श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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प्रभ का सिमरनु सभ ते ऊचा ॥ प्रभ कै सिमरनि उधरे मूचा ॥ प्रभ कै सिमरनि त्रिसना बुझै ॥ प्रभ कै सिमरनि सभु किछु सुझै ॥ प्रभ कै सिमरनि नाही जम त्रासा ॥ प्रभ कै सिमरनि पूरन आसा ॥ प्रभ कै सिमरनि मन की मलु जाइ ॥ अम्रित नामु रिद माहि समाइ ॥ प्रभ जी बसहि साध की रसना ॥ नानक जन का दासनि दसना ॥४॥ {पन्ना 263}

पद्अर्थ: उधरे = (विकारों से) बच जाते हैं। मूचा = महान ऊँचा, बहुत सारे। त्रिसना = तृष्णा, (माया की) प्यास। सभु किछु = हरेक बात। त्रास = डर। जम त्रासा = जमों का डर। रिद माहि = हृदय में। समाइ = टिक जाता है। रसना = जीभ। जन का = जन का, साधूओं का। साध = गुरमुख। दासनि दासा = दासों का दास।

अर्थ: प्रभू का सिमरन करना (और) सभी (कोशिशों) से बेहतर है; प्रभू का सिमरन करने से बहुत सारे (जीव) (विकारों से) बच जाते हैं।

प्रभू का सिमरन करने से (माया की) प्यास मिट जाती है, (क्योंकि माया के) हरेक (तेवर) की समझ पड़ जाती है।

प्रभू का सिमरन करने से जमों का डर खत्म हो जाता है, और, (जीव की) आस पूर्ण हो जाती है (भाव, आशाओं से मन तृप्त हो जाता है)।

प्रभू का सिमरन करने से मन की (विकारों की) मैल दूर हो जाती है, और मनुष्य के हृदय में (प्रभू का) अमर करने वाला नाम टिक जाता है।

प्रभू जी गुरमुख मनुष्यों की जीभ पर बसते हैं (भाव, साधु जन सदा प्रभू को जपते हैं)। (कह) हे नानक! (मैं) गुरमुखों के सेवकों का सेवक (बनूँ)।4।

प्रभ कउ सिमरहि से धनवंते ॥ प्रभ कउ सिमरहि से पतिवंते ॥ प्रभ कउ सिमरहि से जन परवान ॥ प्रभ कउ सिमरहि से पुरख प्रधान ॥ प्रभ कउ सिमरहि सि बेमुहताजे ॥ प्रभ कउ सिमरहि सि सरब के राजे ॥ प्रभ कउ सिमरहि से सुखवासी ॥ प्रभ कउ सिमरहि सदा अबिनासी ॥ सिमरन ते लागे जिन आपि दइआला ॥ नानक जन की मंगै रवाला ॥५॥ {पन्ना 263}

पद्अर्थ: सिमरहि = (जो) सिमरते हैं। से = वे मनुष्य। धनवंते = धन वाले, धनाढ। पतिवंते = इज्जत वाले। परवान = कबूल, जाने माने। पुरख = मनुष्य। प्रधान = श्रेष्ठ, अच्छे। सि = वे, वह मनुष्य। बेमुहताजे = बे मुथाज, बेपरवाह। अबिनासी = नाश रहित, जनम मरन से रहित। सिमरनि = सिमरन में। ते = वे मनुष्य। जिन = जिन पे। आपि = प्रभू खुद। जन = सेवक। रवाल = चरणों की धूल।

अर्थ: जो मनुष्य प्रभू को सिमरते हैं, वे धनवान हैं, और वे आदरणीय हैं।

जो मनुष्य प्रभू को सिमरते हैं, वे जाने माने प्रसिद्ध हुए हें, और वे (सब मनुष्यों से) अच्छे हैं।

जो मनुष्य प्रभू को सिमरते हैं, वे किसी के मुहताज नहीं हैं, वे (तो बल्कि) सब के बादशाह हैं।

जो मनुष्य प्रभू को सिमरते हैं, वे सुखी बसते हैं और सदा के वास्ते जनम मरन से रहित हो जाते हैं।

(पर) प्रभू सिमरन में वही मनुष्य लगते हैं जिनपे प्रभू स्वयं मेहरबान (होता है); हे नानक! (कोई भाग्यशाली) इन गुरमुखों की चरण-धूड़ माँगता है।5।

प्रभ कउ सिमरहि से परउपकारी ॥ प्रभ कउ सिमरहि तिन सद बलिहारी ॥ प्रभ कउ सिमरहि से मुख सुहावे ॥ प्रभ कउ सिमरहि तिन सूखि बिहावै ॥ प्रभ कउ सिमरहि तिन आतमु जीता ॥ प्रभ कउ सिमरहि तिन निरमल रीता ॥ प्रभ कउ सिमरहि तिन अनद घनेरे ॥ प्रभ कउ सिमरहि बसहि हरि नेरे ॥ संत क्रिपा ते अनदिनु जागि ॥ नानक सिमरनु पूरै भागि ॥६॥ {पन्ना 263}

पद्अर्थ: उपकार = भलाई, नेकी। उपकारी = भलाई करने वाला। परउपकारी = दूसरों के साथ भलाई करने वाले। तिन = उनसे। सद = सदा। बलिहारी = सदके, कुर्बान। सुहावे = सोहणे। तिन = उनकी। सूखि = सुख में। बिहावै = बीतती है। तिन = उन्होंने। आतमु = अपने आप को। तिन रीता = उनकी रीति। रीत = जिंदगी गुजारने का तरीका। निरमल = मल रहित, पवित्र। अनद = आनंद, खुशियां, सुख। घनेरे = बहुत। बसहि = बसते हैं। नेरे = नजदीक। अनदिनु = हर रोज, हर समय। जागि = जाग सकते हैं। नानक = हे नानक! पूरै भागि = पूरी किस्मत से।

अर्थ: जो मनुष्य प्रभू को सिमरते हैं, वे दूसरों के साथ भलाई करने वाले बन जाते हें, उनसे (मैं) सदा सदके हूँ।

जो मनुष्य प्रभू को सिमरते हैं, उनके मुंह सुंदर (लगते) हैं, उनकी (उम्र) सुख में गुजरती है।

जो मनुष्य प्रभू को सिमरते हैं, वे अपने आप को जीत लेते हैं और उनका जिंदगी गुजारने का तरीका पवित्र हो जाता है।

जो मनुष्य प्रभू को सिमरते हैं, उन्हें खुशियां ही खुशियां हैं, (क्योंकि) वे प्रभू की हजूरी में बसते हैं।

संतों की कृपा से ही ये हर समय (सिमरन की) जाग आ सकती है; हे नानक! सिमरन (की दाति) बड़ी किस्मत से (मिलती है)।6।

प्रभ कै सिमरनि कारज पूरे ॥ प्रभ कै सिमरनि कबहु न झूरे ॥ प्रभ कै सिमरनि हरि गुन बानी ॥ प्रभ कै सिमरनि सहजि समानी ॥ प्रभ कै सिमरनि निहचल आसनु ॥ प्रभ कै सिमरनि कमल बिगासनु ॥ प्रभ कै सिमरनि अनहद झुनकार ॥ सुखु प्रभ सिमरन का अंतु न पार ॥ सिमरहि से जन जिन कउ प्रभ मइआ ॥ नानक तिन जन सरनी पइआ ॥७॥ {पन्ना 263}

पद्अर्थ: झूरे = झुरता, चिंता करता। हरि गुन बानी = हरी के गुणों वाली बाणी। सहजि = सहज में, अडोल अवस्था में। समानी = लीन हो जाता है। निहचल = ना हिलने वाला, टिका हुआ। कमल = हृदय रूपी कमल फूल। बिगासनु = खिलाव। अनहद = एक रस, लगातार। झुनकार = रसीली मीठी आवाज। मइआ = मेहर, दया।

अर्थ: प्रभू का सिमरन करने से मनुष्य के (सारे) काम पूरे हो जाते हैं (वह आवश्यक्ताओं के अधीन नहीं रहता) और कभी चिंताओं के वश नहीं पड़ता।

प्रभू का सिमरन करने से मनुष्य अकाल पुरख के गुण ही उच्चारता है (भाव, उसे सिफत सालाह की आदत पड़ जाती है) और सहज अवस्था में टिका रहता है।

प्रभू का सिमरन करने से मनुष्य का (मन रूपी) आसन डोलता नहीं और उसके (हृदय का) कमल-फूल खिला रहता है।

प्रभू का सिमरन करने से (मनुष्य के अंदर) एक-रस संगीत सा (होता रहता है), (भाव) प्रभू के सिमरन से जो सुख (उपजता) है वह (कभी) खत्म नहीं होता।

वही मनुष्य (प्रभू को) सिमरते हैं, जिन पर प्रभू की मेहर होती है; हे नानक! (कोई भाग्यशाली) उन (सिमरन करने वाले) जनों की शरण पड़ता है।7।

हरि सिमरनु करि भगत प्रगटाए ॥ हरि सिमरनि लगि बेद उपाए ॥ हरि सिमरनि भए सिध जती दाते ॥ हरि सिमरनि नीच चहु कुंट जाते ॥ हरि सिमरनि धारी सभ धरना ॥ सिमरि सिमरि हरि कारन करना ॥ हरि सिमरनि कीओ सगल अकारा ॥ हरि सिमरन महि आपि निरंकारा ॥ करि किरपा जिसु आपि बुझाइआ ॥ नानक गुरमुखि हरि सिमरनु तिनि पाइआ ॥८॥१॥ {पन्ना 263}

पद्अर्थ: हरि सिमरनु = प्रभू का सिमरन। करि = कर के। प्रगटाऐ = मशहूर हुए। हरि सिमरनि = प्रभू के सिमरन में। लगि = लग के, जुड़ के। उपाऐ = पैदा किए। भऐ = हो गए। सिध = वह पुरुष जो साधना द्वारा आत्मिक अवस्था के शिखर तक पहुँच गए। जती = अपनी शारीरिक इंद्रियों को वश में रखने वाला। चहु कुंट = चारों तरफ, सारे जगत में। जाते = मशहूर। सिमरनि = सिमरन ने। धारी = टिकाई। धरना = धरती। कारन करन = जगत का कारन, जगत का मूल, सृष्टि का करता। आकारा = दृष्टिमान जगत। महि = में। जिसु = जिस को। नानक = हे नानक! तिनि = उस मनुष्य ने। गुरमुखि = गुरू के द्वारा।

अर्थ: प्रभू का सिमरन करके भगत (जगत में) मशहूर होते हैं, सिमरन में ही जुड़ के (ऋषियों ने) वेद (आदि धर्म पुस्तकें) रचीं।

प्रभू के सिमरन द्वारा ही मनुष्य सिद्ध बन गए, जती बन गए, दाते बन गए; सिमरन की बरकति से नीच मनुष्य सारे संसार में प्रगट हो गए।

प्रभू के सिमरन ने सारी धरती को आसरा दिया हुआ है; (इसलिए, हे भाई!) जगत के कर्ता प्रभू को सदा सिमर।

प्रभू ने सिमरन के वास्ते सारा जगत बनाया है; जहाँ सिमरन है वहाँ निरंकार स्वयं बसता है।

मेहर करके जिस मनुष्य को (सिमरन करने की) समझ देता है, हे नानक! उस मनुष्य ने गुरू के द्वारा सिमरन (की दाति) प्राप्त कर ली है।8।1।

सलोकु ॥ दीन दरद दुख भंजना घटि घटि नाथ अनाथ ॥ सरणि तुम्हारी आइओ नानक के प्रभ साथ ॥१॥ {पन्ना 263-264}

पद्अर्थ: दीन = गरीब, कंगाल, कमजोर। भंजना = तोड़ने वाला, नाश करने वाला। घटि = घट में, शरीर में। घटि घटि = हरेक शरीर में (व्यापक)। नाथ = मालिक, पति। अनाथ = यतीम। नाथ = अनाथों का नाथ। आइओ = आया हूँ। प्रभ = हे प्रभू! नानक के साथ = गुरू के साथ, गुरू की चरणी पड़ के।

अर्थ: दीनों के दर्द और दुखों का नाश करने वाले हे प्रभू! हे हरेक शरीर में व्यापक हरी! हे अनाथों के नाथ!

हे प्रभू! गुरू नानक का पल्ला पकड़ के मैं तेरी शरण आया हूँ।2।

नोट: शब्द ‘तुमारी’ के अक्षर ‘म’ के नीचे ‘्’ आधा ‘ह’ की ध्वनि देगा।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh