श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 249 चेति मना पारब्रहमु परमेसरु सरब कला जिनि धारी ॥ करुणा मै समरथु सुआमी घट घट प्राण अधारी ॥ प्राण मन तन जीअ दाता बेअंत अगम अपारो ॥ सरणि जोगु समरथु मोहनु सरब दोख बिदारो ॥ रोग सोग सभि दोख बिनसहि जपत नामु मुरारी ॥ बिनवंति नानक करहु किरपा समरथ सभ कल धारी ॥३॥ गुण गाउ मना अचुत अबिनासी सभ ते ऊच दइआला ॥ बिस्मभरु देवन कउ एकै सरब करै प्रतिपाला ॥ प्रतिपाल महा दइआल दाना दइआ धारे सभ किसै ॥ कालु कंटकु लोभु मोहु नासै जीअ जा कै प्रभु बसै ॥ सुप्रसंन देवा सफल सेवा भई पूरन घाला ॥ बिनवंत नानक इछ पुनी जपत दीन दैआला ॥४॥३॥ {पन्ना 249} पद्अर्थ: सरब = सब में। जिनि = जिस ने। करुणा = तरस। करुणामै = करुणा+मय, तरस स्वरूप। अधारी = आसरा। जीअ दाता = जिंद देने वाला। अगम = अपहुँच। सरणि जोगु = आसरा देने के काबिल। बिदारो = नाश करने वाला। सभि = सारे।3। अचुत = (च्यु = गिर पड़ना, च्युत = गिरा हुआ) जो कभी ना गिरे, सदा अटल रहने वाला। बिसंभरु = विश्वं+भर, सारे जगत को पालने वाला। दाना = जानने वाला। सभ किसै = हरेक जीव पर। कंटकु = काँटा। कालु = मौत (का सहम)। जीअ जा कै = जिसके हृदय में। सुप्रसन्न = अच्छी तरह प्रसन्न। घाला = मेहनत। इछ = इच्छा। जपत = जपते हुए।4। अर्थ: हे (मेरे) मन! पारब्रहम् परमेश्वर को याद रख, जिसने सब में अपनी सक्ता टिकाई हुई है, जो करुणामय है, सब ताकतों वाला है, सब का मालिक है, और जो हरेक शरीर का सबकी जिंद का आसरा है, जो प्राण मन तन और जिंद देने वाला है, बेअंत है, अपहुँच है, और अपार है, जो शरण पड़ने वाले की सहायता करने के काबिल है, जो सब ताकतों का मालिक है सुंदर है और सारे विकारों का नाश करने वाला है। हे मन! मुरारी प्रभू का नाम जपते ही सारे रोग, सारे फिक्र, सारे ऐब नाश हो जाते हैं। नानक विनती करता है– हे सब ताकतों के मालिक! हे सबमें अपनी सक्ता टिकाने वाले प्रभू! (मुझ पर) मेहर कर (मैं भी तेरा नाम सदा सिमरता रहूँ)।3। हे (मेरे) मन! तू उस पारब्रहम् के गुण गा, जो सदा अटल रहने वाला है, जो कभी नाश नहीं होता, जो सबसे ऊूंचा है और दया का घर है, जो सारे जगत को पालने वाला है, जो स्वयं ही सब कुछ देने के काबिल है, जो सब की पालना करता है। (हे मेरे मन!) वह परमात्मा हरेक जीव पर दया करता है, हरेक के दिल की जानने वाला है। बड़ा ही दयालु और पालना करने वाला है। जिस मनुष्य के हृदय में वह प्रभू आ बसता है, उसके अंदर से लोभ मोह और दुखदाई (काँटे के समान चुभता रहने वाला) मौत का सहम दूर हो जाता है। (हे मन!) जिस मनुष्य पर प्रभू-देव जी अच्छी तरह प्रसन्न हो जाएं, उसकी की हुई सेवा को फल लग जाता है, उसकी की मेहनत सफल हो जाती है। नानक विनती करता है– गरीबों पर दया करने वाले परमात्मा का नाम जपने से इच्छा पूरी हो जाती है।4।3। गउड़ी महला ५ ॥ सुणि सखीए मिलि उदमु करेहा मनाइ लैहि हरि कंतै ॥ मानु तिआगि करि भगति ठगउरी मोहह साधू मंतै ॥ सखी वसि आइआ फिरि छोडि न जाई इह रीति भली भगवंतै ॥ नानक जरा मरण भै नरक निवारै पुनीत करै तिसु जंतै ॥१॥ सुणि सखीए इह भली बिनंती एहु मतांतु पकाईऐ ॥ सहजि सुभाइ उपाधि रहत होइ गीत गोविंदहि गाईऐ ॥ कलि कलेस मिटहि भ्रम नासहि मनि चिंदिआ फलु पाईऐ ॥ पारब्रहम पूरन परमेसर नानक नामु धिआईऐ ॥२॥ {पन्ना 249} पद्अर्थ: सखीऐ = हे सहेलिए! (हे सत्संगी सज्जन!) मिलि = मिल के। करेहा = हम करें। मनाइ लेहि = हम राजी कर लें। कंतै = कंत को। तिआगि = छोड़ के। करि = बना के। ठगउरी = ठग बूटी, वह बूटी जो ठॅग किसी को खिला के उसे बेहोश कर देता है और उसे लूट लेता है। मोहह = हम मोह लें। साधू मंते = गुरू के उपदेश से। सखी = हे सहेली! व्सि = वश में। भगवंतै = भगवान की। जरा = बुढ़ापा। मरण = मौत। निवारै = दूर करता है। पुनीत = पवित्र। जंते = जीव को।1। मतांतु = सलाह मश्वरा। पकाइअै = पक्का करें। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्रेम में। उपाधि = छल, फरेब। गोविंदहि = गोविंद के। कलि = (विकारों की) खह खह, झगड़ा, कलेष। मिटहि = मिट जाते हैं। मनि = मन में। चिंदिआ = चितवा हुआ। पाईअै = पा लेते हैं।2। अर्थ: हे सहेलिए! (हे सत्संगी सज्जन! मेरी विनती) सुन (आ,) मिल के भजन करें (और) कंत-प्रभू को (अपने ऊपर) खुश कर लें। अहंकार दूर करके (और कंत-प्रभू की) भक्ती को ठॅग-बूटी बना के (इस बूटी के साथ उस प्रभू-पति को) गुरू के उपदेश द्वारा (गुरू के उपदेश पर चल के) मोह लें। हे सहेली! उस भगवान की ये सुंदर मर्यादा है कि यदि वह एक बार प्रेम वश हो जाए तो फिर कभी छोड़ के नहीं जाता। हे नानक! (जो जीव कंत-प्रभू की शरण आता है) उस जीव को वह पवित्र (जीवन वाला) बना देता है (उसके पवित्र आत्मिक जीवन को वह प्रभू) बुढ़ापा नहीं आने देता, मौत नहीं आने देता, उसके सारे सारे डर व नर्क (बड़े से बड़े दुख) दूर कर देता है।1। हे सहेलिए! (हे सत्संगी सज्जन! मेरी) ये भली विनती (सुन। आ) ये सलाह पक्की करें (कि) आत्मिक अडोलता में प्रभू-प्रेम में टिक के (अपने अंदर से) छल-फरेब दूर करके गोबिंद (की सिफत सालाह) के गीत गाएं। (गोबिंद की सिफत सालाह करने से, अंदर से विकारों की) खह खह झगड़े और अन्य सारे कलेष मिट जाते हैं (माया के पीछे मन की) दौड़-भाग समाप्त हो जाती हैं, मन में चतवा हुआ फल प्राप्त हो जाता है। हे नानक! (कह– हे सत्संगी सज्जन!) पारब्रहम् पूर्ण परमेश्वर का नाम (सदा) सिमरना चाहिए।2। सखी इछ करी नित सुख मनाई प्रभ मेरी आस पुजाए ॥ चरन पिआसी दरस बैरागनि पेखउ थान सबाए ॥ खोजि लहउ हरि संत जना संगु सम्रिथ पुरख मिलाए ॥ नानक तिन मिलिआ सुरिजनु सुखदाता से वडभागी माए ॥३॥ सखी नालि वसा अपुने नाह पिआरे मेरा मनु तनु हरि संगि हिलिआ ॥ सुणि सखीए मेरी नीद भली मै आपनड़ा पिरु मिलिआ ॥ भ्रमु खोइओ सांति सहजि सुआमी परगासु भइआ कउलु खिलिआ ॥ वरु पाइआ प्रभु अंतरजामी नानक सोहागु न टलिआ ॥४॥४॥२॥५॥११॥ {पन्ना 249} पद्अर्थ: इछ = इच्छा, तांघ। करी = करीं, मैं करती हूँ। सुख मनाई = मैं सुख मनाती हूँ, सुखना सुखती हूँ। प्रभ = हे प्रभू! पुजाऐ = पुजाए, पूरी कर। बैरागनि = उतावली, व्याकुल, वैराग में आई हुई। पेखउ = पेखउं, मैं देखती हूँ। सबाऐ = सभी। खोजि = खोज कर कर के। लहउ = लहउं, मैं ढूँढती हूँ। संगु = साथ। संम्रिथु = स्मर्थ, सारी ताकतों का मालिक। पुरख = सर्व व्यापक। सुरिजनु = देव लोक का वासी। से = वह (बहुवचन)। माऐ = हे माँ!।3। सखी = हे सहेलीए! (हे सत्संगी सज्जन!)। वसा = वसां, मैं बसती हूँ। अपुने नाह नालि = अपने नाथ (पति) के साथ। संगि = साथ। हिलिआ = हिल मिल गया। भ्रमु = भटकना। सहजि = आत्मिक अडोलता में। परगासु = रोशनी। खिलिआ = खिल गया है। वरु = पति। अंतरजामी = सब के दिल की जानने वाला। सोहागु = सौभाग्य, अच्छा भाग्य।4। अर्थ: (हे सहेलिए!) मैं सदा चाहत करती रहती हूँ और सुखना सुखती रहती हूँ (कि) हे प्रभू! मेरी आस पूरी कर, मैं तेरे दर्शनों के लिए उतावली हुई तुझे हर जगह तलाशती फिरती हूँ। (हे सहेलीये! प्रभू की) खोज कर कर के मैं संत-जनों का साथ (जा) ढूँढती हूँ (साध-संगति ही उस प्रभू का) मेल कराती है जो सारी ताकतों का मालिक है और जो सब में व्यापक है। हे नानक! (कह–) हे माँ! (जो मनुष्य साध-संगति में मिलते हैं) उन्हें ही देव-लोक का मालिक और सारे सुख देने वाला प्रभू मिलता है वही मनुष्य बहुत भाग्यशाली हैं।3। हे सहेलिए! (साध-संगति की बरकति से अब) मैं (सदा) अपने प्रभू पति के साथ आ बसती हूँ, मेरा मन उस हरी के साथ हिल-मिल गया है, मेरा तन (हृदय) उस हरी के साथ एक-मेक हो गया है। हे सहेलिए! सुन, (अब) मुझे नींद भी प्यारी लगती है, (क्योंकि, सपने में भी) मुझे अपना प्यारा पति मिलता है। उस मालिक प्रभू ने मेरी भटकना दूर कर दी है, मेरे अंदर अब शान्ति बनी रहती है, मैं आत्मिक अडोलता में टिकी रहती हूँ, (मेरे अंदर उसकी ज्योति की) रोशनी हो गई है (जैसे सूर्य की किरणों से) कमल-फूल खिल जाता है (वैसे ही उसकी ज्योति के प्रकाश से मेरा हृदय खिला, प्रसन्न-चिक्त रहता है)। हे नानक! (कह– हे सहेलिए! साध-संगति की बरकति से) मैंने अंतरजामी प्रभू-पति ढूँढ लिया है, और (मेरे सिर का) ये सुहाग कभी दूर होने वाला नहीं।4।4।2।5।11। नोट: महला ५ के छंत– 4 |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |