श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 239 गउड़ी महला ५ ॥ बिनु सिमरन जैसे सरप आरजारी ॥ तिउ जीवहि साकत नामु बिसारी ॥१॥ एक निमख जो सिमरन महि जीआ ॥ कोटि दिनस लाख सदा थिरु थीआ ॥१॥ रहाउ ॥ बिनु सिमरन ध्रिगु करम करास ॥ काग बतन बिसटा महि वास ॥२॥ बिनु सिमरन भए कूकर काम ॥ साकत बेसुआ पूत निनाम ॥३॥ बिनु सिमरन जैसे सीङ छतारा ॥ बोलहि कूरु साकत मुखु कारा ॥४॥ बिनु सिमरन गरधभ की निआई ॥ साकत थान भरिसट फिराही ॥५॥ बिनु सिमरन कूकर हरकाइआ ॥ साकत लोभी बंधु न पाइआ ॥६॥ बिनु सिमरन है आतम घाती ॥ साकत नीच तिसु कुलु नही जाती ॥७॥ जिसु भइआ क्रिपालु तिसु सतसंगि मिलाइआ ॥ कहु नानक गुरि जगतु तराइआ ॥८॥७॥ {पन्ना 239} पद्अर्थ: आरजारी = उम्र। सर्प = सांप। जीवहि = जीते हैं। बिसारी = बिसार के।1। निमख = निमेष, आँख झपकने जितना समय। जीआ = जीया गया, गुजारा वक्त। कोटि = करोड़ों। थिरु = कायम। थीआ = हो गया।1। रहाउ। ध्रिगु = धिक्कारयोग्य। काग = कौआ। बतन = वदन, मुंह। बिसटा = गंद, विष्टा।2। कूकर काम = कुत्तों के कामों वाले। साकत = परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य। निनाम = जिनके पिता का नाम नहीं बताया जा सकता।3। सीज्ञ = सींग। छतारा = भेड़। कूरु = झूठ। कारा = काला।4। गरधभ = गदर्भ, गधा। निआई = जैसा। भरिसट भ्रष्ट, गंदे, विकारी। फिराही = फिरते हैं।5। हरकाइआ = पागल हुआ। बंधु = बाँध, रोक।6। आतमघाती = आत्मिक जीवन को नाश करने वाला। जाती = जाति।7। गुरि = गुरू से।8। अर्थ: (हे भाई!) जो एक पलक झपकने मात्र समय भी परमात्मा के सिमरन में गुजारा जाए, वह, मानो, लाखों करोड़ों दिन (जी लिया, क्योंकि सिमरन की बरकति से मनुष्य का आत्मिक जीवन) सदा के लिए अडोल हो जाता है।1। रहाउ। (हे भाई!) जैसे साँप की उम्र है (उम्र तो लंबी है, पर साँप हमेशा दूसरों को डंक ही मारता रहता है) इसी तरह परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य परमात्मा का नाम भुला के सिमरन के बिना (व्यर्थ जीवन ही) जीते हैं (मौका मिलने पर दूसरों को डंक ही मारते हैं)।1। (हे भाई!) प्रभू-सिमरन से विछुड़ के अन्य काम करने धिक्कारयोग्य ही हैं, जैसे कौए की चोंच गंदगी में ही रहती है, वैसे ही सिमरन-हीन मनुष्यों के मुंह (निंदा आदि की) गंदगी में ही रहते हैं।2। (हे भाई!) परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य वैश्याओं के पुत्रों की तरह (निर्लज) हो जाते हैं, जिनके पिता का नाम नहीं बताया जा सकता। प्रभू की याद से टूट के मनुष्य (लोभ व कामादिक में फंस के) कुत्तों जैसे कामों में प्रवृति रहते हैं।3। (हे भाई!) परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य (सदा) झूठ बोलते हैं, हर जगह मुंह की कालिख ही कमाते हैं। परमात्मा की याद से टूट के वह (धरती पर भार ही हैं, जैसे) भेड़ों के सिर पर सींग।4। (हे भाई!) परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य (कुकर्मों वाली) गंदी जगहों पर ही फिरते रहते हैं, सिमरन से टूट के वे गधे जैसी (मलीन जीवन गुजारते हैं, जैसे गधा हमेशा राख-मिट्टी में लेट के खुश होता है)।5। (हे भाई!) ईश्वर से टूटे हुए मनुष्य लोभ में ग्रसे रहते हैं (उनके राह में, लाखों रुपए कमा के भी) रोक नहीं पड़ सकती, सिमरन से टूट के वो, जैसे, पागल कुत्ते बन जाते हैं (जिसका संग करते हैं, उसी को लोभ का पागलपन चिपका देते हैं)।6। (हे भाई!) ईश्वर से टूटा हुआ मनुष्य सिमरन से वंचित रह कर आत्मिक मौत ले लेता है, वह सदा नीच कर्मों में रुची रखता है, उसकी ना ऊँची कुल रह जाती है ना ही ऊँची जाति।7। हे नानक! कह– जिस मनुष्य पर परमात्मा दयावान हो जाता है, उसे साध-संगति में ला के शामिल कर लेता है, और इस तरह जगत को गुरू के द्वारा (संसार समुंद्र के विकारों से) पार लंघाता है।8।7। गउड़ी महला ५ ॥ गुर कै बचनि मोहि परम गति पाई ॥ गुरि पूरै मेरी पैज रखाई ॥१॥ गुर कै बचनि धिआइओ मोहि नाउ ॥ गुर परसादि मोहि मिलिआ थाउ ॥१॥ रहाउ ॥ गुर कै बचनि सुणि रसन वखाणी ॥ गुर किरपा ते अम्रित मेरी बाणी ॥२॥ गुर कै बचनि मिटिआ मेरा आपु ॥ गुर की दइआ ते मेरा वड परतापु ॥३॥ गुर कै बचनि मिटिआ मेरा भरमु ॥ गुर कै बचनि पेखिओ सभु ब्रहमु ॥४॥ गुर कै बचनि कीनो राजु जोगु ॥ गुर कै संगि तरिआ सभु लोगु ॥५॥ गुर कै बचनि मेरे कारज सिधि ॥ गुर कै बचनि पाइआ नाउ निधि ॥६॥ जिनि जिनि कीनी मेरे गुर की आसा ॥ तिस की कटीऐ जम की फासा ॥७॥ गुर कै बचनि जागिआ मेरा करमु ॥ नानक गुरु भेटिआ पारब्रहमु ॥८॥८॥ {पन्ना 239} पद्अर्थ: बचनि = बचनों से, उपदेश की बरकति से। मोहि = मैं। परम गति = सब से ऊँची आत्मिक अवस्था। गुरि = गुरू ने। पैज = लाज।1। मोहि मिलिआ = मुझे मिला। थाउ = स्थान, ठिकाना।1। रहाउ। सुणि = सुन के। रसन = जीभ (से)। वखाणी = मैं बखान करता हूँ। अंम्रित बाणी = आत्मिक जीवन देने वाली सिफति सालाह की बाणी। मेरी = मेरी (राशि पूँजी बन गई है)।2। आपु = स्वैभाव, अहम्। ते = से, साथ।3। भरमु = भटकना। पेखिओ = मैंने देख लिया है। सभु = हर जगह। ब्रहमु = परमात्मा।4। राजु जोगु = राज भी और जोग भी, गृहस्थ में रहते हुए परमात्मा से मिलाप। लोगु = लोक, जगत।5। सिधि = सिद्धि, सफलता, कामयाबी। निधि = खजाना।6। जिनि = जिस ने। कीनी = की, बनाई, धारण की। कटीअै = काटी जाती है।7। करमु = किस्मत, भाग्य। भेटिआ = मिल गया।8। अर्थ: (हे भाई!) गुरू के उपदेश की बरकति से मैंने परमात्मा का नाम सिमरा है, और, गुरू की कृपा से मुझे (परमात्मा के चरणों में) जगह मिल गई है (मेरा मन प्रभू चरणों में टिका रहता है)।1। रहाउ। गुरू के उपदेश पर चल के मैंने सब से ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल कर ली है, (दुनिया के विकारों के मुकाबले से) पूरे गुरू ने मेरी इज्जत रख ली है।1। (हे भाई!) गुरू के उपदेश द्वारा (परमात्मा की सिफत सालाह) सुन के मैं अपनी जीभ से भी सिफत सालाह उचारता रहता हूँ, गुरू की कृपा से आत्मिक जीवन देने वाली सिफत सालाह की बाणी मेरी (राशि पूँजी बन गई है)।2। गुरू के उपदेश की बरकति से (मेरे अंदर से) मेरा स्वैभाव मिट गया है, गुरू की दया से मेरा बड़ा तेज-प्रताप बन गया है (कि कोई विकार अब मेरे नजदीक नहीं फटकता)।3। गुरू के उपदेश पर चल के मेरे मन की भटकना दूर हो गई है, और अब मैंने सर्व-व्यापी परमात्मा देख लिया है।4। गुरू के उपदेश की बरकति से गृहस्थ में रह के ही मैं प्रभू-चरणों का मिलाप सुख पा रहा हूँ। (हे भाई!) गुरू की संगति में (रह के) सारा जगत ही (संसार समुंद्र से) पार हो जाता है।5। (हे भाई!) गुरू के उपदेश पर चल के मेरे सारे कामों में सफलता हो रही है, गुरू के उपदेश से मैंने परमात्मा का नाम हासिल कर लिया है (जो मेरे लिए सब कामयाबियों का) खजाना है।6। (हे भाई!) जिस जिस मनुष्य ने मेरे गुरू की आस (अपने मन में) धारण कर ली है, उसकी जम की फांसी कट गई हैं।7। हे नानक! (कह–) गुरू के उपदेश की बरकति से मेरी किस्मत जाग गई है, मुझे गुरू मिल गया है (और गुरू की मेहर से) मुझे परमात्मा मिल गया है।8।8। गउड़ी महला ५ ॥ तिसु गुर कउ सिमरउ सासि सासि ॥ गुरु मेरे प्राण सतिगुरु मेरी रासि ॥१॥ रहाउ ॥ गुर का दरसनु देखि देखि जीवा ॥ गुर के चरण धोइ धोइ पीवा ॥१॥ गुर की रेणु नित मजनु करउ ॥ जनम जनम की हउमै मलु हरउ ॥२॥ तिसु गुर कउ झूलावउ पाखा ॥ महा अगनि ते हाथु दे राखा ॥३॥ तिसु गुर कै ग्रिहि ढोवउ पाणी ॥ जिसु गुर ते अकल गति जाणी ॥४॥ तिसु गुर कै ग्रिहि पीसउ नीत ॥ जिसु परसादि वैरी सभ मीत ॥५॥ जिनि गुरि मो कउ दीना जीउ ॥ आपुना दासरा आपे मुलि लीउ ॥६॥ आपे लाइओ अपना पिआरु ॥ सदा सदा तिसु गुर कउ करी नमसकारु ॥७॥ कलि कलेस भै भ्रम दुख लाथा ॥ कहु नानक मेरा गुरु समराथा ॥८॥९॥ {पन्ना 239-240} पद्अर्थ: कउ = को। सिमरउ = सिमरूँ, मैं सिमरता हूँ। सासि = साँस से। सासि सासि = हरेक साँस से। प्राण = जिंद, जिंद का आसरा। रासि = राशि, पूँजी, सरमाया।1। रहाउ। देखि देखि = बार बार देख के। जीवा = जीऊँ, मैं जीता हूँ, मुझे आत्मिक जीवन मिलता है। धोइ = धो के। पीवा = पीऊँ, मैं पीता हूँ।1। रेणु = चरण धूड़। मजनु = स्नान। करउ = करूँ, मैं करता हूँ। मलु = मैल। हरउ = मैं दूर करता हूँ।2। झूलावउ = मैं झुलाता हूँ। ते = से। दे = देकर।3। कै ग्रिहि = के घर में। ढोवउ = मैं ढोता हूँ। ते = से। अकल = कल रहित, जिसके टुकड़े नहीं हो सकते, जो घटता बढ़ता नहीं जैसे चंद्रमा की कला घटती बढ़ती हैं। गति = अवस्था, हालत।4। पीसउ = मै (चक्की) पीसता हूँ। नीति = नित्य, सदा। प्रसादि = कृपा से।5। जिनि गुरि = जिस गुरू ने। जीउ = आत्मिक जीवन। दासरा = छोटा सा दास। मुलि = मुल्य से।8। करी = मैं करता हूँ।7। कलि = कलेश, झगड़े। भै = (‘भउ’ का बहुवचन)। नानक = हे नानक! समरथा = सब ताकतों वाला।8। अर्थ: (हे भाई!) जो गुरू मेरी जिंद का आसरा है मेरी (आत्मिक जीवन की) राशि पूंजी (का रक्षक) है, उस गुरू को मैं (अपने) हरेक श्वास के साथ-साथ याद करता रहता हूँ।1। रहाउ। (हे भाई!) जैसे जैसे मैं गुरू के दर्शन करता हूँ, मुझे आत्मिक जीवन मिलता है। जैसे जैसे मैं गुरू के चरण धोता हूँ, मुझे (आत्मिक जीवन देने वाला) नाम जल (पीने को, जपने को) मिलता है।1। गुरू के चरणों की धूड़ (मेरे वास्ते तीर्थ का जल है उस) में मैं सदा स्नान करता हूँ, और अनेकों जन्मों की (एकत्र की हुई) अहंकार की मैल (अपने मन में से) दूर करता हूँ।2। (हे भाई!) जिस गुरू ने मुझे (विकारों की) बड़ी आग में से (अपना) हाथ दे कर बचाया हुआ है, उस गुरू को मैं पंखा झलता हूँ।3। (हे भाई!) जिस गुरू से मैंने उस परमात्मा की सूझ-बूझ हासिल की है, जो कभी घटता-बढ़ता नहीं, मैं उस गुरू के घर में (हमेशा) पानी ढोता हूँ।4। (हे भाई!) जिस गुरू की कृपा से (पहले) वैरी (दिखाई दे रहे लोग अब) सारे मित्र प्रतीत हो रहे हैं, उस गुरू के घर में मैं हमेशा चक्की पीसता हूँ।5। (हे भाई!) जिस गुरू ने मुझे आत्मिक जीवन दिया है, जिसने मुझे अपना तुच्छ दास बना के खुद ही मुल्य ले लिया है (मेरे साथ गहरा अपनत्व बना लिया है), जिस गुरू ने खुद ही मेरे अंदर अपना प्यार पैदा किया है, उस गुरू को मैं सदा ही सदा ही अपना सिर झुकाता रहता हूँ।6,7। हे नानक! कह– मेरा गुरू बहुत सारी ताकतों का मालिक है, उसकी शरण पड़ने से (मेरे अंदर से) झगड़े-कलेश सहम-भटकना और सारे दुख दूर हो गए हैं।8।9। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |