श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 237 गउड़ी महला ५ ॥ प्रथमे गरभ वास ते टरिआ ॥ पुत्र कलत्र कुट्मब संगि जुरिआ ॥ भोजनु अनिक प्रकार बहु कपरे ॥ सरपर गवनु करहिगे बपुरे ॥१॥ कवनु असथानु जो कबहु न टरै ॥ कवनु सबदु जितु दुरमति हरै ॥१॥ रहाउ ॥ इंद्र पुरी महि सरपर मरणा ॥ ब्रहम पुरी निहचलु नही रहणा ॥ सिव पुरी का होइगा काला ॥ त्रै गुण माइआ बिनसि बिताला ॥२॥ गिरि तर धरणि गगन अरु तारे ॥ रवि ससि पवणु पावकु नीरारे ॥ दिनसु रैणि बरत अरु भेदा ॥ सासत सिम्रिति बिनसहिगे बेदा ॥३॥ तीरथ देव देहुरा पोथी ॥ माला तिलकु सोच पाक होती ॥ धोती डंडउति परसादन भोगा ॥ गवनु करैगो सगलो लोगा ॥४॥ {पन्ना 237} पद्अर्थ: प्रथमे = पहले। गरभ वास ते = माँ के पेट में बसने से। टरिआ = टला, खलासी हासिल करता है। कलत्र = स्त्री। जुरिआ = जुड़ा रहता है, मोह में फंसा रहता है। कपरे = कपड़े। सरपर = जरूर। गवनु = गमन, प्रस्थान, चलाणा। बपुरे = बिचारे, यतीमों की तरह।1। कवनु = कौन सा? न टरै = नाश नहीं होता। जितु = जिससे। दुरतमि = खोटी बुद्धि। हरै = दूर होती है।1। रहाउ। इंद्र पुरी = वह पुरी जिसे इंद्र देवते का राज माना जाता है। ब्रहमपुरी = ब्रहमा की पुरी। मरणा = मौत। काल = नाश। बिनसि = नाश होता है। बिताला = बे ताला, ताल के बगैर।2। गिरि = पहाड़। तर = वृक्ष। धरणि = धरती। गगन = आकाश। अरु = और। रवि = सूर्य। ससि = चंद्रमा। पावकु = आग। नीरारे = नीर, पानी। रैणि = रात। भेदा = अलग अलग मर्यादा।3। देव = देवते। देहुरा = देवते का घर, मंदिर। पोथी = पुस्तक। सोच पाक = पवित्र रसोई। पाक = भोजन पकाना। होती = होत्री, आहुति, हवन करने वाले। धोती = नेती धोती कर्म, कपड़े के टुकड़े के साथ मेदे को साफ करने का तरीका। परसादन भोगा = (प्रसाधन = महल) महलों के भोग।4। अर्थ: (हे भाई!) वह कौन सी जगह है जो सदा अटल रहती है (चिरस्थाई है) ? वह कौन सा शबद है जिसकी बरकति से (मनुष्य की) दुर्मति दूर होती है?।1। रहाउ। (हे भाई!) जीव पहले माँ के पेट में बसने से निजात हासिल करता है, (जगत में जन्म लेकर फिर सहजे-सहजे जवानी पे पहुँच के) पुत्र-स्त्री आदि परिवार के मोह में फसा रहता है, कई किस्मों का खाना खाता है, कई किस्मों के कपड़े पहनता है (सारी उम्र इन रंगों में ही मस्त रह के गलत रास्ते पर पड़ा रहता है, पर ऐसे लोग भी) जरूर यतीमों की तरह ही (जगत से) कूच कर जाएंगे।1। (हे भाई! औरों की तो बात ही क्या है?) इंद्र पुरी में मौत अवश्य आती है, ब्रहमपुरी भी सदा अटल नहीं रह सकती, शिवपुरी का भी नाश हो जाएगा। (पर जगत) तीन गुणों वाली माया के असर तहित जीवन के सही राह से विछुड़ के आत्मिक मौत बर्दाश्त करता रहता है।2। (हे भाई!) पहाड़, वृक्ष, धरती, आकाश व तारे, सूरज, चाँद, हवा, आग पानी, दिन और रात; वर्त आदि भिन्न-भिन्न किस्म की मर्यादाएं, वेद, स्मृतियां, शास्त्र--ये सब कुछ आखिर नाश हो जाएंगे।3। (हे भाई!) तीर्थ, देवते, मंदिर, (धर्म-) पुस्तकें; माला, तिलक, स्वच्छ रसोई, हवन करने वाले; (नेती-) धोती व डंडवत-नमस्कारें; (दूसरी तरफ) महलों के भोग विलास- सारा जगत ही (आखिर) कूच कर जाएगा।4। जाति वरन तुरक अरु हिंदू ॥ पसु पंखी अनिक जोनि जिंदू ॥ सगल पासारु दीसै पासारा ॥ बिनसि जाइगो सगल आकारा ॥५॥ सहज सिफति भगति ततु गिआना ॥ सदा अनंदु निहचलु सचु थाना ॥ तहा संगति साध गुण रसै ॥ अनभउ नगरु तहा सद वसै ॥६॥ तह भउ भरमा सोगु न चिंता ॥ आवणु जावणु मिरतु न होता ॥ तह सदा अनंद अनहत आखारे ॥ भगत वसहि कीरतन आधारे ॥७॥ पारब्रहम का अंतु न पारु ॥ कउणु करै ता का बीचारु ॥ कहु नानक जिसु किरपा करै ॥ निहचल थानु साधसंगि तरै ॥८॥४॥ {पन्ना 237} पद्अर्थ: वरन = वर्ण (ब्राहमण, खत्री, वैश्य, शूद्र)। जिंदू = जीव। आकारा = दिखाई देता जगत।5। सहज = आत्मिक अडोलता। ततु = जगत का मूल प्रभू! निहचल = अटल। सचु = सदा कायम रहने वाला। तहा = वहाँ, उस अवस्था में। गुण रसै = गुणों का आनंद लेती है। अनभउ नगरु = वह अवस्था रूप नगर जहाँ कोई डर नहीं व्याप सकता।6। तह = उस अवस्था-नगर में। मिरतु = मौत, मौत का सहम, आत्मिक मौत। अनहत = एक रस। अनंद आखारे = आनंद के एकत्र। आधारे = आसरे।7। ता का = उस (पारब्रहम) का। साध संगि = साध-संगति में।8। अर्थ: (अलग-अलग) जातियों (ब्राहमण, क्षत्रिय आदि) वर्ण, मुसलमान व हिंदू; पशु-पक्षी, अनेकों जूनियों के जीव; ये सारा जगत पसारा जो दिखाई दे रहा है– ये सारा दृष्टमान जगत (आखिर) नाश हो जाएगा।5। (पर, हे भाई!) वह (उच्च आत्मिक अवस्था-) स्थल सदा कायम रहने वाला है अटल है और वहाँ सदा ही आनंद भी है, जहाँ आत्मिक अडोलता देने वाली सिफत सालाह हो रही है जहाँ भक्ति हो रही है, जहाँ जगत के मूल परमात्मा के साथ सांझ पड़ रही है, वहाँ साध-संगति परमात्मा के गुणों का आनंद लेती है, वहाँ सदा एक ऐसा नगर बसा रहता है जहाँ किसी किस्म का कोई डर फटक नहीं सकता।6। (हे भाई!) उस (ऊँची आत्मिक अवस्था-) स्थल में कोई डर, कोई भरम, कोई गम, कोई चिंता नहीं पहुँच सकते, वहाँ जनम मरण का चक्र नहीं रहता, वहाँ आत्मिक मौत नहीं होती, वहाँ सदा एक रस आत्मिक आनंद के (जैसे) अखाड़े लगे रहते हैं, वहाँ भक्त-जन परमात्मा की सिफत सालाह के आसरे बसते हैं।7। (हे भाई! जिस परमात्मा की ये रचना रची हुई है) उस परमात्मा के गुणों का अंत नहीं पड़ सकता, उस पार का छोर नहीं मिल सकता। (जगत में) ऐसा कोई मनुष्य नहीं है, जो उसके गुणों का अंत पाने का विचार कर सके। हे नानक! कह– जिस मनुष्य पर परमात्मा कृपा करता है उसे सदा कायम रहने वाली जगह साध-संगति प्राप्त हो जाती है, साध-संगति में रह कर वह मनुष्य (संसार समुंद्र से) पार लांघ जाता है।8।4। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |