श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 236 गउड़ी महला ५ ॥ गुर सेवा ते नामे लागा ॥ तिस कउ मिलिआ जिसु मसतकि भागा ॥ तिस कै हिरदै रविआ सोइ ॥ मनु तनु सीतलु निहचलु होइ ॥१॥ ऐसा कीरतनु करि मन मेरे ॥ ईहा ऊहा जो कामि तेरै ॥१॥ रहाउ ॥ जासु जपत भउ अपदा जाइ ॥ धावत मनूआ आवै ठाइ ॥ जासु जपत फिरि दूखु न लागै ॥ जासु जपत इह हउमै भागै ॥२॥ जासु जपत वसि आवहि पंचा ॥ जासु जपत रिदै अम्रितु संचा ॥ जासु जपत इह त्रिसना बुझै ॥ जासु जपत हरि दरगह सिझै ॥३॥ जासु जपत कोटि मिटहि अपराध ॥ जासु जपत हरि होवहि साध ॥ जासु जपत मनु सीतलु होवै ॥ जासु जपत मलु सगली खोवै ॥४॥ जासु जपत रतनु हरि मिलै ॥ बहुरि न छोडै हरि संगि हिलै ॥ जासु जपत कई बैकुंठ वासु ॥ जासु जपत सुख सहजि निवासु ॥५॥ जासु जपत इह अगनि न पोहत ॥ जासु जपत इहु कालु न जोहत ॥ जासु जपत तेरा निरमल माथा ॥ जासु जपत सगला दुखु लाथा ॥६॥ जासु जपत मुसकलु कछू न बनै ॥ जासु जपत सुणि अनहत धुनै ॥ जासु जपत इह निरमल सोइ ॥ जासु जपत कमलु सीधा होइ ॥७॥ गुरि सुभ द्रिसटि सभ ऊपरि करी ॥ जिस कै हिरदै मंत्रु दे हरी ॥ अखंड कीरतनु तिनि भोजनु चूरा ॥ कहु नानक जिसु सतिगुरु पूरा ॥८॥२॥ {पन्ना 236} पद्अर्थ: ते = से, साथ। गुर सेवा ते = गुरू की सेवा से, गुरू की शरण पड़ने से। नामे = नाम में। जिसु मसतकि = जिसके माथे पर। हिरदै = हृदय में। सोइ = वह परमात्मा। निहचलु = अडोल।1। मन = हे मन! ईहा = इस जिंदगी में। ऊहा = परलोक में। तेरै कामि = तेरे काम, तेरे वास्ते लाभदायक।1। रहाउ। जासु जपत = जिसका नाम जपते हुए। अपदा = मुसीबत, बिपदा। धावत = विकारों की ओर दौड़ता। ठाइ = जगह पर, ठिकाने। न लागै = छू नहीं सकता।2। वसि = काबू में। संचा = एकत्र कर लेते हैं। अंम्रितु = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। सिझै = कामयाब हो जाता है।3। कोटि = करोड़ों। साध = भले मनुष्य। सगली = सारी। खोवै = नाश कर लेता है।4। बहुरि = दुबारा, फिर कभी। हिल = गिझ जाता है। सहजि = आत्मिक अडोलता में।5। कालु = मौत, आत्मिक मौत, मौत का सहम। जोहत = देख सकता। निरमल = साफ, रौशन।6। सुणि = सुने, सुनता है। अनहत = (अन+आहत् = बिनाबजाए बजने वाली) एक रस, लगातार। धुनै = धुनि, आवाज, आत्मिक आनंद की रौंअ। सोइ = शोभा। कमलु = कमल फूल रूपी हृदय। सीधा = सीधा।7। गुरि = गुरू ने। द्रिसटि = दृष्टि, नजर। सभ ऊपरि = सब से बढ़िया। मंत्रु दे हरी = हरी के नाम का मंत्र देता है। तिनि = उस मनुष्य ने। चूरा = चूरी, चूरमा।8। अर्थ: हे मेरे मन!तू परमात्मा की ऐसी सिफत सालाह करता रह, जो तेरी इस जिंदगी में भी काम आए, और परलोक में भी तेरे काम आए।1। रहाउ। (पर, हे मेरे मन!) वह मनुष्य ही परमात्मा के नाम में जुड़ता है जो गुरू की शरण पड़ता है (गुरू की शरण पड़ा मनुष्य हरी नाम में जुड़ता है, और गुरू) उस मनुष्य को मिलता है जिसके माथे के भाग्य जाग जाएं। (फिर) उस मनुष्य के हृदय में वह परमात्मा आ बसता है, उसका मन और शरीर (हृदय) ठण्डा ठार हो जाता है, विकारों की तरफ से अडोल हो जाता है।1। (हे मेरे मन! तू उस परमात्मा की सिफत सालाह करता रह) जिसका नाम जप के हरेक किस्म का डर दूर हो जाता है, हरेक बिपदा टॅल जाती है, विकारों की तरफ दौड़ता मन ठहर जाता है, जिसका नाम जपने से फिर कोई दुख छू नहीं सकता, और अंदर से अहंकार दूर हो जाता है।2। जिसका नाम जपने से (कामादिक) पाँचों विकार काबू आ जाते हैं, आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल हृदय में इकट्ठा कर सकते हैं, माया की प्यास बुझ जाती है और परमात्मा की दरगाह में भी कामयाब हो जाते हैं।3। (हे भाई! तू उस परमात्मा की सिफत सालाह करता रह) जिसका नाम जपने से (पिछले किए हुए) करोड़ों पाप मिट जाते हैं, तथा (आगे के लिए) भले मनुष्य बन जाते हैं, जिसका नाम जपने से मन (विकारों की तपश से) ठण्डा शीतल हो जाता है और अपने अंदर की (विकारों की) सारी मैल दूर कर लेता है।4। जिस का जाप करने से मनुष्य को हरि नाम रत्न प्राप्त हो जाता है, (सिमरन की बरकति से) मनुष्य परमात्मा के साथ इतना रच-मिच जाता है कि (प्राप्त किए हुए उस नाम-रत्न को) दुबारा नहीं छोड़ता, जिसका नाम जपने से आत्मिक आनंद मिलता है आत्मिक अडोलता में ठिकाना मिल जाता है, तथा, मानो जैसे, अनेकों बैकुंठों का निवास हासिल हो जाता है।5। (हे भाई!तू उस परमात्मा की सिफत सालाह करता रह) जिसका नाम जपने से तृष्णा की आग छू नहीं सकेगी, मौत का सहम नजदीक नहीं फटकेगा (आत्मिक मौत अपना जोर नहीं डाल पाएगी), हर जगह तू उज्जवल-मुख रहेगा, और तेरा हरेक किस्म का दुख दूर हो जाएगा।6। (हे भाई! तू उस परमात्मा की सिफत सालाह करता रह) जिसका नाम जपने से (मनुष्य के जीवन सफर में) कोई मुश्किल नहीं बनती, मनुष्य एक-रस आत्मिक आनंद के गीत की धुनि सुनता रहता है (मनुष्य के अंदर हर वक्त आत्मिक आनंद की रौंअ चली रहती है), जिसका नाम जपने से मनुष्य का कमल रूपी हृदय (विकारों से पलट के, परमात्मा की याद की तरफ) सीधा हो जाता है, और मनुष्य (लोक-परलोक में) पवित्र शोभा कमाता है।7। हे नानक! कह– (हे भाई! गुरू) जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का नाम जपने का उपदेश बसाता है उस मनुष्य पर गुरू ने (जैसे) सबसे बढ़िया किस्म की मेहर की नजर कर दी। जिस मनुष्य को पूरा गुरू मिल पड़ा, उसने परमात्मा की एक-रस सिफत सालाह को अपनी आत्मा के लिए स्वादिष्ट भोजन बना लिया।8।2। गउड़ी महला ५ ॥ गुर का सबदु रिद अंतरि धारै ॥ पंच जना सिउ संगु निवारै ॥ दस इंद्री करि राखै वासि ॥ ता कै आतमै होइ परगासु ॥१॥ ऐसी द्रिड़ता ता कै होइ ॥ जा कउ दइआ मइआ प्रभ सोइ ॥१॥ रहाउ ॥ साजनु दुसटु जा कै एक समानै ॥ जेता बोलणु तेता गिआनै ॥ जेता सुनणा तेता नामु ॥ जेता पेखनु तेता धिआनु ॥२॥ सहजे जागणु सहजे सोइ ॥ सहजे होता जाइ सु होइ ॥ सहजि बैरागु सहजे ही हसना ॥ सहजे चूप सहजे ही जपना ॥३॥ सहजे भोजनु सहजे भाउ ॥ सहजे मिटिओ सगल दुराउ ॥ सहजे होआ साधू संगु ॥ सहजि मिलिओ पारब्रहमु निसंगु ॥४॥ सहजे ग्रिह महि सहजि उदासी ॥ सहजे दुबिधा तन की नासी ॥ जा कै सहजि मनि भइआ अनंदु ॥ ता कउ भेटिआ परमानंदु ॥५॥ सहजे अम्रितु पीओ नामु ॥ सहजे कीनो जीअ को दानु ॥ सहज कथा महि आतमु रसिआ ॥ ता कै संगि अबिनासी वसिआ ॥६॥ सहजे आसणु असथिरु भाइआ ॥ सहजे अनहत सबदु वजाइआ ॥ सहजे रुण झुणकारु सुहाइआ ॥ ता कै घरि पारब्रहमु समाइआ ॥७॥ सहजे जा कउ परिओ करमा ॥ सहजे गुरु भेटिओ सचु धरमा ॥ जा कै सहजु भइआ सो जाणै ॥ नानक दास ता कै कुरबाणै ॥८॥३॥ {पन्ना 236-237} पद्अर्थ: रिद अंतरि = हृदय में। संगु = साथ। निवारै = हटा लेता है। वासि = वश में। परगासु = प्रकाश।1। द्रिढ़ता = दृढ़ता, मजबूती, मानसिक ताकत। ता कै = उस मनुष्य के अंदर। जा कउ = जिससे।1। दुसटु = वैरी। जेता = जितना भी। तेता = उतना ही। पेखनु = देखना।2। सहजे = आत्मिक अडोलता में। सोइ = सोता है। होता जाइ = होता जाता है। बैरागु = शक पैदा करने वाली घटना। चूप = चुप। जपना = बोलना।3। दुराउ = छुपाना, कपट भाव। निसंगु = प्रत्यक्ष।4। दुबिधा = मेर-तेर। सहजि = आत्मिक अडोलता के द्वारा। मनि = मन में। परमानंदु = ऊँचे आनंद का मालिक, परमात्मा।5। पीओ = पीता। जीअ को = आत्मिक जीवन का। को = का। आतमु = अपना आप। रसिआ = रच-मिच गया।6। आसणु = ठिकाना। भाइआ = अच्छा लगा। अनहत = एक रस। रुणझुणकार = आत्मिक आनंद की एक रस रौंअ। घरि = घर में।7। करमा = करम, बख्शिश। परिओ करमा = मेहर हुई। भेटिओ = मिल पड़ा सहजु = आत्मिक अडोलता।8। अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य पर परमात्मा की दया होती है, कृपा होती है, उस मनुष्य के हृदय में ऐसा आत्मिक बल पैदा होता है, कि।1। रहाउ। वह मनुष्य अपने हृदय में गुरू का शबद बसाता है, कामादिक पाँचों विकारों से अपना साथ हटा लेता है, दसों ही इंद्रियों को अपने काबू में कर लेता हैऔर उसकी आत्मा में प्रकाश हो जाता है (उसे आत्मिक जीवन की समझ आ जाती है)।1। (हे भाई!) जिस मनुष्य को अपने हृदय में मित्र और वैरी एक जैसे ही प्रतीत होते हैं, जितना कुछ वह बोलता है, आत्मिक जीवन की सूझ के बारे में बोलता है, जितना कुछ सुनता है, परमात्मा की सिफत सालाह ही सुनता है, जितना कुछ देखता है, परमात्मा में सुरति जोड़ने के कारण ही बनता है।2। वह मनुष्य चाहे जागता है, चाहे सोया हुआ है, वह सदा आत्मिक अडोलता में ही टिका रहता है; परमात्मा की रजा में जो कुछ होता है, उसे ठीक मानता है, और आत्मिक अडोलता में ही लीन रहता है; कोई गमी की घटना हो जाए, चाहे खुशी का कारण बने, वह आत्मिक अडोलता में ही रहता है; अगर वह चुप बैठा है तो भी अडोलता में है और अगर बोल रहा है तो भी अडोलता में है।3। आत्मिक अडोलता में टिका हुआ ही वह खाने-पीने का व्यवहार करता है, आत्मिक अडोलता में ही वह दूसरों के साथ प्रेम भरा सलूक करता है; आत्मिक अडोलता में टिके रहने के कारण उसके अंदर से सारा कपट-भाव मिट जाता है; आत्मिक अडोलता में ही उसे गुरू का मिलाप हो जाता है, और प्रत्यक्ष तौर पर उसे परमात्मा मिल जाता है।4। अगर वह घर में है तो भी आत्मिक अडोलता में, अगर वह दुनिया से उपराम फिरता है तो भी आत्मिक अडोलता में टिके रहने के कारण उसके हृदय में से मेर-तेर दूर हो जाती है। (हे भाई!) आत्मिक अडोलता के कारण जिस मनुष्य के मन में आनंद पैदा होता है उसे वह परमात्मा मिल जाता है जो सबसे ऊँचे आत्मिक आनंद का मालिक है।5। वह मनुष्य आत्मिक अडोलता में टिक के नाम-अमृत पीता रहता है, इस आत्मिक अडोलता की बरकति से वह (औरों को भी) आत्मिक जीवन की दाति देता है। आत्मिक अडोलता पैदा करने वाली प्रभू की सिफत सालाह की बातों में उसकी जिंद घुली-मिली रहती है, उसके दिल में अविनाशी परमात्मा आ बसता है।6। आत्मिक अडोलता में उसका सदा-टिकने वाला ठिकाना बना रहता है और उसे वह ठिकाना अच्छा लगता है, आत्मिक अडोलता में टिक के ही वह अपने अंदर एक-रस सिफत सालाह की बाणी प्रबल किए रखता है, आत्मिक अडोलता के कारण ही उसके अंदर आत्मिक आनंद की एक-रस रौंअ सुहानी बनी रहती है। (हे भाई!) उसके हृदय में परमात्मा सदा प्रगट रहता है।7। (हे भाई!) जिस मनुष्य पर परमात्मा की कृपा होती है वह आत्मिक अडोलता में टिकता है, उसे गुरू मिलता है, सदा स्थिर नाम के सिमरन को वह अपना धर्म बना लेता है। (पर ये सहज अवस्था बयान नहीं की जा सकती) जिस मनुष्य के अंदर ये आत्मिक अडोलता पैदा होती है, वही मनुष्य उसे समझ सकता है, दास नानक उस (भाग्यशाली मनुष्य) से कुर्बान जाता है।8।3। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |