श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सलोकु ॥ पति राखी गुरि पारब्रहम तजि परपंच मोह बिकार ॥ नानक सोऊ आराधीऐ अंतु न पारावारु ॥१॥

पउड़ी ॥ पपा परमिति पारु न पाइआ ॥ पतित पावन अगम हरि राइआ ॥ होत पुनीत कोट अपराधू ॥ अम्रित नामु जपहि मिलि साधू ॥ परपच ध्रोह मोह मिटनाई ॥ जा कउ राखहु आपि गुसाई ॥ पातिसाहु छत्र सिर सोऊ ॥ नानक दूसर अवरु न कोऊ ॥३७॥ {पन्ना 258}

पद्अर्थ: गुरि = गुरू ने। तजि = त्यागे, त्याग देता है।1।

परमिति = मिति से परे, जिसे नापा ना जा सके, जिसकी हस्ती का अंदाजा ना लगाया जा सके। पतित = (विकारों में) गिरे हुए। कोटि अपराधू = करोड़ों अपराधी। साधू = गुरू। मिलि = मिल के। परपच = परपंच, ठॅगी, धोखा। मिट = मिटे, मिटता है। नाई = प्रभू की सिफत सलाह से। गुसाई = हे गुसाई।37।

अर्थ: जिस मनुष्य की इज्जत गुरू पारब्रहम ने रख ली, उस ने ठगी मोह विकार (आदि) त्याग दिए। हे नानक! (इस वास्ते) उस पारब्रहम को सदा आराधना चाहिए जिसके गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता, जिसकी हस्ती का इस पार उस पार (छोर) नहीं ढूँढा जा सकता।1।

पउड़ी- हरी प्रभू अपहुँच है, विकारों में गिरे हुए लोगों को पवित्र करने वाला है, उसकी हस्ती का अंदाजा नहीं लग सकता, अंत नहीं पाया जा सकता। करोड़ों ही वह अपराधी पवित्र हो जाते हैं जो गुरू को मिल के प्रभू का आत्मिक जीवन देने वाला नाम जपते हैं।

हे सृष्टि के मालिक! जिस मनुष्य की तू खुद रक्षा करता है, तेरी सिफत सालाह की बरकति से उसके अंदर से ठॅगी-फरेब-मोह आदि विकार मिट जाते हैं।

हे नानक! प्रभू शाहों का शाह है, वही असल छत्र धारी है, कोई और दूसरा उसकी बराबरी करने के लायक नहीं है।37।

सलोकु ॥ फाहे काटे मिटे गवन फतिह भई मनि जीत ॥ नानक गुर ते थित पाई फिरन मिटे नित नीत ॥१॥

पउड़ी ॥ फफा फिरत फिरत तू आइआ ॥ द्रुलभ देह कलिजुग महि पाइआ ॥ फिरि इआ अउसरु चरै न हाथा ॥ नामु जपहु तउ कटीअहि फासा ॥ फिरि फिरि आवन जानु न होई ॥ एकहि एक जपहु जपु सोई ॥ करहु क्रिपा प्रभ करनैहारे ॥ मेलि लेहु नानक बेचारे ॥३८॥ {पन्ना 258}

पद्अर्थ: गवन = भटकन। फतहि = विकारों पर जीत। मनि जीत = मन को जीतने से। थिति = स्थिति, मन की अवस्था। नित नीत = सदा के लिए। फिरन = जनम मरन के फेर।1।

पउड़ी। कलिजुग महि = संसार में। इआ अउसरु = ऐसा मौका। कटीअहि = काटे जाते हैं, काटे जाएंगे। बेचारे = बेवस जीव को, जिस के वश की बात नहीं।38।

नोट: (कलिजुग महि) यहां युगों के निर्णय का जिक्र नहीं है, यहां भाव है = जगत में, संसार में।

अर्थ: हे नानक! अगर अपने मन को जीत लें, (वश में कर लें) तो (विकारों पर) जीत प्राप्त हो जाती है, माया के मोह के बंधन काटे जाते हैं, और (माया के पीछे की) भटकना समाप्त हो जाती है। जिस मनुष्य को गुरू से मन की अडोलता मिल जाती है, उसके जनम मरन के चक्कर सदा के लिए समाप्त हो जाते हैं।1।

पउड़ी- (हे भाई!) तू अनेकों जूनियों में भटकता आया है, अब तुझे संसार में ये मानस जनम मिला है, जो बड़ी मुश्किल से ही मिला करता है। (अगर तू अब भी विकारों के बंधनों में फंसा रहा, तो) ऐसा (सुंदर) मौका फिर नहीं मिलेगा। (हे भाई!) अगर तू प्रभू का नाम जपेगा, तो माया वाले सारे बंधन काटे जाएंगे। केवल एक परमात्मा का नाम जपा कर, बार बार जनम मरन का चक्कर नहीं रह जाएगा।

(पर) हे नानक! (प्रभू के आगे अरदास कर और कह–) हे सृजनहार प्रभू! (माया-ग्रसित जीव के वश की बात नहीं), तू स्वयं कृपा कर, और इस बिचारे को अपने चरणों में जोड़ ले।38।

सलोकु ॥ बिनउ सुनहु तुम पारब्रहम दीन दइआल गुपाल ॥ सुख स्मपै बहु भोग रस नानक साध रवाल ॥१॥

पउड़ी ॥ बबा ब्रहमु जानत ते ब्रहमा ॥ बैसनो ते गुरमुखि सुच धरमा ॥ बीरा आपन बुरा मिटावै ॥ ताहू बुरा निकटि नही आवै ॥ बाधिओ आपन हउ हउ बंधा ॥ दोसु देत आगह कउ अंधा ॥ बात चीत सभ रही सिआनप ॥ जिसहि जनावहु सो जानै नानक ॥३९॥ {पन्ना 258}

पद्अर्थ: बिनउ = विनय, विनती। संपै = धन। रवाल = चरण धूड़।1।

पउड़ी। ब्रहमा = ब्राहमण। ते = वह लोग। बैसनो = खाने पीने आदि में स्वच्छता का ध्यान रखने वाले। सुच = आत्मिक पवित्रता। बीरा = वीर, शूरवीर। बुरा = दूसरों के लिए बुराई, दूसरों का बुरा देखना। ताहू निकटि = उस के नजदीक। बंधा = बंधन। आगह कउ = औरों को। रही = रह जाती है, पेश नहीं पड़ती।

अर्थ: हे नानक! (अरदास कर और कह–) हे पारब्रहम! हे दीनों पर दया करने वाले! हे धरती के पालनहार! मेरी विनती सुन। (मुझे सबुद्धि दे कि) गुरमुखों की चरण धूड़ ही मुझे अनेकों सुखों, धन-पदार्थों व अनेकों रसों के भोग के बराबर प्रतीत हो।1।

पउड़ी- असल ब्राहमण वो हैं, जो ब्रहम (परमात्मा) के साथ सांझ डालते हैं, असल वैश्णव वे हैं जो गुरू की शरण पड़ कर आत्मिक पवित्रता के फर्ज को पालते हैं। वह मनुष्य शूरवीर जानो जो (बनाए हुए वैरियों का खुरा खोज मिटाने की जगह) अपने अंदर से दूसरों का बुरा मांगने का स्वभाव का निशान मिटा दे। (जिस ने ये कर लिया) दूसरों की ओर से चितवी बुराई उसके पास नहीं फटकती। (पर मनुष्य) खुद ही अपने अहंकार के बंधनों में बंधा रहता है (और दूसरों के साथ उलझता है, अपने द्वारा की ज्यादती का ख्याल तक नहीं आता, किसी भी नुकसान का) दोष अंधा मनुष्य औरों पर लगाता है।

(पर) हे नानक! (ऐसा स्वाभाव बनाने के लिए) निरी ज्ञान की बातें और समझदारियों की पेश नहीं चलती। (प्रभू के आगे अरदास कर और कह–) हे प्रभू! जिसे तू इस सुचॅजे जीवन की सूझ बख्शता है वही समझता है।39।

सलोकु ॥ भै भंजन अघ दूख नास मनहि अराधि हरे ॥ संतसंग जिह रिद बसिओ नानक ते न भ्रमे ॥१॥

पउड़ी ॥ भभा भरमु मिटावहु अपना ॥ इआ संसारु सगल है सुपना ॥ भरमे सुरि नर देवी देवा ॥ भरमे सिध साधिक ब्रहमेवा ॥ भरमि भरमि मानुख डहकाए ॥ दुतर महा बिखम इह माए ॥ गुरमुखि भ्रम भै मोह मिटाइआ ॥ नानक तेह परम सुख पाइआ ॥४०॥ {पन्ना 258}

पद्अर्थ: भंजन = तोड़ने वाला। अघ = पाप। मनहि = मन में। हरे = हरी को। संगि = संग में। जिह = जिन के। ते = वह लोग। भ्रमे = भुलेखे में पड़े।1।

पउड़ी। भरमु = दौड़ भाग, भटकना। सगल = सारा। सुरि = स्वर्गीय जीव। सिध = योग साधना में माहिर जोगी। साधिक = योग साधना करने वाले। ब्रहमेवा = ब्रहमा जैसे। डहकाए = धोखे में आते गए। दुतर = जिससे पार लांघना मुश्किल हो। माऐ = माया। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर। तेह = उन्होंने।40।

अर्थ: ( हे भाई! सब पापों के) हरने वाले को अपने मन में याद रख। वही सारे डरों को दूर करने वाला है, वही सारे पापों दुखों का नाश करने वाला है। हे नानक! सतसंग में रह के जिन मनुष्यों के हृदय में हरी आ टिकता है, वह पापों विकारों की भटकना में नहीं पड़ते।1।

पउड़ी- (हे भाई!) जैसे सपना है (जैसे सपने में कई पदार्थों से मेल जोल होता है पर जागते ही वह साथ समाप्त हो जाता है), वैसे ही इस सारे संसार का साथ है, इसके पीछे भटकने की बाण मिटा दो। (इस माया के चोज-तमाशों की खातिर) स्वर्गीय जीव, मनुष्य, देवी, देवते दुखी होते (सुने जाते) रहे, (धरती के) लोग (मायावी पदार्थों की खातिर) भटक-भटक के धोखे में आते चले आ रहे हैं, ये माया एक ऐसा महा-मुश्किल (समुंद्र) है (जिस में) तैरना बहुत ही कठिन है।

हे नानक! जिन लोगों ने गुरू की शरण पड़ कर (माया के पीछे की) भटकना, सहम व मोह (को अपने अंदर से) मिटा लिया, उन्होंने सबसे श्रेष्ठ आत्मिक आनंद हासिल कर लिया है।40।

सलोकु ॥ माइआ डोलै बहु बिधी मनु लपटिओ तिह संग ॥ मागन ते जिह तुम रखहु सु नानक नामहि रंग ॥१॥

पउड़ी ॥ ममा मागनहार इआना ॥ देनहार दे रहिओ सुजाना ॥ जो दीनो सो एकहि बार ॥ मन मूरख कह करहि पुकार ॥ जउ मागहि तउ मागहि बीआ ॥ जा ते कुसल न काहू थीआ ॥ मागनि माग त एकहि माग ॥ नानक जा ते परहि पराग ॥४१॥ {पन्ना 258}

पद्अर्थ: माइआ = माया में, माया की खातिर। मागन ते = माया मांगने से। जिह = जिस जीव को। नामहि = नाम में ही। रंग = प्यार।1।

पउड़ी। इआना = बेसमझ जीव। सुजाना = सब के दिल की जानने वाला। जो दीनो सो ऐकहि बार = उसने सब कुछ एक ही बार में दे दिया हुआ है, उसकी दी हुई दातें कभी खत्म होने वाली नहीं। पुकार = गिले। बीआ = नाम के बिना और पदार्थ ही। कुसल = आत्मिक सुख। काहू = किसी को भी। परहि पराग = (मायावी पदार्थों की मांग से) उस पार लांघ जाएं।41।

अर्थ: मनुष्य का मन कई तरीकों से माया की खातिर ही डोलता रहता है, माया के साथ ही चिपका रहता है। हे नानक! (प्रभू के आगे अरदास कर और कह–) हे प्रभू! जिस मनुष्य को तू निरी माया ही मांगने से रोक लेता है वह तेरे नाम से प्यार पा लेता है।1।

पउड़ी- बेसमझ जीव हर वक्त (माया ही माया) मांगता रहता है (ये नहीं समझता कि) सबके दिलों की जानने वाला दातार (सब पदार्थ) दिए जा रहा है। हे मूर्ख मन! तू क्यूं सदा माया के वास्ते गिड़गिड़ा रहा है? उसकी दी दातें तो कभी खतम होने वाली ही नहीं हैं। (हे मूर्ख!) तू जब भी मांगता है (नाम के बिना) और और चीजें ही मांगता रहता है, जिनसे कभी किसी को भी आत्मिक सुख नहीं मिला।

हे नानक! (कह– हे मूर्ख मन!) अगर तूने मांग मांगनी ही है तो प्रभू का नाम ही मांग, जिसकी बरकति से तू मायावी पदार्थों की मांग से ऊपर उठ जाए।41।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh