श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सलोकु ॥ धनु धनु कहा पुकारते माइआ मोह सभ कूर ॥ नाम बिहूने नानका होत जात सभु धूर ॥१॥

पवड़ी ॥ धधा धूरि पुनीत तेरे जनूआ ॥ धनि तेऊ जिह रुच इआ मनूआ ॥ धनु नही बाछहि सुरग न आछहि ॥ अति प्रिअ प्रीति साध रज राचहि ॥ धंधे कहा बिआपहि ताहू ॥ जो एक छाडि अन कतहि न जाहू ॥ जा कै हीऐ दीओ प्रभ नाम ॥ नानक साध पूरन भगवान ॥४॥ {पन्ना 251}

पद्अर्थ: कूर = झूठ, नाशवंत। धूर = धूल।1।

पवड़ी = पुनीत = पवित्र। जनूआ = दासों की। धनि = भाग्यों वाले। तेऊ = वह लोग। जिह मनूआ = जिन के मनों में। इआ रुच = इस (धूर) की तमन्ना। बाछहि = चाहते। आछहि = चाहते। रज = चरण धूड़। राचहि = रचे रहते हैं, मस्त रहते हैं। धंधे = जंजाल। ताहू = उन्हें। अन कतहि = किसी और जगह। हीअै = हृदय में।4।

अर्थ: (हे भाई!) क्यूं हर वक्त धन इकट्ठा करने के लिए चीखते-पुकारते रहते हो? माया का मोह तो झूठा ही है (इस धन ने सदा साथ नहीं निभना)। हे नानक! नाम से विहीन रहके सारा जगत ही व्यर्थ जीवन गुजार जाता है।1।

पवड़ी: हे प्रभू! तेरे सेवकों के चरणों की धूड़ पवित्र (करने वाली होती) है। वह लोग भाग्यशाली हैं, जिनके मन में इस धूड़ की तमन्ना है। (ऐसे मनुष्य इस चरन-धूड़ के मुकाबले में दुनिया वाला) धन नहीं चाहते, स्वर्ग की भी चाहत नहीं रखते, वे तो अपने अति प्यारे प्रभू की प्रीति में और गुरमुखों की चरण-धूड़ में ही मस्त रहते हैं। जो मनुष्य एक परमात्मा की ओट छोड़ के किसी और तरफ नहीं जाते, माया के कोई जंजाल उन पर जोर नहीं डाल सकते।

हे नानक! प्रभू ने जिनके हृदय में अपना नाम बसा दिया है, वह भगवान का रूप पूरे संत हैं।4।

सलोक ॥ अनिक भेख अरु ङिआन धिआन मनहठि मिलिअउ न कोइ ॥ कहु नानक किरपा भई भगतु ङिआनी सोइ ॥१॥

पउड़ी ॥ ङंङा ङिआनु नही मुख बातउ ॥ अनिक जुगति सासत्र करि भातउ ॥ ङिआनी सोइ जा कै द्रिड़ सोऊ ॥ कहत सुनत कछु जोगु न होऊ ॥ ङिआनी रहत आगिआ द्रिड़ु जा कै ॥ उसन सीत समसरि सभ ता कै ॥ ङिआनी ततु गुरमुखि बीचारी ॥ नानक जा कउ किरपा धारी ॥५॥ {पन्ना 251}

उच्चारण: यहां ‘ङ’ अक्षर का उच्चारण ‘ज्ञं’ करना है।

पद्अर्थ: ङिआन = ज्ञान, धर्म चर्चा। हठि = हठ से, जबरन, जोर लगा के। ङिआनी = ज्ञानी, परमात्मा के साथ गहरी सांझ डालने वाला।1।

पउड़ी: ङिआनु = परमात्मा के साथ जान पहिचान। मुख बातउ = मुंह की बातों से। अनिक भातउ जुगति = अनेको भांति की युक्तियों से। जा कै = जिस के हृदय में। जोगु = मिलाप। आगिआ = रजा। उसन = गरमी, दुख। सीत = सरदी, सुख। समसरि = बराबर।5।

अर्थ: अनेकों धार्मिक भेष धारण करने से, धर्म-चर्चा करने से, मन के हठ से समाधियां लगाने से कोई मनुष्य परमात्मा से नहीं मिल सकता। हे नानक! कह–जिस पर प्रभू की मेहर हो, वही भगत बन सकता है, वही परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाल सकता है।1।

पउड़ी- निरी मुंह से की गई बातों से, शास्त्रों की अनेकों किस्म की युक्तियों के इस्तेमाल से परमात्मा से जान-पहिचान नहीं हो सकती। निरी प्रभू मिलाप की बातें कहने-सुनने से प्रभू-मिलाप नहीं हो सकता। परमात्मा के साथ वही जान-पहिचान डाल सकता है, जिसके हृदय में प्रभू का पक्का निवास बने। जिसके दिल में परमात्मा की रजा पक्की टिकी रहे, वही असल ज्ञानी है, उसे सारा दुख-सुख एक समान प्रतीत होता है। हे नानक! जिस मनुष्य पर प्रभू कृपा करे, जो गुरू के द्वारा जगत के मूल प्रभू के गुणों का विचारवान बन जाए, उसकी सांझ परमात्मा के साथ बनती है।5।

सलोकु ॥ आवन आए स्रिसटि महि बिनु बूझे पसु ढोर ॥ नानक गुरमुखि सो बुझै जा कै भाग मथोर ॥१॥

पउड़ी ॥ या जुग महि एकहि कउ आइआ ॥ जनमत मोहिओ मोहनी माइआ ॥ गरभ कुंट महि उरध तप करते ॥ सासि सासि सिमरत प्रभु रहते ॥ उरझि परे जो छोडि छडाना ॥ देवनहारु मनहि बिसराना ॥ धारहु किरपा जिसहि गुसाई ॥ इत उत नानक तिसु बिसरहु नाही ॥६॥ {पन्ना 251}

पद्अर्थ: ढोर = पशु, महा मूर्ख। आऐ = जन्मे। मथोर = माथे पर।1।

पउड़ी। या जुग महि = इस मानस जन्म में। जनमत = जन्मते ही, पैदा होते ही। मोहनी = ठगनी। गरभ कुंट महि = माँ के पेट में। उरध = उल्टा। उरझि परे = उलझ पड़े, फस गए। मनहि = मन में से। गुसाई = हे सृष्टि के मालिक! इत उत = लोक परलोक में।

अर्थ: जगत में उन लोगों ने सिर्फ कहने मात्र को ही मानस जन्म लिया, पर जीवन का सही रास्ता समझे बिना वे पशु ही रहे (पशुओं वाली जिंदगी ही गुजारते रहे)। हे नानक! वह मनुष्य गुरू के द्वारा जीवन का सही रास्ता समझता है, जिसके माथे पर (पूबर्लि कर्मों के अच्छे कर्मों के) भाग्य जाग पड़ें।1।

पउड़ी- मनुष्य इस जन्म में सिर्फ परमात्मा का सिमरन करने के लिए जन्मा है, पर पैदा होते ही इसे ठगनी माया ठॅग लेती है। (ये आम प्रचलित विचार है कि) जीव माँ के पेट में उल्टे लटके हुए परमात्मा का भजन करते रहते हैं, वहां श्वास-श्वास प्रभू को सिमरते रहते हैं (पर प्रभू की अजब माया है कि) जिस माया को अवश्य ही छोड़ जाना है उससे सारी जिंदगी फसे रहते हैं। पर जो प्रभू सारे पदार्थ देने वाला है उसे मन से भुला देते हैं।

हे नानक! (कह–) हे मालिक प्रभू! जिस मनुष्य पर तू कृपा करता है, उसके मन से तू लोक-परलोक में कभी नहीं बिसरता।6।

सलोकु ॥ आवत हुकमि बिनास हुकमि आगिआ भिंन न कोइ ॥ आवन जाना तिह मिटै नानक जिह मनि सोइ ॥१॥

पउड़ी ॥ एऊ जीअ बहुतु ग्रभ वासे ॥ मोह मगन मीठ जोनि फासे ॥ इनि माइआ त्रै गुण बसि कीने ॥ आपन मोह घटे घटि दीने ॥ ए साजन कछु कहहु उपाइआ ॥ जा ते तरउ बिखम इह माइआ ॥ करि किरपा सतसंगि मिलाए ॥ नानक ता कै निकटि न माए ॥७॥ {पन्ना 251}

पद्अर्थ: हुकमि = हुकम अनुसार। आगिआ = आज्ञा, हुकम। भिंन = अलग, आकी। आवन जाना = आना और जाना, जनम मरण। तिह = उस का। जिह मनि = जिसके मन में।1।

पउड़ी। ऐऊ जीअ = ये जीव (बहुवचन)। ग्रभ = गर्भ, जूनियां। मगन = मस्त। इनि = इस ने। बसि = वश में। घटे घटि = घट घट में, हरेक शरीर में। ऐ = हे! उपाइआ = उपाय, उपचार, इलाज। तरउ = मैं तैरूँ। बिखम = मुश्किल। निकटि = नजदीक। माऐ = माइआ।7।

अर्थ: जीव प्रभू के हुकम में पैदा होता है, हुकम में ही मरता है। कोई भी जीव प्रभू के हुकम से आकी नहीं हो सकता। हे नानक! (सिर्फ) उस जीव का जन्म मरण (का चक्कर) खत्म होता है जिस के मन में वह (हुकम का मालिक प्रभू) बसता है।1।

पउड़ी- ये जीव अनेकों जूनियों में वास लेते हैं, मीठे मोह में मस्त हो के जूनियों के चक्कर में फंस जाते हैं। इस माया ने (जीवों को अपने) तीन गुणों के वश में कर रखा है, हरेक जीव के हृदय में इसने अपना मोह टिका दिया है।

हे सज्जन! कोई ऐसा इलाज बता, जिससे मैं इस मुश्किल माया (के मोह-रूप समुंद्र) में से पार लांघ सकूँ। हे नानक! (कह–) प्रभू अपनी मेहर करके जिस जीव को सत्संग में मिलाता है, माया उसके नजदीक नहीं (फटक सकती)।7।

सलोकु ॥ किरत कमावन सुभ असुभ कीने तिनि प्रभि आपि ॥ पसु आपन हउ हउ करै नानक बिनु हरि कहा कमाति ॥१॥

पउड़ी ॥ एकहि आपि करावनहारा ॥ आपहि पाप पुंन बिसथारा ॥ इआ जुग जितु जितु आपहि लाइओ ॥ सो सो पाइओ जु आपि दिवाइओ ॥ उआ का अंतु न जानै कोऊ ॥ जो जो करै सोऊ फुनि होऊ ॥ एकहि ते सगला बिसथारा ॥ नानक आपि सवारनहारा ॥८॥ {पन्ना 251}

पद्अर्थ: सुभ असुभ किरत = अच्छे बुरे काम। तिनि प्रभि = उस प्रभू ने। पसु = पशु, मूर्ख। हउ हउ करै = ‘मैं मैं’ करता है, अहंकार करता है कि मैं करता हूँ।1।

पउड़ी। ऐकहि = सिर्फ। पाप पुंन = बुरे अच्छे काम। इआ जग = इस मानस जनम में। जितु = जिस द्वारा। आपहि = स्वयं ही। उआ का = उस प्रभू का। फुनि = फिर, दुबारा।8।

अर्थ: (हरेक जीव में बैठ के) सब अच्छे बुरे काम वह स्वयं ही कर रहा है (प्रभू ने खुद किए हैं)। पर हे नानक! मूर्ख मनुष्य गुमान करता है कि मैं करता हूँ। प्रभू की प्रेरणा के बिना जीव कुछ भी नहीं कर सकता।1।

पउड़ी- (जीवों से अच्छे बुरे काम) कराने वाला प्रभू सिर्फ खुद ही है, उस ने खुद ही अच्छे बुरे कामों का पसारा पसारा हुआ है। इस मानस जनम में (भाव, जनम दे के) जिस जिस तरफ प्रभू खुद लगाता है (उधर ही जीव लगते हैं), जो (मति) प्रभू खुद जीवों को देता है, वही वे ग्रहण करते हैं। उस प्रभू के गुणों का कोई अंत नहीं जान सकता, (जगत में) वही कुछ हो रहा है जो प्रभू खुद करता है।

हे नानक! ये सारा जगत पसारा प्रभू का ही पसारा हुआ है, वह स्वयं ही जीवों को सीधे रास्ते पर डालने वाला है।8।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh