श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 241 रागु गउड़ी माझ महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ खोजत फिरे असंख अंतु न पारीआ ॥ सेई होए भगत जिना किरपारीआ ॥१॥ हउ वारीआ हरि वारीआ ॥१॥ रहाउ ॥ सुणि सुणि पंथु डराउ बहुतु भैहारीआ ॥ मै तकी ओट संताह लेहु उबारीआ ॥२॥ मोहन लाल अनूप सरब साधारीआ ॥ गुर निवि निवि लागउ पाइ देहु दिखारीआ ॥३॥ मै कीए मित्र अनेक इकसु बलिहारीआ ॥ सभ गुण किस ही नाहि हरि पूर भंडारीआ ॥४॥ चहु दिसि जपीऐ नाउ सूखि सवारीआ ॥ मै आही ओड़ि तुहारि नानक बलिहारीआ ॥५॥ गुरि काढिओ भुजा पसारि मोह कूपारीआ ॥ मै जीतिओ जनमु अपारु बहुरि न हारीआ ॥६॥ मै पाइओ सरब निधानु अकथु कथारीआ ॥ हरि दरगह सोभावंत बाह लुडारीआ ॥७॥ जन नानक लधा रतनु अमोलु अपारीआ ॥ गुर सेवा भउजलु तरीऐ कहउ पुकारीआ ॥८॥१२॥ {पन्ना 241} पद्अर्थ: खोजत = ढूंढते। असंख = अनगिनत, जिनकी गिनती ना हो सके। पारीआ = पाया, ढूँढा। सेई = वही लोग। भगत = (वहुवचन)।1। वारीआ = कुर्बान।1। रहाउ। सुणि = सुन के। पंथु = रास्ता। डराउ = डरावना। भै हारीआ = भयभीत। संताह = संतों की। लेहु उबारीआ = बचा लो।2। मोहन = हे (मन को) मोहने वाले प्रभू! अनूप = हे सुंदर! सरब साधारीआ = हे सब के आसरे! निवि = झुक के। लागउ = मैं लगता हूँ। गुर पाइ = गुरू के पैरों पर। देहु दिखारीआं = दिखारि देहु।3। इकसु = एक से। पूर = भरे हुए। भंडारीआ = खजाने।4। किस ही: शब्द ‘किसु’ की ‘ु’मात्रा ‘ही’ के कारण हट गया है। चहु दिसि = चारों दिशाओं में। दिस = दिशा। सूखि = सुख में। आही = चाही है। ओड़ि = ओट, आसरा। तुहारि = तुम्हारी, तेरी।5। गुरि = गुरू ने। भुजा = बाँह। पसारि = पसार के, खिलार के। कूप = खू। बहुरि = मुड़, फिर।6। सरब निधानु = सारे गुणों का खजाना। अकथु = जिसको बयान नहीं किया जा सकता। बाह लुडारीआ = बाँह हुलारते हैं।7। अमोलु = जिस का मुल्य ना पाया जा सके। अपारीआ = बेअंत। भउजलु = संसार समुंद्र। तरीअै = तारा जा सकता है। कहउ = मैं कहता हूँ। पुकारीआ = पुकार के।8। अर्थ: मैं कुर्बान हूँ, हरी से कुर्बान हूँ।1। रहाउ। अनगिनत जीव ढूँढते फिरते हैं, पर किसी ने परमात्मा के गुणों का अंत नहीं पाया। वही मनुष्य परमात्मा के भक्त बन सकते हैं, जिन पर उसकी कृपा होती है।1। बार बार ये सुन के कि जगत-जीवन का रास्ता डरावना है, मैं बहुत सहमा हुआ था (कि मैं कैसे ये सफर तय करूँगा?); आखिर मैंने संतों का आसरा देखा है, (मैं संत जनों के आगे अरदास करता हूँ कि आत्मिक जीवन के रास्ते के खतरों से) मुझे बचा लें।2। हे मन को मोह लेने वाले सुंदर लाल! हे सब जीवों के आसरे प्रभू!मैंझुक झुक के गुरू के चरणों में लगता हूँ (और गुरू के आगे विनती करता हूँ कि मुझे तेरा) दर्शन करवा दे।3। मैंने अनेको साक-संबंधियों को अपना मित्र बनाया (पर किसी के साथ भी सिरे का साथ नहीं निभता, अब मैं) एक परमात्मा से ही कुर्बान जाता हूँ (वही साथ निभने वाला साथी है)। सारे गुण (भी) और किसी में नहीं हैं, एक परमात्मा ही भरे खजानों वाला है।4। हे नानक! (कह– हे प्रभू!) चारों तरफ तेरा ही नाम जपा जा रहा है, (जो मनुष्य जपता है वह) सुख-आनंद में (रहता है, उसका जीवन) सँवर जाता है। (हे प्रभू!) मैंने तेरा आसरा लिया है, मैं तुझसे सदके जाता हूँ।5। (हे भाई!) गुरू ने मुझे बाँह फैला के मोह के कूएं में से निकाल लिया है, (उसकी बरकति से) मैंने कीमती मानस जन्म (की बाजी) जीत ली है, दुबारा मैं (मोह के मुकाबले में) बाजी नहीं हारूँगा।6। (गुरू की कृपा) मैंने सारे गुणों का खजाना वह परमात्मा ढूँढ लिया है, जिसकी सिफत सालाह की कहानियां बयान नहीं की जा सकतीं। (जो मनुष्य सरब-निधान प्रभू को मिल लेते हैं) वह उसकी दरगाह में शोभा हासिल कर लेते हैं, वह वहाँ बाँह उलार के चलते हैं (अर्थात, मौज-आनंद में रहते हैं)।7। हे दास नानक! (कह– जिन्होंने गुरू का पल्ला पकड़ा, उन्होंने) परमात्मा का बेअंत कीमती नाम-रत्न हासिल कर लिया। (हे भाई!) मैं पुकार के कहता हूँ कि गुरू की शरण पड़ने से संसार समुंद्र में (से बेदाग रह के) पार लांघ जाते हैं।8।12। गउड़ी महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ नाराइण हरि रंग रंगो ॥ जपि जिहवा हरि एक मंगो ॥१॥ रहाउ ॥ तजि हउमै गुर गिआन भजो ॥ मिलि संगति धुरि करम लिखिओ ॥१॥ जो दीसै सो संगि न गइओ ॥ साकतु मूड़ु लगे पचि मुइओ ॥२॥ मोहन नामु सदा रवि रहिओ ॥ कोटि मधे किनै गुरमुखि लहिओ ॥३॥ हरि संतन करि नमो नमो ॥ नउ निधि पावहि अतुलु सुखो ॥४॥ नैन अलोवउ साध जनो ॥ हिरदै गावहु नाम निधो ॥५॥ काम क्रोध लोभु मोहु तजो ॥ जनम मरन दुहु ते रहिओ ॥६॥ दूखु अंधेरा घर ते मिटिओ ॥ गुरि गिआनु द्रिड़ाइओ दीप बलिओ ॥७॥ जिनि सेविआ सो पारि परिओ ॥ जन नानक गुरमुखि जगतु तरिओ ॥८॥१॥१३॥ {पन्ना 241} पद्अर्थ: रंगो = रंग चढ़ाओ।1। रहाउ। तजि = त्याग के। भजो = भजो, याद करो। मिलि = मिल के। धुरि = प्रभू की दरगाह से। करम = बख्शिश।1। संगि = साथ। साकतु = ईश्वर से टूटा हुआ मनुष्य। लगे = लगि, लग के। पचि = खुआर हो के।2। मोहन नामु = मोहन का नाम। रवि रहिओ = व्यापक हो के, हर जगह मौजूद है। लहिओ = ढूँढा।3। नमो = नमसकार। पावहि = तू पाएगा। नउ निधि = (धरती के सारे ही) नौ खजाने।4। अलोवउ = मैं देखता हूँ, अवलोकन करता हूँ। निधो = निधि, खजाना।5। तजो = त्यागो। दुहु ते = दोनों से। रहिओ = बच जाता है।6। घरि ते = हृदय घर से। गुरि = गुरू ने। द्रिढ़ाइओ = पक्का कर दिया। दीप = दीया।7। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के।8। अर्थ:(हे भाई!) अपनी जीभ से परमात्मा का नाम जप, हरी के दर से उसका नाम मांग, हरी परमात्मा के प्यार रंग में अपने मन को रंग।1। रहाउ। (हे भाई!) गुरू के बख्शे ज्ञान की बरकति से (अपने अंदर से) अहंकार दूर करके परमात्मा का नाम सिमर। जिस मनुष्य के माथे पर धुर दरगाह से बख्शिश का लेख लिखा जाता है, वह साध-संगति में मिल के (अहंकार दूर करता है और हरी-नाम जपता है)।1। (हे भाई! जगत में आँखों से) जो कुछ दिखाई दे रहा है, ये किसी के भी साथ नहीं जाता, पर मूर्ख माया में ग्रसित मनुष्य (इस दिखते प्यार में) लग के परेशान हो के आत्मिक मौत बर्दाश्त करता है।2। (हे भाई!) करोड़ों में किसी विरले मनुष्य ने गुरू की शरण पड़ कर उस मोहन प्रभू का नाम प्राप्त किया है जो सदा हर जगह व्याप रहा है।3। (हे भाई!) परमात्मा के संत जनों को सदा सदा नमस्कार करता रह, तू बेअंत सुख पाएगा, तूझे वह नाम मिल जाएगा, जो, मानो, धरती के नौ खजाने हैं।4। हे साध जनो! अपने हृदय में परमात्मा का नाम गाते रहो जो सारे सुखों का खजाना है, (मेरी तो यही प्रार्थना है कि) मैं अपनी आँखों से (उनका) दर्शन करता रहूँ (जो नाम जपते हैं)।5। (हे भाई!अपने मन में से) काम-क्रोध-लोभ-मोह दूर करो। (जो मनुष्य इन विकारों को मिटाता है) वह जनम और मरन दोनों (के चक्र) से बच जाता है।6। (हे भाई!) गुरू ने जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा के साथ गहरी सांझ पक्की कर ली, उसके अंदर (आत्मिक सूझ का) दीपक जग जाता है, उसके हृदय-घर में दुख का अंधकार मट जाता है।7। हे दास नानक! (कह–) जिस मनुष्य ने परमात्मा का सिमरन किया, वह संसार समुंद्र से पार लांघ गया। गुरू की शरण पड़ कर जगत (संसार समुंद्र को) तैर जाता है।8।1।13। महला ५ गउड़ी ॥ हरि हरि गुरु गुरु करत भरम गए ॥ मेरै मनि सभि सुख पाइओ ॥१॥ रहाउ ॥ बलतो जलतो तउकिआ गुर चंदनु सीतलाइओ ॥१॥ अगिआन अंधेरा मिटि गइआ गुर गिआनु दीपाइओ ॥२॥ पावकु सागरु गहरो चरि संतन नाव तराइओ ॥३॥ ना हम करम न धरम सुच प्रभि गहि भुजा आपाइओ ॥४॥ भउ खंडनु दुख भंजनो भगति वछल हरि नाइओ ॥५॥ अनाथह नाथ क्रिपाल दीन सम्रिथ संत ओटाइओ ॥६॥ निरगुनीआरे की बेनती देहु दरसु हरि राइओ ॥७॥ नानक सरनि तुहारी ठाकुर सेवकु दुआरै आइओ ॥८॥२॥१४॥ {पन्ना 241} पद्अर्थ: करत = करते हुए, जपते हुए। भरम = सब भटकनें। मेरै मनि = मेरे मन ने। सभि = सारे।1। रहाउ। बलतो = जलता। तउकिआ = छिड़का। गुर चंदनु = गुरू का शबद-चंदन।1। दीपाइओ = जल पड़ा, रौशन हो गया।2। पावक = आग। सागरु = समुंद्र। गहरो = गहरा। चरि = चढ़ के। नाव = बेड़ी।3। सुच = पवित्रता। प्रभि = प्रभू ने। गहि = पकड़ के। भुजा = बाँह। आपाइओ = अपना बना लिया।4। भउ खंडनु = डर नाश करने वाला। भगति वछल हरि नाइओ = भक्ति से प्यार करने वाले हरी का नाम।5। संम्रिथ = स्मर्थ, सब ताकतों का मालिक। ओटाइओ = आसरा।6। हरि राइओ = हे प्रभू पातशाह।7। ठाकुर = हे ठाकुर!।8। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम सिमरते हुए, गुरू गुरू करते हुए मेरे मन की सारी भटकनें दूर हो गई हैं, और मेरे मन ने सारे ही सुख प्राप्त कर लिए हैं।1। रहाउ। (हे भाई ! मन विकारों में) जल रहा था, तप रहा था। (जब) गुरू का शबद रूपी चँदन (घिसा के इस पर) छिड़का, तो यह मन शीतल हो गया।1। (हे भाई!मन विकारों में) सड़ रहा था, जल रहा था, (जब) गुरू का शबद-चंदन (घिसा के इस पर) छिड़का तो ये मन ठण्डा-ठार हो गया।2। (हे भाई!) ये गहरा संसार-समुंद्र (विकारों की तपश से) आग (आग बना पड़ा था) मैं साध-संगति बेड़ी में चढ़ के इससे पार गुजर आया हूँ।3। (हे भाई!) मेरे पास ना कोई कर्म, ना धर्म, ना पवित्रता (आदि राशि-पूँजी) थी, प्रभू ने मेरी बाँह पकड़ के (खुद ही मुझे) अपना (दास) बना लिया है।4। (हे भाई!) भक्ति से प्यार करने वाले हरी का वह नाम जो हरेक किस्म का डर व दुख नाश करने में स्मर्थ है (मुझे उसकी अपनी मेहर से ही मिल गया है)।5। हे अनाथों के नाथ! हे दीनों पर दया करने वाले! हे संतों के सहारे! हे प्रभू पातशाह! मेरी गुण-हीन की विनती सुन, मुझे अपना दर्शन दे।6,7। हे नानक! (अरदास कर, और कह–) हे ठाकुर! मैं तेरा सेवक तेरी शरण आया हूँ, तेरे दर पर आया हूँ।8।2।14। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |