श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गउड़ी महला ५ ॥ मिलु मेरे गोबिंद अपना नामु देहु ॥ नाम बिना ध्रिगु ध्रिगु असनेहु ॥१॥ रहाउ ॥ नाम बिना जो पहिरै खाइ ॥ जिउ कूकरु जूठन महि पाइ ॥१॥ नाम बिना जेता बिउहारु ॥ जिउ मिरतक मिथिआ सीगारु ॥२॥ नामु बिसारि करे रस भोग ॥ सुखु सुपनै नही तन महि रोग ॥३॥ नामु तिआगि करे अन काज ॥ बिनसि जाइ झूठे सभि पाज ॥४॥ नाम संगि मनि प्रीति न लावै ॥ कोटि करम करतो नरकि जावै ॥५॥ हरि का नामु जिनि मनि न आराधा ॥ चोर की निआई जम पुरि बाधा ॥६॥ लाख अड्मबर बहुतु बिसथारा ॥ नाम बिना झूठे पासारा ॥७॥ हरि का नामु सोई जनु लेइ ॥ करि किरपा नानक जिसु देइ ॥८॥१०॥ {पन्ना 240}

पद्अर्थ: गोबिंद = हे गोबिंद! असनेहु = स्नेह, प्यार, मोह।1। रहाउ।

पहिरै = पहनता है। खाइ = खाता है। जूठन महि = जूठी चीजों में।1।

जेता = जितना भी। मिरतक = मृतक, मुर्दा। मिथिआ = झूठा।2।

बिसारि = भुला के।3।

अन काज = अन्य काम। सभि = सारे। पाज = दिखावे।4।

मनि = मन में। संगि = साथ। कोटि = करोड़ों। नरकि = नर्क में।5।

अडंबर = दिखावे का सामान। बिसथारा = विस्तार, फैलाव, खिलारा।7।

लेइ = लेता है। देइ = देता है।8।

अर्थ: हे मेरे गोबिंद! (मुझे) मिल, (और मुझे) अपना नाम दे। (हे गोबिंद! तेरे) नाम (के प्यार) के बिना (और दुनिया वाला मोह-) प्यार धिक्कार है धिक्कार है।1। रहाउ।

(हे भाई!) परमात्मा की नाम के याद के बिना मनुष्य जो कुछ भी पहनता है जो कुछ भी खाता है (वह ऐसे ही है) जैसे (कोई) कुक्ता जूठी (गंदगी) चीजों में (अपना मुंह) मारता फिरता है।1।

(हे भाई!) परमात्मा का नाम भुला के मनुष्य और जितने भी कार्य-व्यवहार करता है, (वह ऐसे है) जैसे किसी लाश का श्रृंगार व्यर्थ (उद्यम) है।2।

(हे भाई!जो मनुष्य) परमात्मा का नाम भुला के दुनिया के पदार्थ ही भोगता फिरता है उसे (उन भोगों से) सुपने में भी (कभी ही) सुख नहीं मिल सकता (पर, हां इन भोगों से) उसके शरीर में रोग पैदा हो जाते हैं।3।

(हे भाई! जो मनुष्य) परमात्मा को छोड़ के अन्य-अन्य काम-काज करता रहता है, उसका आत्मिक जीवन नाश हो जाता है, और उसके (दुनिया वाले) सारे दिखावे व्यर्थ हो जाते हैं।4।

(हे भाई! जो मनुष्य) अपने मन में परमात्मा के नाम के साथ प्रीति नहीं जोड़ता, वह और करोड़ों ही (बनाए हुए धार्मिक) कर्म करता हुआ भी नर्क में पहुँचता है (पड़ा रहता है, सदैव नरकीय जीवन व्यतीत करता है)।5।

(हे भाई!) जिस मनुष्य ने परमात्मा का नाम नहीं सिमरा, वह जम की पुरी में बंधा रहता है (वह आत्मिक मौत के पँजे में फंसा हुआ दुखों की चोटें सहता रहता है) जैसे कोई चोर (सेंध लगाते पकड़ा जाए तो मार खाता है)।6।

(हे भाई! दुनिया में इज्जत बनाए रखने के) लाखों ही दिखावे के उद्यम व अनेकों फैलाव- ये सारे ही परमात्मा के नाम के बिना व्यर्थ के पसारे हैं।7।

(पर,) हे नानक! वही मनुष्य परमात्मा का नाम सिमरता है, जिसे परमात्मा स्वयं कृपा करके (ये दाति) देता है।8।10।

गउड़ी महला ५ ॥ आदि मधि जो अंति निबाहै ॥ सो साजनु मेरा मनु चाहै ॥१॥ हरि की प्रीति सदा संगि चालै ॥ दइआल पुरख पूरन प्रतिपालै ॥१॥ रहाउ ॥ बिनसत नाही छोडि न जाइ ॥ जह पेखा तह रहिआ समाइ ॥२॥ सुंदरु सुघड़ु चतुरु जीअ दाता ॥ भाई पूतु पिता प्रभु माता ॥३॥ जीवन प्रान अधार मेरी रासि ॥ प्रीति लाई करि रिदै निवासि ॥४॥ माइआ सिलक काटी गोपालि ॥ करि अपुना लीनो नदरि निहालि ॥५॥ सिमरि सिमरि काटे सभि रोग ॥ चरण धिआन सरब सुख भोग ॥६॥ पूरन पुरखु नवतनु नित बाला ॥ हरि अंतरि बाहरि संगि रखवाला ॥७॥ कहु नानक हरि हरि पदु चीन ॥ सरबसु नामु भगत कउ दीन ॥८॥११॥ {पन्ना 240}

पद्अर्थ: आदि = शुरू में। मधि = (जिंदगी के) बीच में। अंति = (जीवन के) आखिर में। निबाहै = साथ देता है।1।

संगि = साथ। दइआल = दया का घर। पुरख = सर्व-व्यापक। पूरन = सब गुणों का मालिक।1। रहाउ।

छोडि = छोड़ के। जह = जहाँ (भी)। पेखा = देखूँ, मैं देखता हूँ। तह = वहीं, वहां (ही)।2।

सुघड़ = सुंदर मानसिक रचना वाला, सुचॅजा। जीअ दाता = जिंद देने वाला।3।

अधार = आसरा। करि = करके। रिदै निवासि = हृदय का निवासी।4।

सिलक = फाही, फांसी। गोपालि = गोपाल ने, सृष्टि के पालणहार ने। निहालि = देख के।5।

सिमरि = सिमर के। काटे = कट जाते हैं। सभि = सारे।6।

नवतनु = नया। नित = सदा। बाला = जवान।7।

हरि पद = प्रभू मिलाप का दर्जा। पदु = दरजा। कउ = को। सरबसु = (सर्वस्व। सर्व = सारा। स्व = सवै, धन) सारा ही धन पदार्थ, सब कुछ।

अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के साथ जुड़ी हुई प्रीति सदा मनुष्य का साथ देती है। वह दया का घर सर्व-व्यापक और सब गुणों का मालिक परमात्मा (अपने सेवक भक्त की सदैव) पालना करता है।1। रहाउ।

(हे भाई!) मेरा मन उस सज्जन प्रभू को (मिलना) चाहता है जो सदा ही हर वक्त मनुष्य का साथ देता है।1।

(हे भाई!) मैं तो जिधर देखता हूँ उधर ही हर जगह परमात्मा मौजूद है। ना वह परमात्मा कभी मरता है, और ना ही वह जीवों को छोड़ के कहीं जाता है।2।

(हे भाई!) परमात्मा सुंदर स्वरूप वाला है, सुचॅजा है, समझदार है, जिंद देने वाला है, वही हमारा (असली भाई) है, पुत्र है, पिता है, माँ है।3।

(हे भाई!) परमात्मा मेरे जीवन का, मेरी जिंद का आसरा है, मेरे आत्मिक जीवन की राशि पूँजी है। मैंने उसे अपने हृदय में टिका के उसके साथ अपनी प्रीति जोड़ी हुई है।4।

(हे भाई!) सृष्टि के रक्षक उस प्रभू ने मेरी माया (के मोह) की जंजीरें काट दी हैं। (मेरी ओर) मेहर की निगाह से देख के उसने मुझे अपना बना लिया है।5।

(हे भाई!) परमात्मा का नाम सिमर-सिमर के सारे रोग काटे जा सकते हैं। परमात्मा के चरणों में सुरति जोड़नी ही (दुनिया के) सारे सुख हैं, सारे पदार्थों के भोग हैं।6।

(हे भाई!) परमात्मा हरेक जीव के अंदर बसता है, सारे जगत में हर जगह बसता है, हरेक जीव के साथ है, और सब जीवों का रक्षक है। परमात्मा सारे गुणों का मालिक है, सब जीवों में व्यापक है, वह सदा नया है, सदा जवान है (वह प्यार करने से कभी थकता नहीं, उक्ताता है)।7।

हे नानक! कह– परमात्मा अपना नाम अपने भक्त को देता है, (भक्त के वास्ते उसका नाम ही दुनिया का) सारा धन पदार्थ है (जिसे परमात्मा अपने नाम की दाति देता है वह) परमात्मा के मिलाप की अवस्था को समझ लेता है।8।11।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh