श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 261 सलोकु ॥ लेखै कतहि न छूटीऐ खिनु खिनु भूलनहार ॥ बखसनहार बखसि लै नानक पारि उतार ॥१॥ पउड़ी ॥ लूण हरामी गुनहगार बेगाना अलप मति ॥ जीउ पिंडु जिनि सुख दीए ताहि न जानत तत ॥ लाहा माइआ कारने दह दिसि ढूढन जाइ ॥ देवनहार दातार प्रभ निमख न मनहि बसाइ ॥ लालच झूठ बिकार मोह इआ स्मपै मन माहि ॥ ल्मपट चोर निंदक महा तिनहू संगि बिहाइ ॥ तुधु भावै ता बखसि लैहि खोटे संगि खरे ॥ नानक भावै पारब्रहम पाहन नीरि तरे ॥५२॥ {पन्ना 261} पद्अर्थ: न छूटीअै = सुर्खरू नहीं हो सकते, विकारों के कर्ज से निकल नहीं सकते।1। पउड़ी। लूण हरामी = नमक हराम, ना-शुक्र, अकृतज्ञ। बेगाना = पराया, सांझ ना पाने वाला। अलप = अल्प, थोड़ा। जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। तत = तत्व, (जिंद के शरीर के) असल को। लाहा = लाभ। दहदिसि = दसों दिशाओं में। निमख = (निमेष) आँख फड़कने जितना समय। मनहि = मन में। संपै = धन। लंपट = विषयी। बिहाइ = उम्र बीतती है। पाहन = पत्थर, पत्थर दिल बंदे। नीरि = पानी में, नाम अमृत से।52। अर्थ: हे नानक! (कह–) हम जीव छिन छिन भूलें करने वाले हैं, अगर हमारी भूलों का हिसाब किताब हो, तो हम किसी भी तरह इस भार से सुर्खरू नहीं हो सकते। हे बख्शिंद प्रभू! तू खुद ही हमारी भूलें बख्श, और हमें (विकारों के समुंद्र में डूबतों को) पार लगा।1। पउड़ी- मनुष्य ना-शुक्रगुजार है, गुनाहगार है, होछी मति वाला है, परमात्मा से बेगाना हो के रहता है, जिस प्रभू ने ये जिंद और शरीर दिए हैं, उस अस्लियत को पहचानता ही नहीं। माया कमाने की खातिर दसों दिशाओं में (माया) तलाशता फिरता है, पर जो प्रभू दातार सब कुछ देने के काबिल है, उसे आँख झपकने जितने समय के लिए भी मन में नहीं बसाता। लालच-झूठ-विकार और माया का मोह- बस! यही धन मनुष्य अपने मन में संभाले बैठा है। जो विषयी हैं, चोर हैं, महा निंदक हैं, उनकी संगति में इसकी उम्र बीतती है। (पर, हे प्रभू!) यदि तुझे ठीक लगे तो तू खुद ही खोटों को खरों की संगति में रख के बख्श लेता है। हे नानक! अगर परमात्मा को ठीक लगे तो वह (विचारों से) पत्थर दिल हो चुके लोगों को नाम-अमृत की दाति दे कर (विकारों की लहरों में डूबने से) बचा लेता है।52। सलोकु ॥ खात पीत खेलत हसत भरमे जनम अनेक ॥ भवजल ते काढहु प्रभू नानक तेरी टेक ॥१॥ पउड़ी ॥ खेलत खेलत आइओ अनिक जोनि दुख पाइ ॥ खेद मिटे साधू मिलत सतिगुर बचन समाइ ॥ खिमा गही सचु संचिओ खाइओ अम्रितु नाम ॥ खरी क्रिपा ठाकुर भई अनद सूख बिस्राम ॥ खेप निबाही बहुतु लाभ घरि आए पतिवंत ॥ खरा दिलासा गुरि दीआ आइ मिले भगवंत ॥ आपन कीआ करहि आपि आगै पाछै आपि ॥ नानक सोऊ सराहीऐ जि घटि घटि रहिआ बिआपि ॥५३॥ {पन्ना 261} पद्अर्थ: भवजल = संसार समुंद्र। ते = से।1। पउड़ी। खेलत खेलत = मन परचाते परचाते। खेद = दुख कलेश। साधू = गुरू। समाइ = लीन हो के, चिक्त जोड़ के। गही = पकड़ी, ग्रहण की। संचिओ = जोड़ा। खाइओ = खुराक बनाया। खेप = सौदा, वणज व्यापार। घरि आऐ = अंतर आत्मे टिक गए। पतिवंत = इज्जत वाले। गुरि = गुरू ने। दिलासा = दिल को ढारस। आगै पाछै = लोक परलोक में। सराहीअै = उस्तति करें, सिफत सालाह करें।53। अर्थ: हे नानक! (कह–) हे प्रभू! हम जीव मायावी पदार्थ ही खाते-पीते, और माया के रंग तमाशों में हंसते खेलते अनेकों जूनियों में भटकते आ रहे हैं, हमें तू स्वयं ही संसार समुंद्र में से निकाल, हमें तेरा ही आसरा है।1। पउड़ी- मनुष्य मायावी रंगों में मन परचाता परचाता अनेकों जूनियों में से गुजरता दुख पाता आता है। अगर गुरू मिल जाए, अगर गुरू के बचनों में चिक्त जुड़ जाए, तो सारे दुख कलेश मिट जाते हैं। जिसने (गुरू दर से) क्षमा का स्वभाव ग्रहण कर लिया, नाम-धन इकट्ठा किया, नाम अमृत को अपनी आत्मिक खुराक बनाया उस पर परमात्मा की बड़ी मेहर होती है, वह आत्मिक आनन्द-सुख में टिका रहता है। जिस मनुष्य ने (गुरू से जाच सीख के सिफत सालाह का) वणज-व्यापार (सारी उम्र) भर निभाया, उसने लाभ कमाया, वह (भटकना से बच के) अडोल मन हो जाता है और आदर कमाता है। गुरू ने उसे और अच्छी दिलासा दी, और वह भगवान के चरणों में जुड़ा। (पर ये सब प्रभू की मेहर है)। हे प्रभू! ये सारा खेल तूने ही किया है, अब भी तू ही सब कुछ कर रहा है। लोक-परलोक में जीवों का रक्षक तू स्वयं ही है। हे नानक! जो प्रभू हरेक शरीर में मौजूद है, सदा उसी की ही सिफत सालाह करनी चाहिए।53। सलोकु ॥ आए प्रभ सरनागती किरपा निधि दइआल ॥ एक अखरु हरि मनि बसत नानक होत निहाल ॥१॥ पउड़ी ॥ अखर महि त्रिभवन प्रभि धारे ॥ अखर करि करि बेद बीचारे ॥ अखर सासत्र सिम्रिति पुराना ॥ अखर नाद कथन वख्याना ॥ अखर मुकति जुगति भै भरमा ॥ अखर करम किरति सुच धरमा ॥ द्रिसटिमान अखर है जेता ॥ नानक पारब्रहम निरलेपा ॥५४॥ {पन्ना 261} पद्अर्थ: निधि = खजाना। अखरु = अक्षर = 1़अविनाशी प्रभू 2 = प्रभू का हुकम। मनि = मन में। निहाल = आनंदित, पुल्कित।1। पउड़ी। अखर महि = हुकम में। प्रभि = प्रभू ने। धारे = स्थापन किए। अखर करि = हुकम कर के, हुकम से। करि बेद = वेद बना के। नाद = आवाज, राग, कीर्तन। वख्याना = व्याख्यान, उपदेश। भै = दुनिया वाले डर। अखर है = अक्षर का (पसारा) है, हुकम का पसारा है। किरति = कृत्य, करने योग्य।54। अर्थ: हे प्रभू! हे कृपा के खजाने! हे दयाल! हम तेरी शरण आए हैं। हे नानक! (कह–) जिनके मन में एक अविनाशी प्रभू बसता रहता है, उनका मन सदा खिला रहता है।1। पउड़ी- ये तीनों भवन (सारा ही जगत) प्रभू ने अपने हुकम में ही रचे हैं। प्रभू के हुकम के अनुसार ही वेद रचे गए, और विचारे गए। सारे शास्त्र-स्मृतियां और पुराण प्रभू के हुकम का प्रगटावा हैं। इन पुराणों-शास्त्रों और स्मृतियों की कीर्तन कथा और व्याख्या भी प्रभू के हुकम का ही ज़हूर हैं। दुनिया के डरों-भरमों से निजात ढूँढनी भी प्रभू के हुकम का प्रकाश है। (मानस जन्म में) करनेयोग्य कामों की पहिचान करनी आत्मिक पवित्रता के नियमों की तलाश- ये भी प्रभू के हुकम का ही दृश्य है। हे नानक! जितना भी ये दिखाई दे रहा संसार है, ये सारा ही प्रभू के हुकम का सरगुण स्वरूप है, पर (हुकम का मालिक) प्रभू खुद (इस सारे पसारे के) प्रभाव से परे है।54। सलोकु ॥ हथि कलम अगम मसतकि लिखावती ॥ उरझि रहिओ सभ संगि अनूप रूपावती ॥ उसतति कहनु न जाइ मुखहु तुहारीआ ॥ मोही देखि दरसु नानक बलिहारीआ ॥१॥ पउड़ी ॥ हे अचुत हे पारब्रहम अबिनासी अघनास ॥ हे पूरन हे सरब मै दुख भंजन गुणतास ॥ हे संगी हे निरंकार हे निरगुण सभ टेक ॥ हे गोबिद हे गुण निधान जा कै सदा बिबेक ॥ हे अपर्मपर हरि हरे हहि भी होवनहार ॥ हे संतह कै सदा संगि निधारा आधार ॥ हे ठाकुर हउ दासरो मै निरगुन गुनु नही कोइ ॥ नानक दीजै नाम दानु राखउ हीऐ परोइ ॥५५॥ {पन्ना 261} पद्अर्थ: हथि = हाथ में। अगंम = अपहुँच। अगंम हथि = अपहुँच हरी के हाथ में। मसतकि = माथे पर। उरझि रहिओ = उलझा हुआ है (ताने-बाने की तरह)। अनूप = सुंदर। रूपावती = रूप वाला। मुखहु = मुँह से। मोही = मस्त हो गई है। पउड़ी। अचुत = (च्यू = गिर जाना) नाश ना होने वाला। अघ = पाप। सरबमै = सरब मय, सर्व व्यापक। गुणतास = गुणों का खजाना। निरंकार = आकार रहित। निरगुण = माया के तीन गुणों से अलग। निधान = खजाना। बिबेक = परख की ताकत। अपरंपर = परे से परे। हहि भी = अब भी मौजूद है। निधारा = निआसरों का। दासरो = छोटा सा दास। निरगुन = गुण हीन। राखउ = मैं रखूँगा। हीअै = हृदय में।55। अर्थ: अपहुँच हरी के हाथ में (हुकम रूप) कलम (पकड़ी हुई) है, (सब जीवों के) माथे पर (अपनी हुकम रूपी कलम से जीवों के किए कर्मों अनुसार लेख) लिखे जा रहा है। वह सुंदर रूप वाला प्रभू सब जीवों के साथ (ताने बाने की तरह) मिला हुआ है (इस वास्ते कोई लेख गलत नहीं लिखा जाता)। हे नानक! (कह–) हे प्रभू! मुझसे अपने मुँह से तेरी उपमा बयान नहीं की जा सकती। तेरा दर्शन करके मेरी जिंद मस्त हो रही है, सदके सदके हो रही है।1। पउड़ी- हे नानक! (अरदास कर और कह–) हे कभी ना डोलने वाले परमात्मा! हे नाश रहित प्रभू! हे जीवों के पाप नाश करने वाले! हे सारे जीवों में व्यापक पूर्ण प्रभू! हे जीवों के दुख दूर करने वाले! हे गुणों के खजाने! हे सब के साथी! (और फिर भी) आकार-रहित प्रभू! हे माया के प्रभाव से अलग रहने वाले! हे सब जीवों के आसरे! हे सृष्टि की सार लेने वाले! हे गुणों के खजाने! जिसके अंदर परख करने की ताकत सदा कायम है! हे परे से परे प्रभू! तू अब भी मौजूद है, तू सदा के लिए कायम रहने वाला है। हे संतों के सदा सहाई! हे निआसरों के आसरे! हे सृष्टि के पालक! मैं तेरा छोटा सा दास हूँ, मैं गुण-हीन हूँ, मेरे में कोई गुण नहीं है। मुझे अपने नाम का दान बख्श, (ये दान) मैं अपने हृदय में परो के रखूँ।55। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |