श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 235

मन करहला तूं चंचला चतुराई छडि विकरालि ॥ हरि हरि नामु समालि तूं हरि मुकति करे अंत कालि ॥६॥ मन करहला वडभागीआ तूं गिआनु रतनु समालि ॥ गुर गिआनु खड़गु हथि धारिआ जमु मारिअड़ा जमकालि ॥७॥ अंतरि निधानु मन करहले भ्रमि भवहि बाहरि भालि ॥ गुरु पुरखु पूरा भेटिआ हरि सजणु लधड़ा नालि ॥८॥ रंगि रतड़े मन करहले हरि रंगु सदा समालि ॥ हरि रंगु कदे न उतरै गुर सेवा सबदु समालि ॥९॥ हम पंखी मन करहले हरि तरवरु पुरखु अकालि ॥ वडभागी गुरमुखि पाइआ जन नानक नामु समालि ॥१०॥२॥ {पन्ना 235}

पद्अर्थ: विकरालि = डरावने (कूएं) में। अंतकालि = आखिरी समय।6।

गुर गिआनि = गुरू का दिया हुआ ज्ञान। खड़गु = तलवार। हथि = हाथ में। जम कालि = जम काल ने, जम के काल ने, आत्मिक मौत को समाप्त करने वाले (ज्ञान-खड़ग) ने।7।

निधानु = खजाना। भ्रमि = भटकना में (पड़ कर)। भेटिआ = मिल पड़ा।8।

रंगि = दुनिया के रंग तमाशे में। रतड़े = मस्त। समालि = संभाल के रख।9।

पंखी = पक्षी। अकालि = अकाल ने।10।

अर्थ: हे बे-मुहार मन! तू कभी कहीं टिक के नहीं बैठता, ये चंचलता ये चालाकी छोड़ दे, (ये चतुराई) भयानक (कूएं) में (गिरा देगी)। (हे बे-मुहार मन!) परमात्मा का नाम सदा याद रख, परमात्मा (का नाम) ही अंत समय (माया के मोह के जाल से) खलासी दिलवाता है।6।

हे बे-मुहार मन! परमात्मा के साथ गहरी सांझ (एक) रत्न (है, इसे) तू संभाल के रख, और बहुत भाग्यशाली बन। गुरू का दिया हुआ ज्ञान (गुरू के द्वारा परमात्मा के साथ डाली हुई गहरी सांझ, एक) तलवार है (खड़ग है), (जिस मनुष्य ने ये तलवार अपने) हाथ में पकड़ ली, उसने (आत्मिक) मौत को मारने वाले (इस ज्ञान-खड़ग) के द्वारा जम को (मौत के सहम को, आत्मिक मौत को) मार डाला।7।

हे बे-मुहार मन! (परमात्मा का नाम-) खजाना (तेरे) अंदर है, पर तू भटकना में पड़ के बाहर ढॅूँढता फिरता है। (हे मन!) परमात्मा का रूप गुरू जिस मनुष्य को मिल जाता है, वह मनुष्य सज्जन परमात्मा को अपने साथ बसता (अंदर ही) ढूँढ लेता है।8।

(माया के मोह के) रंग में रंगे हुए हे बे-मुहारे मन! परमात्मा का प्रेम रंग सदा (अपने अंदर) संभाल के रख, परमात्मा (के प्यार) का (ये) रंग फिर कभी फीका नहीं पड़ता, (इस वास्ते ये रंग प्राप्त करने के लिए) तू गुरू की शरण पड़, तू गुरू का शबद अपने हृदय में संभाल।9।

हे बे-मुहारे मन! हम जीव पक्षी हैं। अकाल पुरख ने (हमें जगत में भेजा है जैसे कोई वृक्ष पक्षियों के रैन-बसेरा के लिए आसरा होता है, वैसे ही) वह सर्व-व्यापक हरी (हम जीव-पक्षियों का आसरा-) वृक्ष है। हे दास नानक! (कह–हे मन!) गुरू के द्वारा परमात्मा का नाम हृदय में संभाल के बहुत भाग्यशाली (जीव-पक्षियों) ने वह आसरा हासिल किया है।10।2।

नोट: गुरू रामदास साहिब जी के ये दो “करहले” अष्टपदियों में ही शामिल हैं। इन अष्टपदियों का शीर्षक उन्होंने ‘करहले’ रखा है क्योंकि इनके हरेक बंद में सतिगुरू जी ने मन को ‘करहल’ से उपमा दे के संबोधन किया है।

रागु गउड़ी गुआरेरी महला ५ असटपदीआ
ੴ सतिनामु करता पुरखु गुर प्रसादि ॥

जब इहु मन महि करत गुमाना ॥ तब इहु बावरु फिरत बिगाना ॥ जब इहु हूआ सगल की रीना ॥ ता ते रमईआ घटि घटि चीना ॥१॥ सहज सुहेला फलु मसकीनी ॥ सतिगुर अपुनै मोहि दानु दीनी ॥१॥ रहाउ ॥ जब किस कउ इहु जानसि मंदा ॥ तब सगले इसु मेलहि फंदा ॥ मेर तेर जब इनहि चुकाई ॥ ता ते इसु संगि नही बैराई ॥२॥ जब इनि अपुनी अपनी धारी ॥ तब इस कउ है मुसकलु भारी ॥ जब इनि करणैहारु पछाता ॥ तब इस नो नाही किछु ताता ॥३॥ जब इनि अपुनो बाधिओ मोहा ॥ आवै जाइ सदा जमि जोहा ॥ जब इस ते सभ बिनसे भरमा ॥ भेदु नाही है पारब्रहमा ॥४॥ {पन्ना 235}

पद्अर्थ: जब = जब। इहु = ये जीव। गुमाना = मान, अहंकार। बावरु = झल्ला, कमला। बिगाना = बेगाना। रीना = चरणों की धूड़। ता ते = तब से। रमईआ = सोहणा राम। चीना = पहचान लिया। घटि घटि = हरेक शरीर में।1।

सहज = आत्मिक अडोलता। सुहेला = आसान, सुखी। मसकीनी = गरीबी स्वभाव, आजजी। अपुनै = अपने ने। मोहि = मुझे।1। रहाउ।

किस कउ = किसी को। सगले = सारे (मनुष्य)। फंदा = जाल, फरेब। इनहि = इसने। चुकाई = खत्म कर दी। बैराई = वैर।2।

इनि = इस ने। धारी = मन में टिकाव के लिए। अपुनी अपनी-अपनी ही गर्ज (मतलब)। इस कउ = इसे (शब्द ‘इसु’ की ‘ु’ संबंधक ‘कउ’ के कारण हट गई है) इस को। इस नो = (शब्द ‘इसु’ की ‘ु’ संबंधक ‘नो’ के कारण हट गई है)। ताता = जलन ईष्या।3।

बाधिओ = बाँध लिया, पक्का कर लिया। जमि = यम ने। आत्मिक मौत ने। जोहा = निगाह में रखा। इस ते = इससे (शब्द ‘इसु’ की ‘ु’ संबंधक ‘नो’ के कारण हट गई)। भेदु = फर्क।4।

अर्थ: (हे भाई!) मेरे गुरू ने मुझे (गरीबी स्वभाव की) दाति बख्शी। उस गरीबी स्वभाव का फल ये हुआ है कि मुझे आत्मिक अडोलता मिल गई, मैं सुखी हूँ।1। रहाउ।

(हे भाई!) जब मनुष्य (अपने) मन में (बड़े होने का) मान करता है तब (वह अहंकार में) बावरा (हुआ) मनुष्य (सब लोगों से) अलग अलग हो के चलता फिरता है, पर जब ये सब लोगों की चरणधूड़ हो गया, तब इसने सोहणे राम को हरेक शरीर में देख लिया।1।

जब तक मनुष्य हर किसी को बुरा समझता है तब तक (इसे ऐसा प्रतीत होता है कि) सारे लोग इसके वास्ते (ठॅगी के) जाल बिछा रहे हैं, पर जब इसने (अपने अंदर से) भेद भाव दूर कर दिया, तब (इसे) यकीन बन जाता है कि (कोई) इसके साथ वैर नहीं कर रहा।2।

जब तक मनुष्य के (मन में) अपना ही मतलब टिकाए रखा, तब तक इसे बड़ी मुश्किल बनी रहती है। पर जब इसने (हर जगह) सृजनहार को ही (बसता) पहिचान लिया, तब इसे (किसी से) कोई जलन नहीं रह जाती।3।

जब तक इस मनुष्य ने (दुनिया से) अपना मोह पक्का किया हुआ है, तब तक ये भटकता रहता है, आत्मिक मौत ने (तब तक) सदा इसे अपनी ताक में रखा हुआ है। पर जब इसके अंदर से सारी भटकने खत्म हो जाती हैं, तब इसमें और परमात्मा में कोई दूरी नहीं रह जाती।4।

जब इनि किछु करि माने भेदा ॥ तब ते दूख डंड अरु खेदा ॥ जब इनि एको एकी बूझिआ ॥ तब ते इस नो सभु किछु सूझिआ ॥५॥ जब इहु धावै माइआ अरथी ॥ नह त्रिपतावै नह तिस लाथी ॥ जब इस ते इहु होइओ जउला ॥ पीछै लागि चली उठि कउला ॥६॥ करि किरपा जउ सतिगुरु मिलिओ ॥ मन मंदर महि दीपकु जलिओ ॥ जीत हार की सोझी करी ॥ तउ इसु घर की कीमति परी ॥७॥ करन करावन सभु किछु एकै ॥ आपे बुधि बीचारि बिबेकै ॥ दूरि न नेरै सभ कै संगा ॥ सचु सालाहणु नानक हरि रंगा ॥८॥१॥ {पन्ना 235}

पद्अर्थ: भेदा = दूरियां, अलगाव। अरु = और (शब्द ‘अरु’ व ‘अरि’)। खेदा = कष्ट। ऐको ऐकी = एक परमात्मा को ही। सभ किछु = हरेक ठीक जीवन जुगति।5।

धावै = दौड़ता है। अरथी = जरूरतमंद (हो के), मुथाज। तिस = तृष्णा। जउला = परे, अलग। कउला = माया लक्ष्मी।6।

जउ = जब। दीपक = दीया। जलिओ = जल पड़ा। कीमति = कद्र।7।

ऐको = एक परमात्मा ही। आपे = स्वयं ही। बीचारि = विचार के। बिबेकै = परखता है। रंगा = सब चोज तमाशे करने वाला।8।

अर्थ: जब तक इस मनुष्य ने (दूसरों से) कोई दूरियां मिथ रखीं हैं, तब तक इसकी आत्मा को दुखों कलेशों की सजाएं मिलती रहती हैं, पर जब इसने (हर जगह) एक परमात्मा को ही बसता समझ लिया, तब इसे (सही जीवन जुगति का) हरेक तरीका समझ आ जाता है।5।

जब तक ये मनुष्य माया का मुहताज हो के (हर तरफ) भटकता फिरता है, तब तक ये तृप्त नहीं होता। इसकी माया वाली तृष्णा खत्म नहीं होती। जब ये मनुष्य माया के मोह से अलग हो जाता है, तब माया इसके पीछे पीछे चल पड़ती है। (माया इसकी दासी बन जाती है)।6।

जब (किसी मनुष्य को) गुरू मेहर करके मिल जाता है, उसके मन में ज्ञान हो जाता है, जैसे घर में दीपक जल पड़ता है (और घर की हरेक चीज दिखाई देने लग पड़ती है) तब मनुष्य को समझ आ जाती है कि मानस जन्म में दरअसल जीत क्या है और हार क्या, तब इसे अपने शरीर की कद्र मालूम हो जाती है (और इसे विकारों में नहीं बर्बाद करता)।7।

हे नानक! (जीव बिचारे के क्या वश?) सिर्फ परमात्मा ही (हरेक जीव में व्यापक हो के) सब कुछ कर रहा है और वह प्रभू खुद ही (हरेक जीव को) अक्ल (बख्शता है), खुद ही (हरेक जीव में व्यापक हो के) विचार के (जीवन जुगति को) परखता है। वह परमात्मा किसी से दूर नहीं बसता, सब के नजदीक बसता है, सब के साथ बसता है। वह प्रभू सदा स्थिर रहने वाला है, वही सब चोज तमाशे करने वाला है, वही सराहनीय है।8।1।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh