! पढ़ = पढ़। भउजल = संसार समुंद्र।1। रहाउ।

विचहु = मन में से। मनि = मन में।2।

सचि = सदा स्थिर प्रभू में। दोई = द्वैत, मेर तेर। नामि = नाम में।3।

परबोधहु = जगाओ। सोई = उस परमात्मा को।4।

अर्थ: हे पंडित!परमात्मा की सिफत सालाह पढ़ (और इसकी बरकति से अपने अंदर से) विकार छोड़। (हे पंडित!) गुरू की शरण पड़ कर तू संसार समुंद्र से पार लांघ जाएगा।1। रहाउ।

(हे पंडित!) गुरू के सन्मुख हो के परमात्मा की सेवा भक्ति को अपने जीवन का आसरा बना। परमात्मा को अपने हृदय में अपने मन में टिका के रख, (हे पंडित!) गुरू की शरण पड़ कर तू सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के दर पर आदर मान हासिल करेगा।1।

(हे पंडित!) गुरू की शरण पड़ने से मन में से अहंकार दूर हो जाता है, गुरू की शरण पड़ने से (मन के अहंकार की) मैल आ के नहीं चिपकती, (क्योंकि) गुरू की शरण पड़ने से परमात्मा का नाम मन में आ बसता है।2।

(हे पंडित!) गुरू के सन्मुख रहने से सदा स्थिर परमात्मा में लीनता हो जाती है (और यही है असली) कर्म-धर्म। जो गुरू की शरण पड़ता है वह (अपने अंदर से) अहंकार व मेर तेर जला देता है। प्रभू के नाम में रंगे जा के गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य को आत्मिक आनंद प्राप्त होता है।3।

(हे पंडित! पहले) अपने मन को जगाओ और उस परमात्मा की हस्ती को समझो। (हे पण्डित! तुम्हारा अपना मन माया के मोह में सोया पड़ा है, पर) तुम लोगों को शिक्षा देते हो (इस तरह कभी) कोई मनुष्य (शिक्षा) नहीं सुनता। गुरू की शरण पड़ कर तुम खुद (सही जीवन मार्ग को) समझो, तुम्हें सदा आत्मिक आनंद मिलेगा।4।

मनमुखि ड्मफु बहुतु चतुराई ॥ जो किछु कमावै सु थाइ न पाई ॥ आवै जावै ठउर न काई ॥५॥ मनमुख करम करे बहुतु अभिमाना ॥ बग जिउ लाइ बहै नित धिआना ॥ जमि पकड़िआ तब ही पछुताना ॥६॥ बिनु सतिगुर सेवे मुकति न होई ॥ गुर परसादी मिलै हरि सोई ॥ गुरु दाता जुग चारे होई ॥७॥ गुरमुखि जाति पति नामे वडिआई ॥ साइर की पुत्री बिदारि गवाई ॥ नानक बिनु नावै झूठी चतुराई ॥८॥२॥ {पन्ना 230}

पद्अर्थ: मनमुखि = अपने मन की ओर मुंह रखने वाला मनुष्य। डंफु = दिखावा। थाइ = जगह में। थाइ न पाई = परवान नहीं होता। ठउर = ठिकाना, टिकने वाली जगह।5।

बग = बगला। जमि = जम ने।6।

मुकति = (डंफु की ओर से) खलासी। परसादी = प्रसादि, कृपा से। दाता = हरि नाम की दात देने वाला। जुग चारे = चारों युगों में, सदा ही।7।

जाति पाति = जात पात, जात व कुल। नामे = नाम में ही। साइर = समुंद्र। साइर की पुत्री = समुंद्र की बेटी, समुंद्र से पैदा हुई (जब देवताओं ने समुंद्र मंथन किया था), माया। बिदारि = चीर फाड़ के।8।

अर्थ: (हे पंडित!) अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (धार्मिक) दिखावा करता है, बड़ी चतुराई दिखाता है। (पर जो कुछ वह) खुद (अमली जीवन) कमाता है वह (परमात्मा की नजरों में) परवान नहीं होता, वह मनुष्य जनम मरण के चक्कर में पड़ा रहता है, उसे आत्मिक शांति की कोई जगह नहीं मिलती।5।

अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (अपनी ओर से धार्मिक) कर्म करता है (पर) इस तरह उसके अंदर बहुत गुरूर पैदा होता है, वह सदा बगुले की तरह ही समाधि लगा के बैठता है। वह तभी पछताएगा जब मौत ने (उसे सिर से) आ जकड़ा।6।

(हे पण्डित!) सतिगुरू की शरण पड़े बिना (दंभ आदि से) खलासी नहीं होती। गुरू की कृपा से ही वह (घट-घट की जानने वाला) परमात्मा मिलता है। (हे पण्डित! सतियुग कलियुग कह कह के किसी युग के जिम्मे बुराई लगा के गलती ना कर) चारों युगों में गुरू ही परमात्मा के नाम की दाति देने वाला है।7।

(हे पंडित!) गुरू की शरण पड़ने वाले मनुष्य के लिए हरी-नाम ही ऊँची जाति है, ऊँचा कुल है, परमात्मा के नाम में वह अपनी इज्जत मानता है। नाम की बरकति से ही उसने माया का प्रभाव (अपने अंदर से) काट के परे रख दिया है।

हे नानक! (कह– हे पंडित!) परमात्मा के नाम से वंचित रह कर और और चतुराईयां दिखानी व्यर्थ हैं।8।2।

गउड़ी मः ३ ॥ इसु जुग का धरमु पड़हु तुम भाई ॥ पूरै गुरि सभ सोझी पाई ॥ ऐथै अगै हरि नामु सखाई ॥१॥ राम पड़हु मनि करहु बीचारु ॥ गुर परसादी मैलु उतारु ॥१॥ रहाउ ॥ वादि विरोधि न पाइआ जाइ ॥ मनु तनु फीका दूजै भाइ ॥ गुर कै सबदि सचि लिव लाइ ॥२॥ हउमै मैला इहु संसारा ॥ नित तीरथि नावै न जाइ अहंकारा ॥ बिनु गुर भेटे जमु करे खुआरा ॥३॥ सो जनु साचा जि हउमै मारै ॥ गुर कै सबदि पंच संघारै ॥ आपि तरै सगले कुल तारै ॥४॥ {पन्ना 230}

पद्अर्थ: जुग = मानस जीवन, संसार। धमु = कर्तव्य, फर्ज। भाई = हे भाई!पूरै गुरि = पूरे गुरू ने। पाई = दे दी है। अैथै = इस लोक में। अगै = परलोक में। सखाई = साथी।1।

मनि = मन में। परसादी = प्रसादि, कृपा से। उतारु = उतार, दूर कर।1। रहाउ।

वादि = वाद-विवाद से, झगड़े से, धार्मिक बहिस से। विरोधि = विरोध से, खण्डन करने से। फीका = बेरस, रूखा, आत्मिक रस विहीन। दूजै भाइ = परमात्मा के बिना किसी और के प्यार में।2।

तीरथि = तीर्थ पर। नावै = नहाए, स्नान करता है। बिनु गुर भेटे = गुरू को मिले बगैर। जम = मौत, आत्मिक मौत।3।

जि = जो। सबदि = शबद के द्वारा। पंच = कामादिक पाँचों को। संघारै = मार देता है।4।

अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा (की सिफत सालाह) पढ़ो, (अपने) मन में (परमात्मा के गुणों का) विचार करो, (इस तरह) गुरू की कृपा से (अपने मन में से विकारों की) मैल दूर करो।1। रहाउ।

हे भाई! इस मानस जन्म के कर्तव्य पढ़ो (अर्थात, ये सीखो कि मानस जन्म में जीवन सफल करने के लिए क्या प्रयास करने चाहिए)। (हे भाई! जो मनुष्य गुरू की शरण आ पड़ा है) पूरे गुरू ने उसे ये सूझ दी कि इस लोक में और परलोक में परमात्मा का नाम (ही असल) साथी है।1।

(हे भाई! किसी धार्मिक) बहिस करने से (या किसी धर्म का) खण्डन करने से परमात्मा का नाम प्राप्त नहीं होता (इस तरह परमात्मा के नाम की लगन से टूट के) और ही स्वादों में पड़ा मन आत्मिक जीवन से वंचित हो जाता है, शरीर (हृदय) आत्मिक जीवन विहीन हो जाता है। गुरू के शबद के द्वारा (ही मनुष्य) सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा में लगन जोड़ सकता है।2।

(हे भाई!गुरू को मिले बिना) ये जगत (भाव, दुनिया का ये मनुष्य) अहम् (के विकार) से मलीन (-मन) हो जाता है। सदा तीर्थों पर स्नान भी करता है (पर इस तरह इसके मन का) अहंकार दूर नहीं होता, गुरू को मिले बगैर आत्मिक मौत इसे ख्वार करती रहती है।3।

(हे भाई!) जो मनुष्य गुरू के शबद द्वारा (अपने अंदर से) अहंकार को दूर कर लेता है (कामादिक) पाँचों विकारों को खत्म कर देता है, वह मनुष्य सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा का रूप हो जाता है, वह खुद (संसार समुंद्र में से) पार लांघ जाता है और अपने सारे कुलों को भी पार लंघा लेता है।4।

माइआ मोहि नटि बाजी पाई ॥ मनमुख अंध रहे लपटाई ॥ गुरमुखि अलिपत रहे लिव लाई ॥५॥ बहुते भेख करै भेखधारी ॥ अंतरि तिसना फिरै अहंकारी ॥ आपु न चीनै बाजी हारी ॥६॥ कापड़ पहिरि करे चतुराई ॥ माइआ मोहि अति भरमि भुलाई ॥ बिनु गुर सेवे बहुतु दुखु पाई ॥७॥ नामि रते सदा बैरागी ॥ ग्रिही अंतरि साचि लिव लागी ॥ नानक सतिगुरु सेवहि से वडभागी ॥८॥३॥ {पन्ना 230}

पद्अर्थ: मोहि = मोह से। नटि = नट ने, प्रभू-नट ने। बाजी = जगत रचना की बाजी। अलिपत = अलिप्त, निर्लिप। लिव = लगन।5।

भेख = धार्मिक पहरावे। भेखधारी = धार्मिक पोशाक का धारणी, धार्मिक पहरावे को ही धर्म समझने वाला। तिसना = तृष्णा, माया की प्यास। आपु = अपने आप को। चीनै = परखता है।6।

कापड़ = धार्मिक पहरावे। भरमि = भटकना में। भुलाई = गलत राह पर पड़ा रहता है।7।

नामि = नाम में। बैरागी = वैरागवान, विरक्त, माया के प्रभाव से बचे हुए। ग्रिही अंतरि = गृह ही अंतरि, घर के अंदर ही। साचि = सदा स्थिर प्रभू में। से = वह लोग।8।

अर्थ: (हे भाई! जैसे जब कोई नट बाजी डालता है तो लोग तमाशा देखने आ इकट्ठे होते हैं, वैसे ही) (प्रभू) नट ने माया के मोह से ये (जगत रचना का) तमाशा रच दिया है। (इसे देख देख के) अपने मन के पीछे चलने वाले (माया के मोह में) अंधे हुए मनुष्य (इस तमाशे के साथ) चिपक रहे हैं। पर, गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य (प्रभू चरणों में) सुरति जोड़ के (इस तमाशे से) निर्लिप रहते हैं।5।

(हे भाई !) निरे धार्मिक पहिरावे को ही धर्म समझने वाला मनुष्य विभिन्न तरह की धार्मिक वेश-भूषाएं पहनता है (पर उसके) अंदर (माया की) तृष्णा (बनी रहती है) वह अहंकार में ही विचरता है। वह अपने जीवन को नहीं परखता (इस वास्ते) वह मनुष्य-जनम की बाज़ी हार जाता है।6।

(हे भाई!) जो मनुष्य निरे धार्मिक पहिरावे करके ही चतुराई (भरी बातें) करता है (कि मैं धार्मिक हूँ, पर अंदर से) माया के मोह के कारण बहुत भटकना में फंस के गलत राह पर पड़ा रहता है, वह मनुष्य गुरू की शरण ना आने के कारण बहुत दुख पाता है।7।

(हे भाई!) जो मनुष्य परमात्मा के नाम में रंगे रहते हैं, वे सदैव वैरागमयी रहते हैं। गृहस्थ में रहते हुए ही उनकी लगन सदा-स्थिर परमात्मा में लगी रहती है। हे नानक! वे मनुष्य बहुत भाग्यशाली हैं, क्योंकि वे गुरू की शरण में रहते हैं।8।3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh