श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
![]() |
![]() |
![]() |
![]() |
![]() |
Page 248 गउड़ी२ महला ५ ॥ मोहन तेरे ऊचे मंदर महल अपारा ॥ मोहन तेरे सोहनि दुआर जीउ संत धरम साला ॥ धरम साल अपार दैआर ठाकुर सदा कीरतनु गावहे ॥ जह साध संत इकत्र होवहि तहा तुझहि धिआवहे ॥ करि दइआ मइआ दइआल सुआमी होहु दीन क्रिपारा ॥ बिनवंति नानक दरस पिआसे मिलि दरसन सुखु सारा ॥१॥ {पन्ना 248} पद्अर्थ: मोहन = हे मोहन, हे मन को मोह लेने वाले प्रभू! (Mohan = an epithet of Siva) (‘मन मोहनि मोहि लीआ’ = गउड़ी म:३ छंत, पन्ना245। ‘मोहनि मोहि लीआ मनु’ = तुखारी म:१, पन्ना1112। ‘मोहनि मोहि लीआ’ = बसंत म:१, पन्ना1187। ‘मोहन नीद न आवै’ - बिलावल म:५, पन्ना 830। ‘मोहन माधव क्रिशन’ - मारू म:५, पन्ना 1082)। नोट: किसी मन घड़ंत कहानी पर ऐतबार करके इस शब्द ‘मोहन’ को बाबा मोहन के बाबत इस्तेमाल करना भारी भूल है। बाबा मोहन जी के छोटे से चुबारे को सतिगुरू जी ‘महल अपारा’ नहीं कह सकते थे। सोहनि = शोभा दे रहे हैं। दैआर = दयाल। गावहे = गाते हैं। (नोट: बाबा मोहन जी का कीर्तन कहीं भी किसी भी धर्मशाला में ना गाते रहे हैं, ना अब गाते हैं)। तुझहि = (हे मोहन प्रभू!) तुझे। (बाबा मोहन जी को नहीं)। सुआमी = हे स्वामी प्रभू! (बाबा मोहन जी को नहीं कहा जा रहा)। क्रिपारा = कृपाल। दरसन सुखु = दर्शन का सुख। सारा = लेते हैं।1। अर्थ: हे मन को मोह लेने वाले प्रभू!तेरे ऊँचे मंदिर हैं, तेरे महल ऐसे हैं कि उनका परला छोर नहीं दिखता। हे मोहन! तेरे दर पे तेरे धर्म-स्थानों में, तेरे संत जन (बैठे) सुंदर लग रहे हैं। हे बेअंत प्रभू! हे दयाल प्रभू! हे ठाकुर! तेरे धर्म स्थानों में, तेरे संत जन सदा तेरा कीर्तन गाते हैं। (हे मोहन!) जहाँ भी साध-संत एकत्र होते हैं वहां तुझे ही ध्याते हैं। हे दया के घर मोहन! हे सब के मालिक मोहन! तू दया करके तरस करके गरीबों-अनाथों पर कृपा करता है। (हे मोहन!) नानक विनती करता है–तेरे दर्शन के प्यासे (तेरे संत जन) तुझे मिल के तेरे दर्शन का सुख प्राप्त करते हैं।1। मोहन तेरे बचन अनूप चाल निराली ॥ मोहन तूं मानहि एकु जी अवर सभ राली ॥ मानहि त एकु अलेखु ठाकुरु जिनहि सभ कल धारीआ ॥ तुधु बचनि गुर कै वसि कीआ आदि पुरखु बनवारीआ ॥ तूं आपि चलिआ आपि रहिआ आपि सभ कल धारीआ ॥ बिनवंति नानक पैज राखहु सभ सेवक सरनि तुमारीआ ॥२॥ {पन्ना 248} पद्अर्थ: मोहन = हे मोहन प्रभू! अनूप = सुंदर। निराली = अनोखी, अलग किस्म की। तूं = तुझे। (नोट: ‘तूं’ ‘तुझे’ के अर्थों अनेकों बार बरता गया है। उदाहरण के तौर पर: ‘जिनि तूं साजि सवारिआ’ – सिरीराग म:५, पन्ना 51। ‘जिन तूं सेविआ भाउ करि’ – सिरी राग म:५, पन्ना 52। ‘गुरमति तूं सलाहणा’ – सिरी राग म:१, पन्ना61। ‘जिन तूं जाता’ – माझ म:१, प:100। ‘तिसु कुरबानी जिनि तूं सुणिआ’ – माझ म:५, प:102। ‘गुर परसादी तूं परवाणिआ’ – माझ म:५, प:130। ‘जिनि तूं साजि सवारि सीगारिआ’ – सुखमनी म:५, प:266।) मानहि = (सारे जीव) मानते हैं। राली = मिट्टी, नाशवंत। जिनहि = जिस ने। कल = सत्ता, ताकत। तुधु = तुझे। बचनि = बचन से। बनवारीआ = जगत का मालिक। पैज = लाज।2। अर्थ: हे मोहन! तेरी सिफत सालाह के बचन सुंदर लगते हैं। तेरी चाल (जगत के जीवों की चाल से) अलग है। हे मोहन जी! (सारे जीव) सिर्फ तुझे ही (सदा कायम रहने वाला) मानते हैं, और सारी सृष्टि नाशवंत है। हे मोहन! सिर्फ तुझ एक को (स्थिर) मानते हैं– सिर्फ तुझे- जिसका स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता, जो तू सबका पालणहार है और जिस तुझ ने सारी सृष्टि में अपनी सत्ता वरताई हुई है। हे मोहन! तुझे (तेरे भक्तों ने) गुरू के बचनों द्वारा (प्यार-) वश किया हुआ है, तू सब का आदि है, तू सर्व-व्यापक है, तू सारे जगत का मालिक है। हे मोहन! (सारे जीवों में मौजूद होने के कारण) तू स्वयं ही (उम्र भोग के जगत से) चला जाता है, फिर भी तू ही खुद सदा कायम रहने वाला है, तूने ही जगत में अपनी सत्ता पसारी हुई है। नानक विनती करता है– (अपने सेवकों की तू स्वयं ही) लाज रखता है, सारे सेवक-भगत तेरी ही शरण पड़ते हैं।2। मोहन तुधु सतसंगति धिआवै दरस धिआना ॥ मोहन जमु नेड़ि न आवै तुधु जपहि निदाना ॥ जमकालु तिन कउ लगै नाही जो इक मनि धिआवहे ॥ मनि बचनि करमि जि तुधु अराधहि से सभे फल पावहे ॥ मल मूत मूड़ जि मुगध होते सि देखि दरसु सुगिआना ॥ बिनवंति नानक राजु निहचलु पूरन पुरख भगवाना ॥३॥ {पन्ना 248} पद्अर्थ: तुधु = तुझे। मोहन = हे मोहन प्रभू! निदाना = अंत को। लगै नाही = छू नहीं सकता। इक मनि = एकाग्र मन से। धिआवहे = ध्याते हैं। मनि = मन से। बचनि = बचनों से। करमि = करम से। पावहे = पाते हैं। मल मूत = गंदे विकारी। जि = जो मनुष्य। सि = वह। देखि = देख के। सुगिआना = सियाने, समझदार। पूरन पुरख = हे पूर्ण सर्व व्यापक! (बाबा मोहन जी को इस प्रकार संबोधन नहीं किया जा सकता था)।3। अर्थ: हे मोहन प्रभू!तुझे साध-संगति ध्याती है, तेरे दर्शन का ध्यान धरती है। हे मोहन प्रभू! जो जीव तुझे जपते हैं, अंत के समय मौत का सहम उनके नजदीक नहीं फटकता। जो एकाग्र मन से तेरा ध्यान धरते हैं, मौत का सहम उन्हें छू नहीं सकता (आत्मिक मौत उन पर प्रभाव नहीं डाल सकती)। जो मनुष्य अपने मन से, अपने बोलों से, अपने कर्मों से, तुझे याद करते रहते हैं, वे सारे (मन-इच्छित) फल प्राप्त कर लेते हैं। हे सर्व-व्यापक! हे भगवान! वह मनुष्य भी तेरा दर्शन करके ऊूंची समझ वाले हो जाते हैं जो (पहले) गंदे-कुकर्मी व महामूर्ख होते हैं। नानक विनती करता है– हे मोहन! तेरा राज सदा कायम रहने वाला है।3। मोहन तूं सुफलु फलिआ सणु परवारे ॥ मोहन पुत्र मीत भाई कुट्मब सभि तारे ॥ तारिआ जहानु लहिआ अभिमानु जिनी दरसनु पाइआ ॥ जिनी तुधनो धंनु कहिआ तिन जमु नेड़ि न आइआ ॥ बेअंत गुण तेरे कथे न जाही सतिगुर पुरख मुरारे ॥ बिनवंति नानक टेक राखी जितु लगि तरिआ संसारे ॥४॥२॥ {पन्ना 248} पद्अर्थ: मोहन = हे मोहन प्रभू! सुफलु = फल वाला, बाग परिवार वाला, जगत रूपी परिवार वाला। सणु = समेत। सणु परवारे = परिवार समेत हैं, बेअंत जीवों का पिता है। पुत्र मीत भाई कुटंब सभि = पुत्र मित्र भाईयों वाला सारा परिवार। (नोट: बाबा मोहन जी ने सारी उम्र विवाह नहीं किया था, उनका कोई परिवार नहीं था)। तारिआ जहानु = तूने सारा जहां तार दिया (बाबा मोहन जी नहीं, ये मोहन प्रभू ही हो सकता है)। टेक = आसरा। जितु = जिस ‘टेक’ की बरकति से।4। अर्थ: हे मोहन प्रभू! तू बहुत सुंदर फलीभूत है, तू बहुत बड़े परिवार वाला है। हे मोहन प्रभू! पुत्र, भाईयों, मित्रों वाले बड़े-बड़े परिवार तू सारे के सारे (संसार समुंद्र से) पार लंघा देता है। हे मोहन! जिन्होंने तेरा दर्शन किया, उनके अंदर से तूने अहंकार दूर कर दिया। तू सारे जहान को तारने की स्मर्था रखने वाला है। हे मोहन! जिन (भाग्यशालियों ने) तेरी सिफत सालाह की, आत्मिक मौत उनके नजदीक नहीं फटकती। हे सबसे बड़े! सर्व-व्यापक प्रभू! तेरे गुण बेअंत हैं, बयान नहीं किए जा सकते। नानक विनती करता है– मैंने तेरा ही आसरा लिया है, जिस आसरे की बरकति से मैं इस संसार समुंद्र से पार लांघ रहा हूँ।4।2। गउड़ी३ महला ५ ॥ सलोकु ॥ पतित असंख पुनीत करि पुनह पुनह बलिहार ॥ नानक राम नामु जपि पावको तिन किलबिख दाहनहार ॥१॥ छंत ॥ जपि मना तूं राम नराइणु गोविंदा हरि माधो ॥ धिआइ मना मुरारि मुकंदे कटीऐ काल दुख फाधो ॥ दुखहरण दीन सरण स्रीधर चरन कमल अराधीऐ ॥ जम पंथु बिखड़ा अगनि सागरु निमख सिमरत साधीऐ ॥ कलिमलह दहता सुधु करता दिनसु रैणि अराधो ॥ बिनवंति नानक करहु किरपा गोपाल गोबिंद माधो ॥१॥ सिमरि मना दामोदरु दुखहरु भै भंजनु हरि राइआ ॥ स्रीरंगो दइआल मनोहरु भगति वछलु बिरदाइआ ॥ भगति वछल पुरख पूरन मनहि चिंदिआ पाईऐ ॥ तम अंध कूप ते उधारै नामु मंनि वसाईऐ ॥ सुर सिध गण गंधरब मुनि जन गुण अनिक भगती गाइआ ॥ बिनवंति नानक करहु किरपा पारब्रहम हरि राइआ ॥२॥ {पन्ना 248-249} पद्अर्थ: पतित = (विकारों में) गिरे हुए। असंख = अनगिनत (संख्या = गिनती)। करि = करे, करता है। पुनह पुनह = पुनःपुनः, बार बार। पावको = पावक, आग। तिन = तृण, तिनका, तीला। किलबिख = पाप। दाहनहार = जलाने की स्मर्था रखने वाला।1। छंत: मना = हे मन! माधो = माधव, माया का पति (धव = पति) परमात्मा। मुरारि = मुर+अरि (अरि = वैरी) मुर दैत्य का वैरी, परमात्मा। मुकंद = मुक्ति दाता। फाधो = फाही। दुखहरण = दुखों का नाश करने वाला। दीन = गरीब। स्रीधर = श्री धर, लक्ष्मी का आसरा। पंथु = रास्ता। बिखड़ा = मुश्किल। निमख = आँख झपकने जितना समय। साधीअै = साध लेते हैं, ठीक कर लेते हैं। कलमलह = पापों को। दहता = जलाने वाला। सुधु = पवित्र। करता = करने वाला। रैणि = रात। गोपाल = हे गोपाल!1। दामोदरु = दामन+उदर, (दामन = रस्सी। उदर = पेट) जिस पेट के इर्द-गिर्द रस्सी (तगाड़ी) बंधी है, अर्थात कृष्ण, परमात्मा। स्री रंगो = श्री रंग, माया का पति। भगति वछलु = भगती से प्यार करने वाला। बिरदाइआ = बिरद रखने वाला, मेहर करने वाला मूल स्वभाव। मनहि = मन में। चिंदिआ = चितवा हुआ, सोचा हुआ। तम = अंधेरा। अंध कूप = अंधा कूँआ। ते = से, में से। मंनि = मनि, मन में। सुर = देवते। सिध = सिद्ध, करामाती जोगी। गण = शिव जी के दास-देवते। गंधरब = गंधर्व, देवतों के गवईऐ। मुनि जन = ऋषि जन। भगती = भगतीं, भगतों ने। हरि राइआ = हे प्रभू पातशाह!।2। अर्थ: सलोक। हे नानक! परमात्मा का नाम जप, (इस नाम से) बारंबार कुर्बान हो। ये नाम अनगिनत विकारियों को पवित्र कर देता है। (जैसे) आग (घास के) तीलों को, (वैसे ही ये हरी नाम) पापों को जलाने की ताकत रखता है।1। छंत। हे मेरे मन! तू राम नारायण गोबिंद हरी माधव (के नाम) को जप। हे मेरे मन! तू मुकंद मुरारी की आराधना कर। (इस आराधना की बरकति से) मौत और दुखों की फाही काटी जाती है। (हे मन!) उस परमात्मा के सोहणे चरणों की आराधना करनी चाहिए, जो दुखों का नाश करने वाले हैं, जो गरीबों का सहारा हैं, जो लक्ष्मी का आसरा हैं। हे मन! जमों का मुश्किल रास्ता, और (विकारों की) आग (से भरा हुआ संसार-) समुंद्र को रक्ती भर समय के नाम सिमरन से ही खूबसूरत बनाया जा सकता है। (हे मेरे मन! इसलिए) दिन रात उस हरी के नाम को सिमरता रह, जो पापों को जलाने वाला है और जो पवित्र करने वाला है। नानक विनती करता है– हे गोपाल! हे गोबिंद! हे माधो! मेहर कर (मैं तेरा नाम हमेशा सिमरता रहूँ)।1। हे मेरे मन! उस प्रभू पातशाह दामोदर को सिमर, जो दुखों को दूर करने वाला है, जो डरों का नाश करने वाला है, जो लक्ष्मी का पति है, जो दया का श्रोत है, जो मन को मोह लेने वाला है, और भक्ति से प्यार करना जिसका मेहर भरा मूल स्वाभाव है। (हे भाई!) अगर भक्ति से प्यार करने वाले पूर्ण पुरख का नाम मन में बसा लें, तो मन में चितवा हुआ हरेक मनोरथ पा लिया जाता है, वह हरी नाम माया के मोह के अंधे कूएँ के अंधकार में से निकाल लेता है। (हे मेरे मन!) देवते, करामाती जोगी, शिव जी के दास-देवते, देवतों के गवईए, ऋषि लोग और अनेकों ही भक्त जन उसी परमात्मा के गुण गाते आ रहे हैं। नानक विनती करता है– हे प्रभू पातशाह! मेहर कर (कि मैं भी तेरा नाम सदा सिमरता रहूँ)।2। |
![]() |
![]() |
![]() |
![]() |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |