श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गउड़ी महला ३ ॥ कामणि हरि रसि बेधी जीउ हरि कै सहजि सुभाए ॥ मनु मोहनि मोहि लीआ जीउ दुबिधा सहजि समाए ॥ दुबिधा सहजि समाए कामणि वरु पाए गुरमती रंगु लाए ॥ इहु सरीरु कूड़ि कुसति भरिआ गल ताई पाप कमाए ॥ गुरमुखि भगति जितु सहज धुनि उपजै बिनु भगती मैलु न जाए ॥ नानक कामणि पिरहि पिआरी विचहु आपु गवाए ॥१॥ कामणि पिरु पाइआ जीउ गुर कै भाइ पिआरे ॥ रैणि सुखि सुती जीउ अंतरि उरि धारे ॥ अंतरि उरि धारे मिलीऐ पिआरे अनदिनु दुखु निवारे ॥ अंतरि महलु पिरु रावे कामणि गुरमती वीचारे ॥ अम्रितु नामु पीआ दिन राती दुबिधा मारि निवारे ॥ नानक सचि मिली सोहागणि गुर कै हेति अपारे ॥२॥ {पन्ना 245}

पद्अर्थ: कामणि = जीव स्त्री। रसि = नाम रस में। बेधी = बेधी हुई। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाऐ = प्रेम में। मोहनि = मोहन ने, सुंदर प्रभू ने। दंबिधा = मेर-तेर। वरु = पति प्रभू। रंगु लाऐ = आत्मिक आनंद भोगती है। कूड़ि = झूठ से। कुसति = कु सत्य से, ठॅगी फरेब से। गल ताई = गले तक, नाको नाक। पिरहि पिआरी = पति प्रभू की प्यारी। आपु = स्वैभाव।1।

गुर कै भाइ = गुरू के प्रेम में (टिक के)। रैणि = (प्रभू की याद को) टिकाती है। अनदिनु = हर रोज। रावे = माणती है, भोगती है। सचि = सदा स्थिर प्रभू में। अपारे = बेअंत।2।

अर्थ: (भाग्यशाली है वह) जीव-स्त्री (जिसका मन) परमात्मा के नाम में बेधा रहता है, जो परमात्मा के प्यार में अडोलता में टिकी रहती है, और जिसके मन को सुंदर प्रभू ने मोह रखा है, (उस जीव-स्त्री की) मेरे तेर आत्मिक अडोलता में खतम हो जाती है, वह जीव-स्त्री प्रभू पति को मिल जाती है, गुरू की मति ले के वह आत्मिक रंग भोगती है।

(माया के मोह में फस के मनुष्य का) ये शरीर झूठ ठॅगी फरेब से नाको नाक भरा रहता है और जीव पाप कमाता रहता है, पर गुरू शरण पड़ने से जीव प्रभू की भगती करता है, जिसकी बरकति से इसके अंदर आत्मिक अडोलता की रौंअ पैदा हो जाती है (और सारे किए पाप विकार दूर हो जाते हैं) प्रभू भगती के बगैर (विकारों की) मैल दूर नहीं होती।

हे नानक! (वह) जीव-स्त्री प्रभू पति की प्यारी बन जाती है, जो अपने अंदर से स्वैभाव दूर कर लेती है।1।

जो जीव स्त्री गुरू के प्रेम-प्यार में टिकी रहती है, वह प्रभू पति को मिल जाती है। वह अपने अंदर अपने हृदय में (प्रभू-पति को) बसाती है और सारी जिंदगी-रूपी रात सुख में गुजारती है। जो जीव-स्त्री अपने अंदर प्रभू का निवास-स्थान ढूँढ लेती है, गुरू की मति ले के (प्रभू के गुणों को) विचारती है, वह प्रभू-पति के मिलाप का आत्मिक आनंद पाती है।

जिस जीव-स्त्री ने आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस दिन रात पीया है, वह अपने अंदर से मेर-तेर को खत्म कर देती है। हे नानक! गुरू के अथाह प्यार की बरकति से वह जीव-स्त्री सदा स्थिर प्रभू-पति में विलीन रहती है और भाग्यशाली बन जाती है।2।

आवहु दइआ करे जीउ प्रीतम अति पिआरे ॥ कामणि बिनउ करे जीउ सचि सबदि सीगारे ॥ सचि सबदि सीगारे हउमै मारे गुरमुखि कारज सवारे ॥ जुगि जुगि एको सचा सोई बूझै गुर बीचारे ॥ मनमुखि कामि विआपी मोहि संतापी किसु आगै जाइ पुकारे ॥ नानक मनमुखि थाउ न पाए बिनु गुर अति पिआरे ॥३॥ मुंध इआणी भोली निगुणीआ जीउ पिरु अगम अपारा ॥ आपे मेलि मिलीऐ जीउ आपे बखसणहारा ॥ अवगण बखसणहारा कामणि कंतु पिआरा घटि घटि रहिआ समाई ॥ प्रेम प्रीति भाइ भगती पाईऐ सतिगुरि बूझ बुझाई ॥ सदा अनंदि रहै दिन राती अनदिनु रहै लिव लाई ॥ नानक सहजे हरि वरु पाइआ सा धन नउ निधि पाई ॥४॥३॥ {पन्ना 245}

पद्अर्थ: करे = करके। जीउ प्रीतम = हे प्रीतम जी! बिनउ = विनय, विनती। सचि = सदा स्थिर प्रभू के नाम से। सबदि = गुरू के शबद से। सीगारो = श्रृंगार के। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर। जुगि जुगि = हरेक युग में, सदा ही। सचा = सदा स्थिर रहने वाला प्रभू। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाली। कामि = काम में। विआपी = फसी हुई। मोहि = मोह में। जाइ = जा के।3।

मुंध = मुग्धा, मूर्ख स्त्री। निगुणीआ = गुण विहीन। अगम = अपहुँच। अपारा = बेअंत। मेलि = अगर मिलाए। घटि घटि = हरेक घट में। भाइ = प्रेम से। सतिगुरि = सतिगुरू ने। अनंदि = आनंद में। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। लिव = लगन। हरि वरु = प्रभू पति। साधन = जीव स्त्री। नउ निधि = धरती के सारे ही नौ खजाने।4।

अर्थ: (भाग्यशाली है वह) जीव-स्त्री जो सदा स्थिर प्रभू के नाम से व गुरू के शबद से अपने आत्मिक जीवन को सुंदर बना के (प्रभू दर पे) विनती करती है (और कहती है–) हे अति प्यारे प्रीतम जी! मेहर करके (मेरे हृदय में) आ बसो। जो जीव-स्त्री सदा स्थिर प्रभू के नाम से गुरू के शबद से अपने जीवन को खूबसूरत बना लेती है, वह अपने अंदर से अहंकार दूर कर लेती है। गुरू की शरण पड़ कर वह अपने सारे कारज सवार लेती है, वह जीव-स्त्री गुरू की दी हुई विचार (के उपदेश) की बरकति से उस परमात्मा के साथ सांझ पा लेती है जो हरेक युग में ही सदा कायम रहने वाला है।

(पर) अपने मन के पीछे चलने वाली जीव-स्त्री काम वासना में दबी रहती है, मोह में फंस के दुखी होती है। वह किस के आगे जा के (अपने दुखों की) पुकार करे? (कोई उसका ये दुख दूर नहीं कर सकता)। हे नानक! अति प्यारे गुरू के बिना अपने मन के पीछे चलने वाली जीव-स्त्री (प्रभू-चरणों में) स्थान हासिल नहीं कर सकती।3।

(एक तरफ जीव-स्त्री) मूर्ख है अंजान है भोली है (कि विकारों की लपटों से बचना नहीं जानती) और गुण-हीन है, (दूसरी तरफ) प्रभू-पति अपहुँच है और बेअंत है (ऐसी अवस्था में, ऐसी जीव-स्त्री का प्रभू-पति से मिलाप कैसे हो?)। यदि प्रभू स्वयं ही (जीव-स्त्री को) मिलाए तो मिलाप हो सकता है, वह खुद ही (जीव-सि्त्रयों की भूलें गलतियां) बख्शने वाला है। प्यारा प्रभू-कंत जीव-स्त्री के अवगुण माफ करने के समर्थ है, और वह हरेक शरीर में बस रहा है (इस तरह सब के गुण-अवगुण जानता है)।

सतिगुरू ने ये शिक्षा दी है कि वह कंत-प्रभू, प्रेम-प्रीति से प्राप्त होता है भगती भाव से मिलता है। हे नानक! (जो जीव-स्त्री गुरू की इस शिक्षा पर चलती है) वह हर वक्त दिन रात आनंद में रहती है, वह हर समय (प्रभू-चरणों में) सुरति जोड़े रखती है, आत्मिक अडोलता में टिक के वह प्रभू-पति से मिल जाती है, उस जीव-स्त्री ने, जैसे, दुनिया के नौ के नौ खजाने हासिल कर लिए हों।4।3।

गउड़ी महला ३ ॥ माइआ सरु सबलु वरतै जीउ किउ करि दुतरु तरिआ जाइ ॥ राम नामु करि बोहिथा जीउ सबदु खेवटु विचि पाइ ॥ सबदु खेवटु विचि पाए हरि आपि लघाए इन बिधि दुतरु तरीऐ ॥ गुरमुखि भगति परापति होवै जीवतिआ इउ मरीऐ ॥ खिन महि राम नामि किलविख काटे भए पवितु सरीरा ॥ नानक राम नामि निसतारा कंचन भए मनूरा ॥१॥ इसतरी पुरख कामि विआपे जीउ राम नाम की बिधि नही जाणी ॥ मात पिता सुत भाई खरे पिआरे जीउ डूबि मुए बिनु पाणी ॥ डूबि मुए बिनु पाणी गति नही जाणी हउमै धातु संसारे ॥ जो आइआ सो सभु को जासी उबरे गुर वीचारे ॥ गुरमुखि होवै राम नामु वखाणै आपि तरै कुल तारे ॥ नानक नामु वसै घट अंतरि गुरमति मिले पिआरे ॥२॥ {पन्ना 245-246}

पद्अर्थ: माया सरु = माया (के मोह) का सरोवर। सबलु = बलवान, तगड़ा। वरतै = अपना प्रभाव डाल रहा है। दुतरु = दुस्तर, जिससे पार गुजरना बहुत मुश्किल है। बोहिथा = जहाज। खेवटु = मल्लाह। इन बिधि = इस तरीके से। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ने से। इउ = इस तरह। राम नामि = परमात्मा के नाम ने। किलविख = पाप। मनूरा = जला हुआ लोहा, लोहे की मैल। कंचन = सोना।1।

कामि = काम वासना में। विआपे = फसे रहते हैं। बिधि = जुगति। सुत = पुत्र। खरे = बहुत। डूबि = डूब के, माया के मोह के सरोवर में नाको नाक फस के। मुऐ = आत्मिक मौत मर गए। गति = आत्मिक जीवन की हालत। धातु = भटकना। संसारे = संसार में। सभु को = हरेक जीव। जासी = फस जाएगा। उबरे = बच गए। वखाणै = उच्चारता है। घट = हृदय। गुरमति = गुरू की मति ले के।2।

अर्थ: माया (के मोह) का लबालब भरा समुंद्र अपना जोर डाल रहा है, इसमें से तैरना बहुत ही मुश्किल है। (हे भाई!) कैसे इसमें से पार लंघा जाए?

हे भाई! परमात्मा के नाम को जहाज बना, गुरू के शबद को मल्लाह बना के (उस जहाज) में बैठा। यदि मनुष्य परमात्मा के नाम-जहाज में गुरू के शबद-मल्लाह को बैठा दे, तो परमात्मा स्वयं ही (माया के सरोवर से) पार लंघा देता है। (हे भाई!) इस दुश्वार माया-सरोवर में यूँ ही पार लांघ सकते हैं। गुरू की शरण पड़ने से परमात्मा की भगती प्राप्त हो जाती है, इस तरह दुनिया के कार्य-व्यवहार करते हुए माया की ओर से अछोह हो जाते हैं।

हे नानक! परमात्मा के नाम की बरकति से (सारे) पाप एक छिन में कट जाते हैं। (जिसके काटे जाते हैं, उसका) शरीर पवित्र हो जाता है। परमात्मा के नाम से ही (माया-सरोवर से) पार लांघ सकते हैं औार लोहे की मैल (जंग लगा लोहे) (जैसा नकारा हुआ मन) सोना बन जाता है।1।

(माया के मोह के प्रभाव में) स्त्री और मर्द काम-वासना में फसे रहते हैं, परमात्मा के नाम सिमरन की जाच नहीं सीखते। (माया के मोह में फसे जीवों को अपने) माता-पिता-पुत्र-भाई (ही) बहुत प्यारे लगते हैं, (जिस सरोवर में) पानी नहीं, (पानी की जगह मोह है उस में) डूब के (नाको नाक फस के) आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं। मोह रूपी पानी वाले माया-सरोवर में नाको नाक फस के जीव आत्मिक मौत ले लेते है और अपने आत्मिक जीवन को नहीं परखते-जाचते। (इस तरह) संसार में (जीवों को) अहंकार की भटकना लगी हुई है। जो भी जीव जगत में (जनम ले के) आता है वह (इस भटकना में) फसता जाता है, (इसमें से वही) बचते हैं जो गुरू के शबद को अपनी सोच-मण्डल में बसाते हैं।

जो मनुष्य गुरू के सन्मुख हो के परमात्मा का नाम उच्चारता है, वह खुद (इस माया-सरोवर से) पार लांघ जाता है, अपनी कुलों को भी पार लंघा लेता है। हे नानक! जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का नाम आ बसता है, वह गुरू की मति का आसरा ले के प्यारे प्रभू को मिल जाता है।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh