श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 250 ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सलोकु ॥ गुरदेव माता गुरदेव पिता गुरदेव सुआमी परमेसुरा ॥ गुरदेव सखा अगिआन भंजनु गुरदेव बंधिप सहोदरा ॥ गुरदेव दाता हरि नामु उपदेसै गुरदेव मंतु निरोधरा ॥ गुरदेव सांति सति बुधि मूरति गुरदेव पारस परस परा ॥ गुरदेव तीरथु अम्रित सरोवरु गुर गिआन मजनु अपर्मपरा ॥ गुरदेव करता सभि पाप हरता गुरदेव पतित पवित करा ॥ गुरदेव आदि जुगादि जुगु जुगु गुरदेव मंतु हरि जपि उधरा ॥ गुरदेव संगति प्रभ मेलि करि किरपा हम मूड़ पापी जितु लगि तरा ॥ गुरदेव सतिगुरु पारब्रहमु परमेसरु गुरदेव नानक हरि नमसकरा ॥१॥ {पन्ना 250} पद्अर्थ: बावन अखरी = ५२ अक्षरों वाली। महला = शरीर। महला ५ = गुरू नानक के पाँचवें शरीर में गुरू अरजन देव (जी की बाणी)। सखा = मित्र। अगिआन भंजनु = अज्ञान का नाश करने वाला। बंधपि = संबंधी। सहोदरा = (सह+उदर = एक ही माँ के पेट में से पैदा हुए) भाई। निरोधरा = जिसे रोका ना जा सके, जिसका असर गवाया ना जा सके। मंतु = मंत्र, उपदेश। सति = सत्य, सदा स्थिर प्रभू। बुधि = अक्ल। मूरति = स्वरूप। परस = छोह। अंम्रित सरोवरु = अमृत का सरोवर। मजनु = चॅुभी, स्नान। अपरंपरा = परे से परे। सभि = सारे। हरता = दूर करने वाला। पतित = (विकारों में) गिरे हुए, विकारी। पवित करा = पवित्र करने वाला। जुगु जुगु = हरेक युग में। जपि = जप के। उधरा = (संसार समुंद्र की विकारों की लहरों से) बच जाते हैं। प्रभ = हे प्रभू! जितु = जिससे। जितु लगि = जिस में लग के। नानक = हे नानक!।1। अर्थ: गुरू ही मां है, गुरू ही पिता है (गुरू ही आत्मिक जन्म देने वाला है), गुरू मालिक प्रभू का रूप है। गुरू (माया के मोह का) अंधकार नाश करने वाला मित्र है, गुरू ही (तोड़ निभाने वाला) संबंधी व भाई है। गुरू (असली) दाता है जो प्रभू के नाम का उपदेश देता है, गुरू का उपदेश ऐसा है जिस का असर (कोई विकार आदि) गवा नहीं सकते। गुरू शांति सत्य और बुद्धि का स्वरूप है, गुरू एक ऐसा पारस है जिसकी छोह पारस की छोह से श्रेष्ठ है। गुरू (सच्चा) तीर्थ है, अमृत का सरोवर है, गुरू के ज्ञान (-जल) का स्नान (सारे तीर्थों के स्नानों से) बहुत श्रेष्ठ है। गुरू करतार का रूप है, सारे पापों को दूर करने वाला है, गुरू विकारी लोगों (के हृदय) को पवित्र करने वाला है। जब से जगत बना है गुरू शुरू से ही हरेक युग में (परमात्मा के नाम का उपदेश-दाता) है। गुरू का दिया हुआ हरि-नाम मंत्र जप के (संसार-समुंद्र के विकारों की लहरों से) पार लांघ जाते हैं। हे प्रभू! मेहर कर, हमें गुरू की संगति दे, ता कि हम मूर्ख पापी उसकी संगति में (रह के) तर जाएं। गुरू परमेश्वर पारब्रहम् का रूप है। हे नानक! हरी के रूप गुरू को (सदा) नमस्कार करनी चाहिए।1। सलोकु ॥ आपहि कीआ कराइआ आपहि करनै जोगु ॥ नानक एको रवि रहिआ दूसर होआ न होगु ॥१॥ पउड़ी ॥ ओअं साध सतिगुर नमसकारं ॥ आदि मधि अंति निरंकारं ॥ आपहि सुंन आपहि सुख आसन ॥ आपहि सुनत आप ही जासन ॥ आपन आपु आपहि उपाइओ ॥ आपहि बाप आप ही माइओ ॥ आपहि सूखम आपहि असथूला ॥ लखी न जाई नानक लीला ॥१॥ {पन्ना 250} पद्अर्थ: आपहि = आप ही। रवि रहिआ = व्याप्त है। होगु = होगा। ओअं = हिन्दी वर्णमाला का पहला अक्षर। आदि = जगत के शुरू में। मधि = जगत की मौजूदगी में। अंति = जगत के आखिर में। सुंन = सुन्न, जहाँ कुछ भी ना हो। जासन = यश। आपु = अपने आप को। माइओ = माँ। असथूला = दृष्टमान जगत। लीला = खेल।1। अर्थ: सारी जगत रचना प्रभू ने खुद ही की है, स्वयं ही करने की स्मर्था वाला है। हे नानक! वह आप ही सारे जगत में व्यापक है, उससे बिना कोई और दूसरा नहीं है।1। पउड़ी: हमारी उस निरंकार को नमस्कार है जो स्वयं ही गुरू रूप धारण करता है, जो जगत के आरम्भ में भी स्वयं ही था, अब भी स्वयं ही है, जगत के अंत में भी स्वयं ही रहेगा। (जब जगत की हस्ती नहीं होती) निरा एकल-स्वरूप भी वह स्वयं ही होता है, स्वयं ही अपने सूक्ष्म-स्वरूप में टिका होता है, तब अपनी शोभा सुनने वाला भी स्वयं खुद ही होता है। अपने आप को दिखाई देते स्वरूप में लाने वाला भी स्वयं ही है, स्वयं ही (अपनी) माँ है, स्वयं ही (अपना) पिता है। अन-दिखते और दिखते स्वरूप वाला खुद ही है। हे नानक! (परमात्मा की ये जगत-रचना वाला) खेल बयान नहीं किया जा सकता।1। करि किरपा प्रभ दीन दइआला ॥ तेरे संतन की मनु होइ रवाला ॥ रहाउ ॥ पद्अर्थ: रवाला = चरण धूड़। रहाउ = केंद्रिय भाव। अर्थ: हे दीनों पर दया करने वाले प्रभू! मेरे पर मेहर कर। मेरा मन तेरे संत जनों के चरणों की धूड़ बना रहे। नोट: सारी बाणी बावन अखरी का केंद्रिय विचार इन उक्त पंक्तियों में निहित है। सलोकु ॥ निरंकार आकार आपि निरगुन सरगुन एक ॥ एकहि एक बखाननो नानक एक अनेक ॥१॥ पउड़ी ॥ ओअं गुरमुखि कीओ अकारा ॥ एकहि सूति परोवनहारा ॥ भिंन भिंन त्रै गुण बिसथारं ॥ निरगुन ते सरगुन द्रिसटारं ॥ सगल भाति करि करहि उपाइओ ॥ जनम मरन मन मोहु बढाइओ ॥ दुहू भाति ते आपि निरारा ॥ नानक अंतु न पारावारा ॥२॥ {पन्ना 250} पद्अर्थ: आकार = स्वरूप। निरंकार = आकार के बिना। गुन = माया के तीन स्वभाव (रज, तम व सत्व)। निरगुन = निर्गुण, जिस में माया के तीनों स्वभाव जोर नहीं डाल रहे। सरगुन = सर्गुण, वह स्वरूप जिस में माया के तीनों स्वाभाव मौजूद हैं। ऐकहि = एक ही।1। पउड़ी: अकारा = जगत रचना। सूति = सूत्र में, हुकम में। भिंन = अलग। बिसथार = विस्तार, खिलारा। द्रिषटारं = दृष्टमान हो गया, दिखाई दे गया। उपाइओ = उत्पक्ति। दुहू भाति = दोनों तरीके से, जन्म और मरण। अर्थ: आकार-रहित परमात्मा स्वयं ही (जगत-) अकार बनाता है। वह स्वयं ही (निरंकार रूप में) माया के तीनों स्वभावों से परे रहता है, और जगत रचना रच के माया के तीनों गुणों वाला हो जाता है। हे नानक! प्रभू अपने एक स्वरूप से अनेकों रूप बना लेता है, (पर, ये अनेक रूप उससे अलग नहीं हैं)। यही कहा जा सकता है कि वह एक खुद ही खुद है।1। पउड़ी: गुरमुख बनने के वास्ते प्रभू ने जगत-रचना की है। सारे जीव-जंतुओं को अपने एक ही हुकम-धागे में परो के रखने में स्मर्थ है। प्रभू ने अपने अदृष्य रूप से दृष्टमान जगत रचा है, माया के तीनों रूपों का अलग-अलग विस्तार कर दिया है। हे प्रभू! तूने सारी (अनेकों) किस्में बना के जगत उत्पक्ति की है, जनम-मरन का मूल जीवों के मन का मोह भी तूने ही बढ़ाया है, पर तू स्वयं इस जनम-मरन से अलग है। हे नानक! (कह–) प्रभू के इस छोर व उस छोर का अंत नहीं पाया जा सकता।2। सलोकु ॥ सेई साह भगवंत से सचु स्मपै हरि रासि ॥ नानक सचु सुचि पाईऐ तिह संतन कै पासि ॥१॥ पवड़ी ॥ ससा सति सति सति सोऊ ॥ सति पुरख ते भिंन न कोऊ ॥ सोऊ सरनि परै जिह पायं ॥ सिमरि सिमरि गुन गाइ सुनायं ॥ संसै भरमु नही कछु बिआपत ॥ प्रगट प्रतापु ताहू को जापत ॥ सो साधू इह पहुचनहारा ॥ नानक ता कै सद बलिहारा ॥३॥ {पन्ना 250} पद्अर्थ: सेई = वही लोग। भगवंत = धन वाले। से = वही लोग। संपै = संपक्ति, धन। रासि = पूँजी। सुचि = आत्मिक पवित्रता। तिह = उन।1। पवड़ी = सति = सदा स्थिर रहने वाला। सोऊ = वही आदमी जिसे। पायं = पाता है। संसै = सहसा, संशय, सहम। भरम = भटकना। बिआपत = व्याप्त, जोर डालता है। ताहू को = उस प्रभू का ही। जापत = प्रतीत होता है, दिखता है। इह = इस अवस्था तक।3। अर्थ: सलोक- (जीव जगत में हरी नाम का वणज करने आए हैं) जिनके पास परमात्मा का नाम-धन है, हरी के नाम की (वणज करने के लिए) पूँजी है, वही शाहूकार हैं, वही धनवान हैं। हे नानक! ऐसे संत-जनों से ही नाम-धन व आत्मिक पवित्रता हासिल होती है।1। पवड़ी- वह परमात्मा सदा स्थिर रहने वाला है, सदा स्थिर रहने वाला है, उस सदा स्थिर व्यापक प्रभू से अलग हस्ती वाला और कोई नहीं है। जिस मनुष्य को प्रभू अपनी शरण में लेता है, वही (शरण में) आता है, वह मनुष्य प्रभू का सिमरन करके उसकी सिफत सालाह करके औरों को भी सुनाता है। कोई संशय, सहम, कोई भटकना उस मनुष्य पर अपना जोर नहीं डाल सकता, (क्योंकि उसे हर जगह प्रभू ही प्रभू दिखता है) उसे हर जगह प्रभू का ही प्रताप प्रत्यक्ष दिखता है। जो मनुष्य इस आत्मिक अवस्था पर पहुँचता है, उसे साधू जानो। हे नानक! (कह–) मैं उससे सदा सदके हूँ।3। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |