श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 232 गउड़ी महला ३ ॥ त्रै गुण वखाणै भरमु न जाइ ॥ बंधन न तूटहि मुकति न पाइ ॥ मुकति दाता सतिगुरु जुग माहि ॥१॥ गुरमुखि प्राणी भरमु गवाइ ॥ सहज धुनि उपजै हरि लिव लाइ ॥१॥ रहाउ ॥ त्रै गुण कालै की सिरि कारा ॥ नामु न चेतहि उपावणहारा ॥ मरि जमहि फिरि वारो वारा ॥२॥ अंधे गुरू ते भरमु न जाई ॥ मूलु छोडि लागे दूजै भाई ॥ बिखु का माता बिखु माहि समाई ॥३॥ माइआ करि मूलु जंत्र भरमाए ॥ हरि जीउ विसरिआ दूजै भाए ॥ जिसु नदरि करे सो परम गति पाए ॥४॥ अंतरि साचु बाहरि साचु वरताए ॥ साचु न छपै जे को रखै छपाए ॥ गिआनी बूझहि सहजि सुभाए ॥५॥ गुरमुखि साचि रहिआ लिव लाए ॥ हउमै माइआ सबदि जलाए ॥ मेरा प्रभु साचा मेलि मिलाए ॥६॥ सतिगुरु दाता सबदु सुणाए ॥ धावतु राखै ठाकि रहाए ॥ पूरे गुर ते सोझी पाए ॥७॥ आपे करता स्रिसटि सिरजि जिनि गोई ॥ तिसु बिनु दूजा अवरु न कोई ॥ नानक गुरमुखि बूझै कोई ॥८॥६॥ {पन्ना 232} पद्अर्थ: त्रैगुण वखाणै = माया के तीनों गुणों की बातें करता है, माया के पसारे की बातों में दिलचस्पी रखता है। भरमु = भटकना। मुकति = (माया के मोह से) आजादी। जुग माहि = जगत में, जिंदगी में।1। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर। सहज धुनि = आत्मिक अडोलता की रौंअ।1। रहाउ। सिरि कारा = सिर पर दबाव। कालै की = मौत की, आत्मिक मौत की। वारो वारा = बार बार।2। ते = से, के द्वारा। मूलु = जगत का मूल प्रभू। दूजै भाई = माया के प्यार में। बिखु = जहर (माया का मोह जो आत्मिक जीवन को खत्म कर देता है)।3। मूलु = आसरा। करि = कर के, ठान के। जंत्र = जीव (जंतु का बहुवचन)। गति = आत्मिक अवस्था। परम गति = सबसे ऊँची अवस्था।4। अंतरि = हृदय में। बाहरि = जगत से। बरतण = बर्ताव करते हुए। साचु = सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाऐ = प्रेम में।5। साचि = सदा स्थिर प्रभू में। सबदि = शबद के द्वारा। मेलि = मेल में।6। धावतु = (माया के पीछे) दौड़ते मन को। ठाकि = रोक के। ते = से।7। स्रिसटि = सृष्टि, दुनिया। सिरजि = पैदा करके। गोई = नाश की। जिनि = जिस (करतार) ने।8। अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है, वह अपने मन की भटकना दूर कर लेता है, उसके अंदर आत्मिक अडोलता की रौंअ पैदा हो जाती है (क्योंकि, गुरू की कृपा से) वह परमात्मा में सुरति जोड़े रखता है।1। रहाउ। (पर, हे भाई!) जो मनुष्य माया के पसारे की बातों में दिलचस्पी रखता है, उसके मन की भटकना दूर नहीं हो सकती, उसके (माया के मोह के) बंधन नहीं टूटते। उसे (माया के मोह से) आजादी प्राप्त नहीं होती। (हे भाई!) जगत में माया के मोह से निजात देने वाला (सिर्फ) गुरू (ही) है।1। (हे भाई!) माया के पसारे में दिलचस्पी रखने वालों के सिर पर (सदा) आत्मिक मौत का हुकम चलता है, वे सृजनहार परमात्मा का नाम कभी याद नहीं करते, वह बार बार (जगत में) पैदा होते हैं, मरते हैं, पैदा होते हैं मरते हैं।2। (पर, हे भाई! माया के मोह में खुद) अंधे हुए गुरू से (शरण आए सेवक के मन की) भटकना दूर नहीं हो सकती। (ऐसे गुरू की शरण पड़ के तो मनुष्य बल्कि) जगत के मूल करतार को छोड़ के माया के मोह में फसते हैं। (आत्मिक मौत पैदा करने वाली माया के) जहर में मस्त हुआ मनुष्य उस जहर में ही मस्त रहता है।3। (अभागी) मनुष्य माया को (जिंदगी का) आसरा बना के (माया की खातिर ही) भटकते रहते हैं, माया के प्यार के कारण उन्हें परमात्मा भूला रहता है। (पर, हे भाई!) जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर की निगाह करता है, वह मनुष्य सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल कर लेता है (जहाँ माया का मोह छू नहीं सकता)।4। (हे भाई! जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है, गुरू उस के) हृदय में सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा का प्रकाश कर देता है। जगत से बरतते हुए भी सारे जगत में उसको सदा स्थिर प्रभू दिखा देता है। (जिस मनुष्य के अंदर-बाहर प्रभू का प्रकाश हो जाए), वह जो इस (मिली दात) को छुपा के रखने का यत्न करे, तो भी सदा-स्थिर प्रभू (का प्रकाश) छुपता नहीं। परमात्मा के साथ गहरी सांझ रखने वाले मनुष्य आत्मिक अडोलता में (टिक के) प्रभू प्रेम में जुड़ के (इस अस्लियत को) समझ लेते हैं।5। (हे भाई!) गुरू की शरण पड़ने वाला मनुष्य सदा कायम रहने वाले परमात्मा में अपनी सुरति जोड़े रखता है, गुरू के शबद की बरकति से वह (अपने अंदर से) अहंकार और माया (का मोह) जला लेता है। (इस तरह) सदा स्थिर रहने वाला प्यारा प्रभू उसे अपने चरणों में मिलाए रखता है।6। (हे भाई! परमात्मा के नाम की) दाति देने वाला सतिगुरू जिस मनुष्य को अपना शबद सुनाता है, वह माया के पीछे भटकते अपने मन को (माया के मोह से) बचा लेता है, रोक के काबू कर लेता है।7। हे नानक! (कह–हे भाई!) गुरू की शरण पड़ने वाला कोई (विरला भाग्यशाली) मनुष्य ये समझ लेता है कि उस परमात्मा के बगैर कोई अन्य (सदा स्थिर रहने वाला) नहीं है जो स्वयं ही सृजक है जिस ने स्वयं ये सृष्टि पैदा करके स्वयं ही (अनेकों बार) नाश की।8।6। गउड़ी महला ३ ॥ नामु अमोलकु गुरमुखि पावै ॥ नामो सेवे नामि सहजि समावै ॥ अम्रितु नामु रसना नित गावै ॥ जिस नो क्रिपा करे सो हरि रसु पावै ॥१॥ अनदिनु हिरदै जपउ जगदीसा ॥ गुरमुखि पावउ परम पदु सूखा ॥१॥ रहाउ ॥ हिरदै सूखु भइआ परगासु ॥ गुरमुखि गावहि सचु गुणतासु ॥ दासनि दास नित होवहि दासु ॥ ग्रिह कुट्मब महि सदा उदासु ॥२॥ जीवन मुकतु गुरमुखि को होई ॥ परम पदारथु पावै सोई ॥ त्रै गुण मेटे निरमलु होई ॥ सहजे साचि मिलै प्रभु सोई ॥३॥ मोह कुट्मब सिउ प्रीति न होइ ॥ जा हिरदै वसिआ सचु सोइ ॥ गुरमुखि मनु बेधिआ असथिरु होइ ॥ हुकमु पछाणै बूझै सचु सोइ ॥४॥ {पन्ना 232} पद्अर्थ: अमोलक = जो किसी भी मूल्य में ना मिल सके। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। नामो = नाम ही। नामि = नाम के द्वारा। सहजि = आत्मिक अडोलता मे। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला। रसना = जीभ से।1। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। हिरदै = हृदय में। जपउ = मैं जपता हूँ। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के। पावउ = मैं प्राप्त करता हूँ। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा।1। रहाउ। परगासु = प्रकाश। सचु = सदा स्थिर रहने वाला प्रभू। गुणतास = गुणों का खजाना। ग्रिह = घर। कुटंब = परिवार।2। मुकतु = माया के बंधनों से आजाद। को = कोई विरला। सहजे = आत्मिक अडोलता में टिक के। साचि = सदा स्थिर प्रभू में (जुड़े रहने करके)।3। कुटंब सिउ = कुटंब के साथ। जा = जब। बेधिआ = बेधा जाता है। असथिरु = स्थिर, शांत, अडोल, टिका हुआ। सचु = सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा।4। अर्थ: (हे भाई!) मैं हर समय अपने हृदय में जगत के मालिक परमात्मा का नाम जपता हूँ। गुरू की शरण पड़ कर मैंने सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा हासिल कर लिया है, मैं आत्मिक आनंद ले रहा हूँ।1। रहाउ। (हे भाई!) परमात्मा का नाम किसी भी मूल्य में मिल नहीं सकता। वही मनुष्य हासिल करता है जो गुरू की शरण पड़ता है। वह (हर वक्त) नाम ही सिमरता है और नाम से ही आत्मिक अडोलता में टिका रहता है। पर, वही मनुष्य हरी नाम का रस पाता है जिस पर परमात्मा स्वयं कृपा करता है।1। जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ कर गुणों के खजाने सदा स्थिर प्रभू के गुण गाते हैं, उनके हृदय में आत्मिक आनंद बना रहता है, उनके अंदर प्रकाश पैदा हो जाता है, वह सदा परमात्मा के सेवक बने रहते हैं, वह मनुष्य गृहस्थ जीवन में रहते हुए परिवार में रहते हुए भी (माया के मोह से) उपराम रहते हैं।2। (हे भाई!) कोई विरला मनुष्य जो गुरू की शरण पड़ता है दुनिया के कार्य-व्यवहार करता हुआ भी माया के बंधनों से आजाद होता है, वही मनुष्य सारे पदार्थों से श्रेष्ठ नाम-पदार्थ हासिल करता है, वह मनुष्य (अपने अंदर से माया के) तीन गुणों का प्रभाव मिटा लेता है और पवित्रात्मा बन जाता है। आत्मिक अडोलता में सदा स्थिर प्रभू के नाम में जुड़े रहने के कारण उसे वह प्रभू मिल जाता है।3। (हे भाई! जब किसी मनुष्य के हृदय में वह सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा आ बसता है, तो उसका अपने परिवार से) वह मोह प्यार नहीं रहता (जो त्रैगुणी माया में फसाता है)। गुरू की शरण पड़ कर जिस मनुष्य का मन (परमात्मा की याद में) बेधा जाता है और अडोल हो जाता है, वह मनुष्य परमात्मा की रजा को पहिचानता है (परमात्मा के स्वभाव से अपना स्वभाव मिला लेता है) वह मनुष्य उस सदा स्थिर प्रभू को समझ लेता है।4। तूं करता मै अवरु न कोइ ॥ तुझु सेवी तुझ ते पति होइ ॥ किरपा करहि गावा प्रभु सोइ ॥ नाम रतनु सभ जग महि लोइ ॥५॥ गुरमुखि बाणी मीठी लागी ॥ अंतरु बिगसै अनदिनु लिव लागी ॥ सहजे सचु मिलिआ परसादी ॥ सतिगुरु पाइआ पूरै वडभागी ॥६॥ हउमै ममता दुरमति दुख नासु ॥ जब हिरदै राम नाम गुणतासु ॥ गुरमुखि बुधि प्रगटी प्रभ जासु ॥ जब हिरदै रविआ चरण निवासु ॥७॥ जिसु नामु देइ सोई जनु पाए ॥ गुरमुखि मेले आपु गवाए ॥ हिरदै साचा नामु वसाए ॥ नानक सहजे साचि समाए ॥८॥७॥ {पन्ना 232} पद्अर्थ: सेवी = सेवा करूँ, मैं सिमरता हूँ। ते = से। पति = इज्जत। करहि = तू करे। गावा = गाऊँ, मैं गाता रहूँ। लोइ = प्रकाश।5। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के। अंतरु = हृदय (शब्द ‘अंतरि’ और ‘अंतरु’ का फर्क ध्यान रखने योग्य है)। अंतरि = अंदर। अंतरु = अंदर का हृदय। बिगसे = खिल पड़ता है। परसादी = प्रसादि, (गुरू की) कृपा से। पूरे वडभागी = पूरे बड़े भाग्यों से।6। ममता = अपनत्व। दुरमति = खोटी बुद्धि। दुख नास = दुखों का नाश। प्रभ जासु = प्रभू का यश। रविआ = सिमरा।7। देइ = देता है। आपु = स्वैभाव।8। अर्थ: (हे भाई! गुरू की शरण पड़ कर जिस मनुष्य का मन परमात्मा की याद में बेधित हो जाता है, वह ऐसे अरदास करता है– हे प्रभू!) तू ही जगत का पैदा करने वाला है, मुझे तेरे बिना कोई आसरा नहीं दिखता, मैं सदा तेरा ही सिमरन करता हूँ, मुझे तेरे दर से ही इज्जत मिलती है। अगर तू खुद मेहर करे, तो ही मैं तेरी सिफत सालाह कर सकता हूँ। तेरा नाम ही मेरे वास्ते सबसे श्रेष्ठ पदार्थ है, तेरा नाम ही जगत में (आत्मिक जीवन के लिए) प्रकाश (पैदा करने वाला) है।5। (हे भाई!) गुरू की शरण पड़ के जिस मनुष्य को परमात्मा की सिफत सालाह की बाणी मीठी लगने लग पड़ती है, उसका हृदय खिल जाता है, उसकी सुरति हर वक्त (प्रभू चरणों में) जुड़ी रहती है। गुरू की कृपा से आत्मिक अडोलता द्वारा उसे सदा स्थिर प्रभू मिल जाता है। (पर, हे भाई!) गुरू पूरे भाग्यों से बड़े भाग्यों से ही मिलता है।6। (हे भाई!) जब हृदय में परमात्मा का नाम आ बसता है गुणों का खजाना प्रभू आ बसता है, तब अंदर से अहंकार का, अपनत्व का, दुर्मति का, दुखों का नाश हो जाता है। (हे भाई!) जब मनुष्य गुरू की शरण पड़ के अपने हृदय में परमात्मा का नाम सिमरता है, जब प्रभू के चरणों में टिकता है, प्रभू की सिफत सालाह सुनता है तो इसकी बुद्धि उज्जवल हो जाती है।7। हे नानक! वही मनुष्य परमात्मा का नाम हासिल करता है, जिसे परमात्मा स्वयं अपना नाम बख्शता है। जिस मनुष्य को गुरू की शरण पा के प्रभू अपने साथ मिलाता है, वह मनुष्य अपने अंदर से स्वैभाव दूर कर देता है, वह मनुष्य अपने हृदय में सदा स्थिर रहने वाला हरि नाम बसाता है, वह मनुष्य आत्मिक अडोलता में टिका रहता है, सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा में जुड़ा रहता है।8।7। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |