श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 262 सलोकु ॥ गुरदेव माता गुरदेव पिता गुरदेव सुआमी परमेसुरा ॥ गुरदेव सखा अगिआन भंजनु गुरदेव बंधिप सहोदरा ॥ गुरदेव दाता हरि नामु उपदेसै गुरदेव मंतु निरोधरा ॥ गुरदेव सांति सति बुधि मूरति गुरदेव पारस परस परा ॥ गुरदेव तीरथु अम्रित सरोवरु गुर गिआन मजनु अपर्मपरा ॥ गुरदेव करता सभि पाप हरता गुरदेव पतित पवित करा ॥ गुरदेव आदि जुगादि जुगु जुगु गुरदेव मंतु हरि जपि उधरा ॥ गुरदेव संगति प्रभ मेलि करि किरपा हम मूड़ पापी जितु लगि तरा ॥ गुरदेव सतिगुरु पारब्रहमु परमेसरु गुरदेव नानक हरि नमसकरा ॥१॥ एहु सलोकु आदि अंति पड़णा ॥ {पन्ना 262} ये सलोक इस ‘बावन अखरी’ के आरम्भ में भी पढ़ना है, और आखिर में भी पढ़ना है। नोट: इस शलोक का अर्थ ‘बावन अखरी’ के शुरू में दिया गया है, पन्ना 250 पर। गउड़ी सुखमनी महला ५॥ सुखमनी का केन्द्रिय भाव: श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी की बाणी में शबद–अष्टपदियों आदि की संरचना को जरा गौर से देखने से ये पता चलता है कि हरेक शबद में एक या दो तुकें (पंक्तियां) ऐसी होती हैं, जिनके आखिर में शब्द ‘रहाउ’ लिखा हुआ होता है। ‘रहाउ’ का अर्थ है– ‘ठहिर जाउ’, अर्थात, कि यदि इस सारे शबद का केन्द्रिय भाव समझना है तो ‘रहाउ’ वाली पंक्तियों पर ‘अटक जाओ’, इन में ही सारे शबद का ‘सार’ है। ‘शबद’, ‘अष्टपदियों’ से अलग कई और लम्बी बाणियां भी हैं, जिनके शुरू में ‘रहाउ’ की तुकें मिलती हैं। इन बाणियों में भी ‘रहाउ’ लिखने का भाव यही है कि इस सारी बाणी का ‘मुख्य भाव’ ‘रहाउ’ की तुकों में है। मिसाल के तौर पर लें ‘सिध गोसटि’। इस बाणी की 73 पउड़ियां हैं, पर इसकी पहली पउड़ी के बाद निम्नलिखित दो तुकें ‘रहाउ’ की है; किआ भवीअै सचि सूचा होइ॥ साच सबद बिनु मुकति न कोइ॥१॥ रहाउ॥ सारी ‘सिध गोसटि’ का केन्द्रिय भाव ये दो तुकें बता रही हैं। जोगी लोग देश–रटन को मुक्ति व पवित्रता का साधन समझते हैं, इस सारी बाणी में जोगियों के साथ चर्चा है और इन दो–तुकों में दो–हरफी बात यही बताई है कि देश–रटन या तीर्थ यात्रा ‘सुच’ व ‘मुक्ति’ के साधन नहीं हैं। गुरू–शबद ही मनुष्य के मन को स्वच्छ (पवित्र) कर सकता है। सारी बाणी इसी ख्याल की व्याख्या है। अब लें ‘ओअंकार’, जो राग ‘रामकली दखणी’ में है। इसकी सारी 54 पउड़ियां हैं, पर इसकी भी पहली पउड़ी के उपरंत इस प्रकार लिखा है; सुणि पाडे किआ लिखहु जंजाला॥ लिखु राम नाम गुरमुखि गोपाला॥१॥ रहाउ॥ यहां भी स्पष्ट है कि ये सारी बाणी किसी पण्डित के प्रथाय है जो ‘विद्या’ पर ज्यादा टेक रखता है। सत्गुरू जी ने इस सारी बाणी का सारांश ये बताया है कि अकाल पुरख की सिफत सालाह सब से उक्तम विद्या है। इस तरह की और भी कई बाणियां हैं, जिन में एक ‘सुखमनी’ भी है। इसकी 24 अष्टपदियां हैं। पर पहली अष्टपदी की पहली पउड़ी के बाद आई ‘रहाउ’ की तुक बताती है कि इस सारी बाणी का दो–हरफी मुख्य भाव ‘रहाउ’ में है और सारी ही 24 अष्टपदियां इस ‘मुख्य भाव’ की व्याख्या हैं। सो ‘सुखमनी’ का ‘मुख्य भाव’ नीचे दी गई तुकें हैं: सुखमनी सुख अंम्रित प्रभ नामु॥ भगत जना कै मनि बिस्राम॥ रहाउ॥ प्रभू का नाम सब सुखों का मूल है और ये मिलता है गुरमुखों से, क्योंकि ये बसता ही उनके हृदय में है। समूची ‘सुखमनी’ इसी ख्याल की व्याख्या है। सुखमनी की भाव-लड़ी: (1) अकाल-पुरख के नाम का सिमरन और सभी धार्मिक कामों से श्रेष्ठ है। (अष्टपदियां नं:1,2 व 3)। (2) माया में फंसे जीव पर ईश्वर की ओर से ही मेहर हो तब इसे नाम की दाति मिलती है; क्योंकि माया के कई करिश्मे इसे मोहते रहते हैं। (अ:4,5 व6) (3) जब प्रभू की मेहर होती है तो मनुष्य गुरमुखों की संगति में रह के ‘नाम’ की बरकति हासिल करता है। वे गुरमुखि उच्च करनी वाले होते हैं, उन्हें साधू कहो, चाहे ब्रहम ज्ञानी, चाहे कोई और नाम रख लो, पर उनकी आत्मा सदा परमात्मा के साथ एक-रूप है। (अ: 7,8 व 9) (4) उस अकाल पुरख की उस्तति जगत के सारे ही जीव कर रहे हैं, वह हर जगह व्यापक है, हरेक जीव को उससे सक्ता मिलती है। (अ: 10 व 11)। (5) प्रभू की सिफत सालाह करने वाले भाग्यशाली ने अपने जीवन में और भी ख्याल रखने हैं कि (अ) स्वभाव गरीबी वाला रहे (अ:12); (आ) निंदा करने से बचा रहे, (अ: 13); (इ) एक अकाल-पुरख की टेक रखे, हरेक जीव की जरूरतें जानने व पूरी करने वाला एक प्रभू ही है। (अष्टपदी 14 व 15) (6) वह अकाल-पुरख कैसा है? सब में बसता हुआ भी माया से निर्लिप है (अ:16)। सदा कायम रहने वाला है (अ: 17)। सतिगुरू की शरण पड़ने से उस प्रभू का प्रकाश हृदय में होता है (अ:18)। (7) प्रभू का नाम ही एक ऐसा धन है जो सदा मनुष्य के साथ निभता है (अ:19); प्रभू के दर पे आरजू करने से इस धन की प्राप्ति होती है (अ:20)। (8) निर्गुण-रूप प्रभू ने खुद ही अपना सर्गुण स्वरूप जगत के रूप में बनाया है और हर जगह वह खुद ही व्यापक है, कोई और नहीं (अ:21,22)। जब मनुष्य को ज्ञान रूपी अंजन (सुरमा) मिलता है, तभी इसके मन में ये प्रकाश होता है कि प्रभू हर जगह है (अ: 23)। (9) प्रभू सारे गुणों का खजाना है, उसका नाम सिमरते हुए बेअंत गुण हासिल हो जाते हैं, इस वास्ते ‘नाम’ सुखों की मणी (सुखमनी) है। गउड़ी सुखमनी मः ५ ॥ इस बाणी का नाम है ‘सुखमनी’ और ये गउड़ी राग में दर्ज है। इसे उच्चारने वाले गुरू अरजन साहिब जी हैं। सलोकु ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ आदि गुरए नमह ॥ जुगादि गुरए नमह ॥ सतिगुरए नमह ॥ स्री गुरदेवए नमह ॥१॥ पद्अर्थ: नमह = (सब से) बड़े को। आदि = (सबका) आरम्भ। जुगादि = (जो) जुगों के आरम्भ से है। सतिगुरऐ = सतिगुरू को। स्री गुरदेवऐ = श्री गुरू जी को।1। नोट: शब्द ‘नमह’ संप्रदान कारक के साथ इस्तेमाल होता है, ‘गुरऐ’–संप्रदान कारक में है। संस्कृत शब्द ‘गुरु’ से संप्रदान कारक ‘गुरवे’ है जो यहां ‘गुरऐ’ है। (और विस्तृत जानकारी ‘गुरबाणी व्याकरण’ में दर्ज की गई है)। अर्थ: (मेरी) उस सबसे बड़े (अकाल पुरख) को नमस्कार है जो (सब का) आरम्भ है, और जो युगों के आरम्भ से है। सतिगुरू को (मेरा) नमस्कार है श्री गुरदेव जी को (मेरी) नमस्कार है।1। असटपदी ॥ सिमरउ सिमरि सिमरि सुखु पावउ ॥ कलि कलेस तन माहि मिटावउ ॥ सिमरउ जासु बिसु्मभर एकै ॥ नामु जपत अगनत अनेकै ॥ बेद पुरान सिम्रिति सुधाख्यर ॥ कीने राम नाम इक आख्यर ॥ किनका एक जिसु जीअ बसावै ॥ ता की महिमा गनी न आवै ॥ कांखी एकै दरस तुहारो ॥ नानक उन संगि मोहि उधारो ॥१॥ {पन्ना 262} पद्अर्थ: असटपदी = आठ पदों वाली, आठ बंदों वाली। सिमरउ = मैं सिमरूँ। सिमरि = सिमर के। कलि = झगड़े। माहि = में। मिटावउ = मिटा लूं। बिसंभर = (विश्व+भर, भर = पालक) जगत का पालक। जासु नामु = जिस एक जगत पालक (हरी) का नाम। इक आख्यर = एकाक्षर (अकाल पुरख)। सुधाख्यर = शुद्ध अक्षर, पवित्र शब्द। जिसु जीअ = जिस के जीअ में। महिमा = उस्तति। कांखी = चाहवान। नानक मोहि = मुझे नानक को। उन संगि = उनकी संगति में (रख के)। उधारो = बचा लो।1। अर्थ: मैं (अकाल-पुरख का नाम) सिमरूँ और सिमर सिमर के सुख हासिल करूँ; (इस तरह) शरीर में (जो) दुख व्याधियां हैं उनहें मिटा लूँ। जिस एक जगत पालक (हरी) का नाम अनेकों और अनगिनत (जीव) जपते हैं, मैं (भी उसको) सिमरूँ। वेदों-पुराणों-स्मृतियों ने एक अकाल-पुरख के नाम को ही सबसे पवित्र नाम माना है। जिस (मनुष्य) के जी में (अकाल-पुरख अपना नाम) थोड़ा सा भी बसाता है, उसकी वडियाई महिमा बयान नहीं की जा सकती। (हे अकाल-पुरख!) जो मनुष्य तेरे दीदार के चाहवान हैं, उनकी संगति में (रख के) मुझे नानक को (संसार सागर से) बचा लो।1। सुखमनी सुख अम्रित प्रभ नामु ॥ भगत जना कै मनि बिस्राम ॥ रहाउ ॥ पद्अर्थ: सुखमनी = सुखों की मणी, सब से श्रेष्ठ सुख। प्रभ नामु = प्रभू का नाम। मनि = मन में। भगत जना कै मनि = भक्त जनों के मन में। बिस्राम = ठिकाना। रहाउ। अर्थ: प्रभू का अमर करने वाला व सुखदाई नाम (सब) सुखों की मणी है, इसका ठिकाना भक्तों के हृदय में है। प्रभ कै सिमरनि गरभि न बसै ॥ प्रभ कै सिमरनि दूखु जमु नसै ॥ प्रभ कै सिमरनि कालु परहरै ॥ प्रभ कै सिमरनि दुसमनु टरै ॥ प्रभ सिमरत कछु बिघनु न लागै ॥ प्रभ कै सिमरनि अनदिनु जागै ॥ प्रभ कै सिमरनि भउ न बिआपै ॥ प्रभ कै सिमरनि दुखु न संतापै ॥ प्रभ का सिमरनु साध कै संगि ॥ सरब निधान नानक हरि रंगि ॥२॥ {पन्ना 262} पद्अर्थ: सिमरनि = सिमरन द्वारा, सिमरन करने से। प्रभ कै सिमरनि = प्रभू का सिमरन करने से। गरभि = गर्भ में, माँ के पेट में, जून में, जनम (मरण) में। परहरै = संस्कृत में ‘परिहृ’ (to avoid, shun) परे हट जाता है। टरै = टल जाता है। सिमरत = सिमरते हुए, सिमरन करने से। कछु = कोई। बिघनु = रुकावट, बाधा। अनदिनु = हर रोज। जागै = सुचेत रहता है। भउ = डर। बिआपै = जोर डालता है। संतापै = तंग करता है। सरब = सारे। निधान = खजाने। नानक = हे नानक! रंगि = प्यार में। अर्थ: प्रभू का सिमरन करने से (जीव) जनम में नहीं आता, (जीव का) दुख और जम (का डर) दूर हो जाता है। मौत (का भय) परे हट जाता है। (विकार रूपी) दुश्मन टल जाता है। प्रभू को सिमरने से (जिंदगी की राह में) कोई रुकावट नहीं पड़ती, (क्योंकि) प्रभू का सिमरन करने से (मनुष्य) हर समय (विकारों की तरफ से) सुचेत रहता है। प्रभू का सिमरन करने से (कोई) डर (जीव पर) दबाव नहीं डाल सकता और (कोई) दुख व्याकुल नहीं कर सकता। अकाल-पुरख का सिमरन गुरमुखि की संगति में (मिलता है); (और जो मनुष्य सिमरन करता है, उसको) हे नानक! अकाल पुरख के प्यार में (ही) (दुनिया के) सारे खजाने (प्रतीत होते हैं)।2। प्रभ कै सिमरनि रिधि सिधि नउ निधि ॥ प्रभ कै सिमरनि गिआनु धिआनु ततु बुधि ॥ प्रभ कै सिमरनि जप तप पूजा ॥ प्रभ कै सिमरनि बिनसै दूजा ॥ प्रभ कै सिमरनि तीरथ इसनानी ॥ प्रभ कै सिमरनि दरगह मानी ॥ प्रभ कै सिमरनि होइ सु भला ॥ प्रभ कै सिमरनि सुफल फला ॥ से सिमरहि जिन आपि सिमराए ॥ नानक ता कै लागउ पाए ॥३॥ {पन्ना 262-263} पद्अर्थ: रिधि = मानसिक ताकत। सिधि = (अणिमा लघिमा प्रप्ति: प्राकाम्ह महिमा तथा। ईशित्वं च तथा कामावसायिता॥) मानसिक ताकतें, जो आम तौर पर आठ प्रसिद्ध हैं। नउ निधि = (महापद्यश्च पद्मश्च शंखो मकरकक्ष्छपौ॥ मुकुन्दकुन्दनीलाश्च खर्वश्च निधयो नव॥ ) कुबेर देवते के नौ खजाने, भाव, जगत का सारा धन पदार्थ। ततु = अस्लियत, जगत का मूल। बुधि = अक्ल, समझ। बिनसै = नाश हो जाता है। मानी = मान वाला, इज्जत वाला। फला = फलीभूत हुआ, फल वाला हुआ। सुफल = अच्छे फल वाला। सुफल फला = (मानस जन्म का) उच्च मनोरथ प्राप्त हो जाता है। जिन = जिन्हें। ता कै पाऐ = उनके पैरों में। अर्थ: प्रभू के सिमरन में (ही) सारी रिद्धियां-सिद्धियां व नौ खजाने हैं, प्रभू सिमरन में ही ज्ञान, सुरति का टिकाव, और जगत के मूल (हरी) की समझ वाली बुद्धि है। प्रभू के सिमरन में ही (सारे) जाप-ताप व (देव) पूजा हैं, (क्योंकि) सिमरन करने से प्रभू के बिना किसी और उस जैसी हस्ती के अस्तित्व का ख्याल ही दूर हो जाता है। सिमरन करने वाला (आत्म-) तीर्थ का स्नान करने वाला हो जाता है, और, दरगाह में उसे आदर मिलता है, जगत में जो जो हो रहा है (उसे) भला प्रतीत होता है, और (उसका) मानस जन्म का श्रेष्ठ मनोरथ सिद्ध हो जाता है। (नाम) वही सिमरते हैं, जिन्हें प्रभू स्वयं प्रेरित करता है, (इसलिए, कह) हे नानक! मैं उन (सिमरन करने वालों) के पैर लगूँ।3। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |