श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
![]() |
![]() |
![]() |
![]() |
![]() |
Page 246 राम नाम बिनु को थिरु नाही जीउ बाजी है संसारा ॥ द्रिड़ु भगति सची जीउ राम नामु वापारा ॥ राम नामु वापारा अगम अपारा गुरमती धनु पाईऐ ॥ सेवा सुरति भगति इह साची विचहु आपु गवाईऐ ॥ हम मति हीण मूरख मुगध अंधे सतिगुरि मारगि पाए ॥ नानक गुरमुखि सबदि सुहावे अनदिनु हरि गुण गाए ॥३॥ आपि कराए करे आपि जीउ आपे सबदि सवारे ॥ आपे सतिगुरु आपि सबदु जीउ जुगु जुगु भगत पिआरे ॥ जुगु जुगु भगत पिआरे हरि आपि सवारे आपे भगती लाए ॥ आपे दाना आपे बीना आपे सेव कराए ॥ आपे गुणदाता अवगुण काटे हिरदै नामु वसाए ॥ नानक सद बलिहारी सचे विटहु आपे करे कराए ॥४॥४॥ {पन्ना 246} पद्अर्थ: को = कोई भी। थिरु = सदा कायम रहने वाला। बाजी = खेल। द्रिढ़ = दृढ़, पक्की करके टिका। सची = सदा कायम रहने वाली। वापारा = वणज। अगम = अपहुँच। अपारा = बेअंत। पाईअै = हासिल करते हैं। आपु = स्वैभाव। मुगध = मूर्ख। सतिगुरि = सतिगुरू ने। मारगि = रास्ते पर। सुहावे = सुंदर जीवन वाले। अनदिनु = हर रोज।3। कराऐ = (प्रेरणा करके जीवों से) करवाता है। आपे = खुद ही। सबदि = शबद में (जोड़ के)। सवारे = (जीवों के जीवन) सुंदर बनाता है। जुगु जुगु = हरेक युग में। दाना = समझदार, जानने वाला। बीना = परखने वाला। हिरदै = हृदय में। विटहु = से।4। अर्थ: हे भाई! ये जगत (परमात्मा की रची हुई एक) खेल है (इस में) परमात्मा के नाम के बिना और कोई सदा कायम रहने वाला नहीं है। हे भाई! परमात्मा का नाम-वणज ही सदा कायम रहने वाला है। अपहुँच और बेअंत परमात्मा का नाम-वणज ही सदा कायम रहने वाला धन है, ये धन गुरू की मति पर चलने से मिलता है। प्रभू की सेवा भक्ति, प्रभू चरणों में सुरति जोड़नी - ये सदा कायम रहने वाली (राशि) है (इसकी बरकति से अपने) अंदर से स्वैभाव दूर कर सकते हैं। हम अल्प-बुद्धि वालों को, मूर्खों को, माया के मोह में अंधे हुओं को सतिगुरू ने ही जीवन के सही रास्ते पर डाला है। हे नानक! गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य गुरू के शबद में जुड़ के सुंदर आत्मिक जीवन वाले बन जाते हैं, और, वह हर वक्त परमात्मा के गुण गाते रहते हैं।3। (पर) हे भाई! (जीवों के वश कुछ नहीं। माया-सर में डूबने से बचाने वाला प्रभू स्वयं ही है) प्रभू खुद ही (प्रेरणा करके जीवों से काम) करवाता है (जीवों में व्यापक हो के) खुद ही (सब कुछ) करता है, प्रभू खुद ही गुरू के शबद में जोड़ के (जीवों के) जीवन सुंदर बनाता है। प्रभू खुद ही सत्गुरू मिलाता है, खुद ही (गुरू का) शबद बख्शता है, और खुद ही हरेक युग में अपने भक्तों को प्यार करता है। हरेक युग में हरि अपने भक्तों को प्यार करता है, खुद ही उनके जीवन को सँवारता है, खुद ही (उन्हें) भक्ति में जोड़ता है। वह खुद ही सबके दिल की जानने वाला और पहचानने वाला है, वह खुद ही (अपने भक्तों से अपनी) सेवा-भक्ति करवाता है। (हे भाई!) परमात्मा खुद ही (अपने) गुणों की दाति बख्शता है, (हमारे) अवगुण दूर करता है, और (हमारे) हृदय में (अपना) नाम बसाता है। हे नानक! (कह– मैं) उस सदा कायम रहने वाले परमात्मा से सदके जाता हूँ, वह खुद ही सब कुछ करता है और स्वयं ही सब कुछ कराता है।4।4। गउड़ी महला ३ ॥ गुर की सेवा करि पिरा जीउ हरि नामु धिआए ॥ मंञहु दूरि न जाहि पिरा जीउ घरि बैठिआ हरि पाए ॥ घरि बैठिआ हरि पाए सदा चितु लाए सहजे सति सुभाए ॥ गुर की सेवा खरी सुखाली जिस नो आपि कराए ॥ नामो बीजे नामो जमै नामो मंनि वसाए ॥ नानक सचि नामि वडिआई पूरबि लिखिआ पाए ॥१॥ हरि का नामु मीठा पिरा जीउ जा चाखहि चितु लाए ॥ रसना हरि रसु चाखु मुये जीउ अन रस साद गवाए ॥ सदा हरि रसु पाए जा हरि भाए रसना सबदि सुहाए ॥ नामु धिआए सदा सुखु पाए नामि रहै लिव लाए ॥ नामे उपजै नामे बिनसै नामे सचि समाए ॥ नानक नामु गुरमती पाईऐ आपे लए लवाए ॥२॥ {पन्ना 246} पद्अर्थ: पिरा जीउ = हे प्यारे जीव! हे प्यारी जिंदे! धिआऐ = याद कर। मंञहु = मंझहु, अपने आप में से। घरि = हृदय घर में। सहजे = आत्मिक अडोलता में, सहज। सति सुभाऐ = सदा स्थिर प्रभू के प्यार में टिक के। खरी = बहुत। सुखाली = सुख+आलय, सुख देने वाली। नामो = नाम ही। मंनि = मन में। सचि = सदा स्थिर प्रभू में। नामि = नाम में (जुड़ने से)। पूरबि = पहले जन्म में।1। जिस नो: शब्द ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हट गई है। जा = जब। चाखहि = तू चखेगी। लाऐ = लगा के। रसना मुये = हे निकर्मण्य जीभ! अन रस साद = और रसों का स्वाद। गवाऐ = गवा के, दूर कर। हरि भाऐ = हरी को पसंद आए। सबदि = शबद में। नामि = नाम में। लिव लाऐ = लगन लगा के। उपजै = (हरि-रस) पैदा होता है। बिनसे = (अन रस साद) समाप्त हो जाता है। लऐ लवाऐ = लगा ले, लाम की लगन पैदा करता है।2। अर्थ: हे प्यारी जिंदे! गुरू की सेवा कर (गुरू की शरण पड़, और) परमात्मा का नाम सिमर, (इस तरह) तू अपने आप में से दूर नहीं जाएगी (माया कें मोह की भटकना से बच जाएगी)। (हे जिंदे!) हृदय घर में टिके रहने से परमात्मा मिल जाता है। जो जीव आत्मिक अडोलता में टिक के, सदा स्थिर प्रभू के प्रेम में जुड़ के सदा (प्रभू चरणों में) चित्त जोड़ता है, वह हृदय घर में टिका रह के परमात्मा को ढूँढ लेता है। (सो, हे जिंदे!) गुरू की बताई हुई सेवा बहुत सुख देने वाली है (पर ये सेवा वही मनुष्य करता है) जिससे परमात्मा खुद कराऐ (जिसे खुद प्रेरणा करे)। (वह मनुष्य फिर अपने हृदय खेत में) परमात्मा का नाम ही बीजता है (वहाँ) नाम ही उगता है, वह मनुष्य अपने मन में सदा नाम ही बसाए रखता है। हे नानक! सदा स्थिर प्रभू में जुड़ के, प्रभू नाम में टिक के (मनुष्य लोक-परलोक में) आदर पाता है, (नाम सिमरन की बरकति से) पहले जन्म में किए कर्मों के संस्कारों के लेख मनुष्य के अंदर अंकुरित हो जाते हैं।1। हे प्यारी जिंदे! परमात्मा का नाम मीठा है (पर ये तुम्हें तभी समझ आएगी) जब तू चित्त जोड़ के (ये नाम-रस) चखेगी। हे मेरी निष्कर्मण्य जीभ! परमात्मा के नाम का स्वाद चख, और अन्य रसों के स्वाद त्याग दे। (पर जीभ के भी क्या वश?) जब परमात्मा को ठीक लगे, तभी जीभ सदा परमात्मा के नाम का स्वाद लेती है, और गुरू के शबद में जुड़ के सुंदर हो जाती है। (हे जिंदे!) जो मनुष्य नाम सिमरता है नाम में सुरति जोड़े रखता है, वह सदा आत्मिक आनंद पाता है, नाम की बरकति से उसके अंदर (नाम-रस की तमन्ना) पैदा होती है, नाम की बरकति से (उसके अंदर से और रसों की पकड़) दूर हो जाती है, नाम सिमरन की बरकति से वह सदा स्थिर प्रभू में लीन रहता है। (पर) हे नानक! परमात्मा का नाम गुरू की मति पर चलने से ही मिलता है, परमात्मा खुद ही अपने नाम की लगन पैदा करता है।2। |
![]() |
![]() |
![]() |
![]() |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |