श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 233 गउड़ी महला ३ ॥ मन ही मनु सवारिआ भै सहजि सुभाइ ॥ सबदि मनु रंगिआ लिव लाइ ॥ निज घरि वसिआ प्रभ की रजाइ ॥१॥ सतिगुरु सेविऐ जाइ अभिमानु ॥ गोविदु पाईऐ गुणी निधानु ॥१॥ रहाउ ॥ मनु बैरागी जा सबदि भउ खाइ ॥ मेरा प्रभु निरमला सभ तै रहिआ समाइ ॥ गुर किरपा ते मिलै मिलाइ ॥२॥ हरि दासन को दासु सुखु पाए ॥ मेरा हरि प्रभु इन बिधि पाइआ जाए ॥ हरि किरपा ते राम गुण गाए ॥३॥ ध्रिगु बहु जीवणु जितु हरि नामि न लगै पिआरु ॥ ध्रिगु सेज सुखाली कामणि मोह गुबारु ॥ तिन सफलु जनमु जिन नामु अधारु ॥४॥ ध्रिगु ध्रिगु ग्रिहु कुट्मबु जितु हरि प्रीति न होइ ॥ सोई हमारा मीतु जो हरि गुण गावै सोइ ॥ हरि नाम बिना मै अवरु न कोइ ॥५॥ सतिगुर ते हम गति पति पाई ॥ हरि नामु धिआइआ दूखु सगल मिटाई ॥ सदा अनंदु हरि नामि लिव लाई ॥६॥ गुरि मिलिऐ हम कउ सरीर सुधि भई ॥ हउमै त्रिसना सभ अगनि बुझई ॥ बिनसे क्रोध खिमा गहि लई ॥७॥ हरि आपे क्रिपा करे नामु देवै ॥ गुरमुखि रतनु को विरला लेवै ॥ नानकु गुण गावै हरि अलख अभेवै ॥८॥८॥ {पन्ना 233} पद्अर्थ: मनही = मनि ही, मन में ही, अंतरात्मे ही, अंदर ही अंदर। सवारिआ = सुंदर बना लिया। भै = (परमात्मा के) डर अदब में। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्यार में। सबदि = गुरू शबद के द्वारा। लाइ = लगा के। निजघरि = अपने घर में, प्रभू चरणों में। रजाइ = रजा में।1। सेवीअै = अगर सेवा करे, अगर शरण पड़ें। गुणी निधान = गुणों का खजाना।1। रहाउ। बैरागी = बैरागवान, माया के मोह से बचा हुआ। जा = जब। भउ = डर, ये डर कि परमात्मा सर्व-व्यापक और अंतरयामी है। खाइ = खाता है, आत्मिक खुराक बनाता है। सभतै = हर जगह। ते = से, साथ।2। को = का। इन बिधि = इस तरीके से। ते = से। गाऐ = गाता है।3। बहु जीवन = लंमी उमर, (प्राणयाम आदि से बढ़ाई हुई) लंबी उम्र। जितु = जिससे, यदि उसके द्वारा। नामि = नाम में। ध्रिगु = धिक्कारयोग्य। कामणि = स्त्री। सुखाली = सुख देने वाली, सुखदाई (सुख+आलय)। गुबार = घुप अंधेरा। अधारु = आसरा।4। ग्रिहु = गृहस्थ जीवन, घर। कुटंबं = परिवार।5। ते = से। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। पति = इज्जत।6। गुरि मिलिअै = अगर गुरू मिल जाए। सरीर सुधि = शरीर की सूझ, शरीर को पवित्र रखने की सूझ, शरीर को विकारों से बचा के रखने की समझ। बुझई = समझ गई। गहि लई = पकड़ ली।7। अलख = जिसका स्वरूप समझ में ना आ सके। अभेव = जिसका भेद ना पाया जा सके।8। अर्थ: (हे भाई!) गुरू की शरण पड़ने से (मन में से) अहंकार दूर हो जाता है और गुणों का खजाना परमात्मा मिल जाता है।1। रहाउ। (हे भाई!) जिस मनुष्य ने गुरू के शबद द्वारा (प्रभू के चरणों में) सुरति जोड़ के (अपने) मन को (प्रभू के प्रेम रंग में) रंग लिया है, उसने प्रभू के डर-अदब में टिक के, आत्मिक अडोलता में टिक के, प्रभू प्रेम में जुड़ के अपने मन को अंतरात्मे ही सुंदर बना लिया है, (गृहस्थ त्याग के कहीं बाहर जाने की आवश्यक्ता नहीं पड़ी)। वह मनुष्य प्रभू-चरणों में टिका रहता है, वह मनुष्य प्रभू-रजा में राजी रहता है।1। (हे भाई!) जब (कोई मनुष्य इस) डर को (कि परमात्मा हरेक के अंदर बस रहा है और हरेक के दिल की जानता है, अपनी आत्मा की) खुराक बनाता है, (उस का) मन माया के मोह से उपराम हो जाता है, उसे पवित्र स्वरूप प्यारा प्रभू हर जगह व्यापक दिखाई देता है। वह मनुष्य गुरू की कृपा से (गुरू का) मिलाया हुआ (परमात्मा को) मिल जाता है।2। (हे भाई!) जो मनुष्य परमात्मा के सेवकों का सेवक बन जाता है, वह आत्मिक आनंद पाता है। (हे भाई!) इस तरीके से (ही) प्यारे परमात्मा का मेल प्राप्त होता है। वह मनुष्य परमात्मा की मेहर से परमात्मा के गुण गाता रहता है।3। (हे भाई! प्राणयाम आदि द्वारा बढ़ाई गयी) लम्बी उम्र (बल्कि) धिक्कारयोग्य है, अगर उससे परमात्मा के नाम में (उस लंबी उम्र वाले का) प्यार नहीं बनता। (दूसरी तरफ, हे भाई! सुंदर) स्त्री की सुखदाई सेज (भी) धिक्कारयोग्य है (अगर वह) मोह का गुबार (घोर अंधेरा) (पैदा करती) है। (हे भाई! सिर्फ) उन मनुष्यों का जन्म ही कामयाब है, जिन्होंने परमात्मा के नाम को (अपनी जिंदगी का) आसरा बनाया है।4। (हे भाई!) वह गृहरथ जीवन धिक्कारयोग्य है, वह परिवार (वाला जीवन) धिक्कार योग्य है, जिससे परमात्मा की प्रीति नहीं बनती। (हे भाई!) हमारा तो मित्र वही मनुष्य है, जो उस परमात्मा के गुण गाता है (और हमें भी सिफत सालाह के लिए प्रेरित करता है)। (हे भाई!) परमात्मा के नाम के बगैर मुझे और कोई (सदा साथ निभने वाला साथी) नहीं दिखता।5। (हे भाई!) गुरू से हम उच्च आत्मिक अवस्था प्राप्त कर सकते हैं (जिसकी बरकति से हर जगह) इज्जत मिलती है। (गुरू की शरण में आ के जिसने) परमात्मा का नाम सिमरा है, उसने अपना हरेक किस्म का दुख दूर कर लिया है, वह मनुष्य परमात्मा के नाम में सुरति जोड़ के सदा आनंद पाता है।6। (हे भाई!) अगर गुरू मिल जाए तो हम अपने शरीर को विकारों से बचा के रखने की समझ भी हासिल कर लेते हैं। (जो मनुष्य गुरू की शरण में आता है उसके अंदर से) अहम् व तृष्णा की सारी आग बुझ जाती है, (उसके अंदर से) क्रोध खत्म हो जाता है, वह सदैव क्षमा धारण किए रखता है।7। (पर, हे भाई!) परमात्मा स्वयं ही कृपा करता है, और अपना नाम बख्शता है, कोई विरला (भाग्यशाली) मनुष्य गुरू की शरण पड़ कर ये नाम-रत्न पल्ले बाँधता है। नानक (तो गुरू की कृपा से ही) उस अलख व अभेव परमात्मा के गुण सदा गाता है।8।8। ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु गउड़ी बैरागणि महला ३ ॥ सतिगुर ते जो मुह फेरे ते वेमुख बुरे दिसंनि ॥ अनदिनु बधे मारीअनि फिरि वेला ना लहंनि ॥१॥ हरि हरि राखहु क्रिपा धारि ॥ सतसंगति मेलाइ प्रभ हरि हिरदै हरि गुण सारि ॥१॥ रहाउ ॥ से भगत हरि भावदे जो गुरमुखि भाइ चलंनि ॥ आपु छोडि सेवा करनि जीवत मुए रहंनि ॥२॥ जिस दा पिंडु पराण है तिस की सिरि कार ॥ ओहु किउ मनहु विसारीऐ हरि रखीऐ हिरदै धारि ॥३॥ नामि मिलिऐ पति पाईऐ नामि मंनिऐ सुखु होइ ॥ सतिगुर ते नामु पाईऐ करमि मिलै प्रभु सोइ ॥४॥ सतिगुर ते जो मुहु फेरे ओइ भ्रमदे ना टिकंनि ॥ धरति असमानु न झलई विचि विसटा पए पचंनि ॥५॥ इहु जगु भरमि भुलाइआ मोह ठगउली पाइ ॥ जिना सतिगुरु भेटिआ तिन नेड़ि न भिटै माइ ॥६॥ सतिगुरु सेवनि सो सोहणे हउमै मैलु गवाइ ॥ सबदि रते से निरमले चलहि सतिगुर भाइ ॥७॥ हरि प्रभ दाता एकु तूं तूं आपे बखसि मिलाइ ॥ जनु नानकु सरणागती जिउ भावै तिवै छडाइ ॥८॥१॥९॥ {पन्ना 233-234} पद्अर्थ: ते = से। जो = जो लोग। ते = वह लोग। दिसंनि = दिखते हैं। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। बधे = (माया के मोह के बंधनों में) बंधे हुए। मारीअनि = मारे जाते हैं, मोह की चोटें खाते हैं। वेला = समय (इन चोटों से बच निकलने के वास्ते)। लहंनि = लेते, ढूँढ सकते।1। हरि = हे हरी! धारि = धरण करके। प्रभ = हे प्रभू! सारि = मैं संभालूँ।1। रहाउ। भगत = (वहुवचन)। भाइ = प्रेम में। चलंनि = चलते हैं, जीवन व्यतीत करते हैं। आपु = स्वै भाव। मुऐ = विकारों की ओर से अछोह।2। पिंडु = शरीर। पराण = जिंद, जीवात्मा। सिरि = सिर पर। कार = हकूमत। मनहु = मन से।3। नामि मिलिअै = यदि नाम मिल जाऐ। पति = इज्जत। नामि मंनिअै = अगर मन नाम में पतीज जाए। ते = से। करमि = मेहर से।4। ओइ = (‘ओह’ का बहुवचन)। भ्रमदे = भटकते। झलई = बर्दाश्त करना, सहारा देना। पचंनि = दुखी होते हैं, जलते हैं, आत्मिक जीवन जला लेते हैं।5। भरमि = भटकना में। भुलाइआ = कुराहे डाला हुआ है। ठगउली = ठगबूटी, ठगमूरी। भेटिआ = मिला। माइ = माया। भिटै = फिट बैठती है, ठीक लगती है।6। सेवनि = सेवते हैं। सबदि = शबद में। रते = रंगे हुए। भाइ = प्रेम में।7। प्रभ = हे प्रभू! बखसि = बख्शिश करके। मिलाइ = (अपने चरणों से) जोड़। जनु = दास। सरणागती = शरण आया है। भावै = अच्छा लगे।8। अर्थ: हे हरी! हे हरी!मेहर कर, (मुझे माया के पँजे से) बचा के रख। हे हरी! हे प्रभू! मुझे साध-संगत में मिला के रख, ता कि मैं तेरे गुण अपने हृदय में संभाल के रखूँ।1। रहाउ। (हे भाई!) जो मनुष्य गुरू से मुंह फेरे रखते हैं, गुरू की ओर से बे-मुख हुए वो मनुष्य (देखने को ही भले) बुरे दिखते हैं। (माया के मोह के बंधनों में) बंधे हुए वह मनुष्य हर समय मोह की चोटें खाते रहते हैं, (इन चोटों से बचने के लिए) उन्हें दुबारा समय हाथ नहीं लगेगा, (अर्थात, मार भी खाते रहते हैं, फिर भी ये मोह इतना प्यारा लगता है कि इसमें से निकलने को जीअ नहीं करता)।1। (हे भाई!) परमात्मा को वह भक्त प्यारे लगते हैं, जो गुरू की शरण पड़ कर गुरू के दर्शाए मुताबिक जीवन व्यातीत करते हैं, जो (गुरू के हुकम अनुसार) स्वैभाव (स्वार्थ) छोड़ के सेवा भक्ति करते हैं और दुनिया के कार्य-व्यवहार करते हुए भी माया के मोह की ओर से अछोह रहते हैं।2। (हे भाई!) जिस परमात्मा का दिया हुआ ये शरीर है, जिस परमात्मा की दी हुई ये जिंद है, उसी का हुकम (ही) हरेक के शरीर पर चल रहा है। उसे किसी भी हालत में अपने मन से भुलाना नहीं चाहिए। उस परमात्मा को अपने हृदय में बसा के रखना चाहिए।3। (हे भाई!) अगर परमात्मा का नाम मिल जाए तो (हर जगह) इज्जत मिलती है, अगर परमात्मा के नाम से मन लग जाए तो आत्मिक आनंद हासिल होता है, (पर, हे भाई!) गुरू से ही परमात्मा का नाम मिलता है, अपनी मेहर से ही वह परमात्मा मिलता है।4। (हे भाई!) जो मनुष्य गुरू की ओर से मुंह मोड़े रखते हैं, वो मनुष्य (माया के मोह में सदैव) भटकते फिरते हैं, उन्हें कभी आत्मिक शांति नहीं मिलती। उन्हें ना धरती ना ही आसमान झेल सकता है (सारी सृष्टि में कोई अन्य जीव उन्हें आत्मिक सहारा नहीं दे सकता) वे माया के मोह की गंदगी में पड़े हुए ही आत्मिक जीवन जलाते रहते हैं।5। (हे भाई!माया ने) इस जगत को (अपने मोह की) भटकना में (डाल के) मोह की ठगबूटी खिला के गलत जीवन राह पर डाला हुआ है। (पर, हे भाई!) जिन्हें सतिगुरू मिल जाता है, ये माया उनके नजदीक भी नहीं फटकती (उन पर अपने मोह का जादू नहीं चला सकती)।6। (हे भाई!) जो मनुष्य सतिगुरू की शरण पड़ते हैं वह (अपने अंदर से) अहंकार की मैल दूर करके स्वच्छ जीवन वाले बन जाते हैं। जो मनुष्य गुरू के शबद (के रंग) में रंगे जाते हैं, वे पवित्र जीवन वाले हो जाते हैं, वे गुरू के बताए हुकम के अनुसार चलते हैं, (जीवन बिताते हैं)।7। हे हरी! हे प्रभू! सिर्फ तू ही है जो (गुरू के द्वारा अपने नाम की) दात देने वाला है, तू स्वयं ही मेहर करके मुझे अपने चरणों में जोड़। (मैं तेरा) दास नानक तेरी शरण आया हूँ, जैसे तुझे ठीक लगे, मुझे उसी तरह (इस माया के मोह के पँजे से) बचा ले।8।1।9। नोट: अंक 1 बताता है कि ये अष्टपदी ‘गउड़ी बैरागणि’ की है, उससे पहली आठ (8) अष्टपदियां ‘गउड़ी गुआरेरी’ की हैं। कुल जोड़ 9 है। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |