श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 259 सलोक ॥ मति पूरी परधान ते गुर पूरे मन मंत ॥ जिह जानिओ प्रभु आपुना नानक ते भगवंत ॥१॥ पउड़ी ॥ ममा जाहू मरमु पछाना ॥ भेटत साधसंग पतीआना ॥ दुख सुख उआ कै समत बीचारा ॥ नरक सुरग रहत अउतारा ॥ ताहू संग ताहू निरलेपा ॥ पूरन घट घट पुरख बिसेखा ॥ उआ रस महि उआहू सुखु पाइआ ॥ नानक लिपत नही तिह माइआ ॥४२॥ {पन्ना 259} पद्अर्थ: मति पूरी = पूर्ण बुद्धि, सही जीवन राह की पूरी समझ। गुर पूरे मंत = पूरे गुरू का उपदेश। जानिओ = जान लिया, गहरी सांझ डाल ली। भगवंत = भाग्यशाली।1। पउड़ी। जाहू = जिस ने। मरमु = भेद (कि प्रभू मेरे अंग संग है)। पतीआना = पतीज जाता है, तसल्ली हो जाती है। समत = समान। रहत अउतारा = उतरने से रह जाता है। ताहू = उस प्रभू को। निरलेप = माया के प्रभाव से परे। बिसेख = खास तौर पर। उआहू = उसी बंदे ने। लिपत नही = जोर नहीं डालती, प्रभाव नहीं डालती।42। अर्थ: जिन मनुष्यों के मन में पूरे गुरू का उपदेश बस जाता है, उनकी अक्ल (जीवन राह की) पूरी (समझ वाली) हो जाती है, वह (औरों को भी शिक्षा देने में) माहिर व माने पहचाने हो जाते हैं। जिन्होंने प्यारे प्रभू के साथ गहरी सांझ बना ली है, वे भाग्यशाली हैं।1। पउड़ी- जिस मनुष्य ने ईश्वर का ये भेद पा लिया (कि वह सदा अंग-संग है) वह साध-संगति में मिल के (इस पाए भेद के बारे में) पूरा यकीन बना लेता है। उसके हृदय में दुख और सुख एक समान प्रतीत होने लग पड़ते हैं (क्योंकि ये उसे अंग-संग बसते प्रभू द्वारा आए दिखते हैं, इस वास्ते) वह दुखों से आई घबराहट और सुखों से आई बहुत खुशी में फंसने से बच जाता है। उसे व्यापक प्रभू हरेक हृदय में बसता दिखता है और माया के प्रभाव से परे भी। हे नानक! (ईश्वर की सर्व-व्याप्तता के यकीन से पैदा हुए) आत्मिक रस से उसे ऐसा सुख मिलता है कि माया उस पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकती।42। सलोकु ॥ यार मीत सुनि साजनहु बिनु हरि छूटनु नाहि ॥ नानक तिह बंधन कटे गुर की चरनी पाहि ॥१॥ पवड़ी ॥ यया जतन करत बहु बिधीआ ॥ एक नाम बिनु कह लउ सिधीआ ॥ याहू जतन करि होत छुटारा ॥ उआहू जतन साध संगारा ॥ या उबरन धारै सभु कोऊ ॥ उआहि जपे बिनु उबर न होऊ ॥ याहू तरन तारन समराथा ॥ राखि लेहु निरगुन नरनाथा ॥ मन बच क्रम जिह आपि जनाई ॥ नानक तिह मति प्रगटी आई ॥४३॥ {पन्ना 259} पद्अर्थ: छूटन = माया के बंधनों से छुटकारा। तिह = उनके। पाहि = पड़ते हैं।1। पवड़ी = कह लउ = कहां तक? सिधीआ = सफलता। याहू = जो। या उबरन = जो बचाव। सभु कोऊ = हर कोई। धारै = मन में धारता है। निरगुन = गुण हीन।43। अर्थ: हे मित्रो! हे सज्जनो! सुनो। परमात्मा का नाम जपे बिना माया के बंधनों से छुटकारा नहीं मिलता। हे नानक! जो लोग गुरू की चरणी पड़ते हैं, उनके (माया के मोह के) बंधन काटे जाते हैं।1। पवड़ी- मनुष्य (माया के मोह के बंधनों से छुटकारा पाने के लिए) कई तरह के यत्न करता है, पर परमात्मा का नाम जपे बिना बिल्कुल कामयाबी नहीं हो सकती। जिन प्रयत्नों से (इन बंधनों से) खलासी हो सकती है, वो प्रयत्न यही हैं कि साध-संगति करो। हर कोई (माया के बंधनों से) बचने के तरीके (अपने मन में) धारता है, पर उस प्रभू का नाम जपे बिना खलासी नहीं हो सकती। (हे भाई! प्रभू दर पे प्रार्थना ही करनी चाहिए कि) हे जीवों के नाथ! हम गुण-हीनों को बचा ले, तू खुद ही जीवों को (संसार-समुंद्र में से) पार उतारने के लिए जहाज है, तू ही तैराने के समर्थ है। हे नानक! जिन लोगों के मन में बचनों में व कर्मों में प्रभू खुद (माया के मोह से बचने वाली) सूझ पैदा करता है, उनकी मति उज्जवल हो जाती है (और वे बंघनों से बच निकलते हैं)।43। सलोकु ॥ रोसु न काहू संग करहु आपन आपु बीचारि ॥ होइ निमाना जगि रहहु नानक नदरी पारि ॥१॥ पउड़ी ॥ रारा रेन होत सभ जा की ॥ तजि अभिमानु छुटै तेरी बाकी ॥ रणि दरगहि तउ सीझहि भाई ॥ जउ गुरमुखि राम नाम लिव लाई ॥ रहत रहत रहि जाहि बिकारा ॥ गुर पूरे कै सबदि अपारा ॥ राते रंग नाम रस माते ॥ नानक हरि गुर कीनी दाते ॥४४॥ {पन्ना 259} पद्अर्थ: रोस = गुस्सा। आपन आपु = अपने आप को। निमाना = धीरे स्वभाव वाला। जगि = जगत में। नदरी = प्रभू की मेहर की नजर से।1। पउड़ी। रेन = चरण धूड़। सभ = सारी दुनिया। जा की = जिस (गुरू) की। तजि = त्याग। बाकी = (मन में इकट्ठे हो चुके क्रोध के संस्कारों का) लेखा। रणि = रण में, इस जगत रण भूमि में। दरगहि = प्रभू की हजूरी में। सीझहि = कामयाब होगा। जउ = अगर। रहत रहत = रहते रहते, सहजे सहजे। रहि जाहि = रह जाता है, खत्म हो जाता है। सबदि = शबद में (जुड़ने से)। अपारा = बेअंत। राते = रंगे हुए। माते = मस्त। गुरि = गुरू ने।44। अर्थ: (हे भाई!) किसी और से गुस्सा ना करो, (इसकी जगह) अपने आप को विचारो (आत्मचिंतन करो) (खुद को सुधारो, कि किसी से झगड़ने में अपना क्या-क्या दोष है)। हे नानक! अगर तू जगत में धैर्य-स्वभाव वाला बन के रहे, तो प्रभू की नजर से इस संसार समुंद्र में से पार लांघ जाएगा (जिसमें क्रोध की बेअंत लहरें बह रही हैं)।1। पउड़ी- सारी दुनिया जिस गुरू की चरण धूड़ होती है, तू भी उसके आगे अपने मन का अहंकार दूर कर, तेरे अंदर से क्रोध के संस्कारों का लेखा समाप्त हो जाए। हे भाई! इस जगत रण-भूमि में और प्रभू की हजूरी में तभी कामयाब होगा, जब गुरू की शरण पड़ कर प्रभू के नाम में सुरति जोड़ेगा। पूरे गुरू के शबद में जुड़ने से बेअंत विकार सहजे सहजे दूर हो जाते हैं। हे नानक! जिन लोगों को गुरू ने हरी नाम की दाति दी है, वे प्रभू के नाम के प्यार में रंगे रहते हैं, वे हरी के नाम के स्वाद में मस्त रहते हैं (और वे दूसरों से रोश करने की बजाए अपने आप में सुधार करते हैं)। सलोकु ॥ लालच झूठ बिखै बिआधि इआ देही महि बास ॥ हरि हरि अम्रितु गुरमुखि पीआ नानक सूखि निवास ॥१॥ पउड़ी ॥ लला लावउ अउखध जाहू ॥ दूख दरद तिह मिटहि खिनाहू ॥ नाम अउखधु जिह रिदै हितावै ॥ ताहि रोगु सुपनै नही आवै ॥ हरि अउखधु सभ घट है भाई ॥ गुर पूरे बिनु बिधि न बनाई ॥ गुरि पूरै संजमु करि दीआ ॥ नानक तउ फिरि दूख न थीआ ॥४५॥ {पन्ना 259} पद्अर्थ: बिखै = विषौ विकार। बिआधि = बीमारीआं, रोग। इआ = इस। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के। सूखि = सुख में, आत्मिक आनंद में1। पउड़ी। लावउ = मैं लगाता हूँ, मुझे यकीन है कि अगर कोई बरते। जाहू = जिसे। तिह = उसके। जिह रिदै = जिसके हृदय में। हितावै = प्यारी लगे। अउखधु = दवा। सभ घट = सारे शरीरों में। भाई = हे भाई! बिधि = तरीका, सबब। गुरि = गुरू ने। संजमु = पथ, परहेज।45। अर्थ: (साधारण तौर पर हमारे) इस शरीर में लालच, झूठ विकारों और रोगों का ही जोर रहता है; (पर) हे नानक! जिस मनुष्य ने गुरू की शरण पड़ कर आत्मिक जीवन देने वाला हरी नाम रस पी लिया, वह आत्मिक आनंद में टिका रहता है।1। पउड़ी- मुझे यकीन है कि अगर किसी को (प्रभू के नाम की) दवा दी जाए, एक क्षण में ही उसके (आत्मिक) दुख-दर्द मिट जाते हैं। जिस मनुष्य को अपने हृदय में रोग-नाशक प्रभू का नाम प्यारा लगने लग पड़े, सपने में भी कोई (आत्मिक) रोग (विकार) उसके नजदीक नहीं फटकता। हे भाई! हरी नाम दवा हरेक के हृदय में मौजूद है, पर पूरे गुरू के बिना (इस्तेमाल का) तरीका कामयाब नहीं होता। हे नानक! पूरे गुरू ने (इस दवाई के इस्तेमाल के लिए) परहेज नीयत कर दिया है। (जो मनुष्य उस परहेज अनुसार दवाई लेता है) उसे मुड़ (कोई विकार) दुख छू नहीं सकता।45। सलोकु ॥ वासुदेव सरबत्र मै ऊन न कतहू ठाइ ॥ अंतरि बाहरि संगि है नानक काइ दुराइ ॥१॥ पउड़ी ॥ ववा वैरु न करीऐ काहू ॥ घट घट अंतरि ब्रहम समाहू ॥ वासुदेव जल थल महि रविआ ॥ गुर प्रसादि विरलै ही गविआ ॥ वैर विरोध मिटे तिह मन ते ॥ हरि कीरतनु गुरमुखि जो सुनते ॥ वरन चिहन सगलह ते रहता ॥ नानक हरि हरि गुरमुखि जो कहता ॥४६॥ {पन्ना 259-260} पद्अर्थ: वासुदेव = (वासुदेव का पुत्र, कृष्ण जी) परमात्मा। ऊन = ना होना, कमी। कतहू ठाइ = किसी जगह में। काइ दुराइ = कौन छुपाएगा? ठाउ = जगह।1। पउड़ी। काहू = किसी से। समाहू = व्यापक है। रविआ = मौजूद है। गविआ = गमन किया, पहुँच हासिल की। वरन = वर्ण, रंग, जाति पाति। चिहन = निशान, रूप रेख। सगलह ते = सब (जाति पाति, रूप रेख) से। रहता = अलग। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर।46। (नोट: तीसरी चौथी तुक का अर्थ इकट्ठा ही करना है और चौथी तुक से शुरू करना है)।। अर्थ: हे नानक! परमात्मा सब जगह मौजूद है, किसी भी जगह उसका अस्तित्व ना हो ऐसा नहीं हैं। सब जीवों के अंदर व चारों तरफ प्रभू अंग-संग है, (उससे) कुछ भी छुपा हुआ नहीं हो सकता।1। पउड़ी- हरेक शरीर में परमात्मा समाया हुआ है (इस वास्ते) किसी के साथ भी (कोई) वैर नहीं करना चाहिए। परमात्मा पानी में धरती में (जॅरे-जॅरे में) व्यापक है, पर किसी विरले ने ही गुरू की कृपा से (उस प्रभू तक) पहुँच हासिल की है। परमात्मा जाति-पाति, रूप रेख से न्यारा है (उसकी कोई जाति पाति कोई रूप रेखा बयान नही की जा सकती)। (पर) हे नानक! जो जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ कर उस हरी को सिमरते हैं, उसकी सिफत सालाह सुनते हैं, उनके मन में से वैर-विरोध मिट जाते हैं।46। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |