श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 279 सहस खटे लख कउ उठि धावै ॥ त्रिपति न आवै माइआ पाछै पावै ॥ अनिक भोग बिखिआ के करै ॥ नह त्रिपतावै खपि खपि मरै ॥ बिना संतोख नही कोऊ राजै ॥ सुपन मनोरथ ब्रिथे सभ काजै ॥ नाम रंगि सरब सुखु होइ ॥ बडभागी किसै परापति होइ ॥ करन करावन आपे आपि ॥ सदा सदा नानक हरि जापि ॥५॥ {पन्ना 279} पद्अर्थ: सहस = हजारों (रुपए)। खटे = कमाता है। लख कउ = लाखों (रुपयों) की खातिर। धावै = दौड़ता है। त्रिपति = तृप्ति। पाछै पावै = जमा करता है। बिखिआ = माया। त्रिपतावै = तृप्त होता है। खपि खपि = दुखी हो हो के। मनोरथ = मन के रथ, मन की दौड़ें, ख्वाइशें। ब्रिथे = व्यर्थ। अर्थ: (मनुष्य) हजारों (रुपए) कमाता है तो लाखों (रुपयों) की खतिर उठ के दौड़ता है; माया जमा किए जाता है, (पर) तृप्त नहीं होता। माया की अनेकों मौजें मानता है, तसल्ली नहीं होती, (भोगों के पीछे और दौड़ता है) बड़ा दुखी होता है। अगर अंदर संतोष ना हो, तो कोई (मनुष्य) तृप्त नहीं होता, जैसे सपनों का कोई लाभ नहीं होता, वैसे (संतोष-हीन मनुष्य के) सारे काम और ख्वाहिशें व्यर्थ हैं। प्रभू के नाम की मौज में (ही) सारा सुख है, (और ये सुख) किसी बड़े भाग्यशाली को मिलता है। (जो) प्रभू खुद ही सब कुछ करने के और (जीवों से) कराने के स्मर्थ है, हे नानक! उस प्रभू को सदा सिमर।5। करन करावन करनैहारु ॥ इस कै हाथि कहा बीचारु ॥ जैसी द्रिसटि करे तैसा होइ ॥ आपे आपि आपि प्रभु सोइ ॥ जो किछु कीनो सु अपनै रंगि ॥ सभ ते दूरि सभहू कै संगि ॥ बूझै देखै करै बिबेक ॥ आपहि एक आपहि अनेक ॥ मरै न बिनसै आवै न जाइ ॥ नानक सद ही रहिआ समाइ ॥६॥ {पन्ना 279} पद्अर्थ: कहा = कहां? बीचारु = विचार कर, विचार के देख। द्रिसटि = नजर। अपनै रंगि = अपनी मौज में। सभहू कै = सभी के ही। संगि = साथ। बिबेक = पहचान, परख। आपहि = आप ही। आवै न जाइ = ना आता है ना जाता है, ना पैदा होता है ना मरता है। सद ही = सदा ही। रहिआ समाइ = समाए रहा, अपने आप में टिका हुआ है। अर्थ: विचार के देख ले, इस जीव के हाथ में कुछ भी नहीं है, प्रभू खुद ही सब कुछ करने योग्य है, और (जीवों से) करवाने के समर्थ है। प्रभू जैसी नजर (बंदे पर) करता है (बंदा) वैसा ही बन जाता है, वह प्रभू स्वयं ही स्वयं है। जो कुछ उसने बनाया है अपनी मौज में बनाया है; सब जीवों के अंग संग भी है और सबसे अलग भी है। प्रभू स्वयं ही एक है और स्वयं ही अनेक (रूप) धार रहा है, सब कुछ समझता है, देखता है और पहचानता है। वह ना कभी मरता है ना बिनसता है; ना पैदा होता है ना मरता है; हे नानक! प्रभू सदा ही अपने आप में टिका रहता है।6। आपि उपदेसै समझै आपि ॥ आपे रचिआ सभ कै साथि ॥ आपि कीनो आपन बिसथारु ॥ सभु कछु उस का ओहु करनैहारु ॥ उस ते भिंन कहहु किछु होइ ॥ थान थनंतरि एकै सोइ ॥ अपुने चलित आपि करणैहार ॥ कउतक करै रंग आपार ॥ मन महि आपि मन अपुने माहि ॥ नानक कीमति कहनु न जाइ ॥७॥ {पन्ना 279} पद्अर्थ: रचिआ = मिला हुआ। बिसथारु = विस्तार। आपन = अपना। करनैहारु = करने के लायक। भिन्न = अलग। कहहु = बताओ। किछु = कुछ। थान थनंतरि = स्थान स्थान अंतर, हरेक जगह में। चलित = चरित्र, तमाशे, खेलें। आपार = बेअंत। कीमति = मूल्य। अर्थ: प्रभू खुद ही सब जीवों के साथ मिला हुआ है, (सो वह) स्वयं ही शिक्षा देता है और स्वयं ही (उस शिक्षा को) समझता है। अपना फैलाव उसने खुद ही बनाया है, (जगत की) हरेक शै उसकी बनाई हुई है, वह बनाने के काबिल है। बताओ, उससे अलग कुछ हो सकता है? हर जगह वह प्रभू खुद ही (मौजूद) है। अपने खेल आप ही करने के लायक है, बेअंत रंगों के तमाशे करता है। (जीवों के) मन में स्वयं बस रहा है, (जीवों को) अपने मन में टिकाए बैठा है; हे नानक! उसका मूल्य बताया नहीं जा सकता।7। सति सति सति प्रभु सुआमी ॥ गुर परसादि किनै वखिआनी ॥ सचु सचु सचु सभु कीना ॥ कोटि मधे किनै बिरलै चीना ॥ भला भला भला तेरा रूप ॥ अति सुंदर अपार अनूप ॥ निरमल निरमल निरमल तेरी बाणी ॥ घटि घटि सुनी स्रवन बख्याणी ॥ पवित्र पवित्र पवित्र पुनीत ॥ नामु जपै नानक मनि प्रीति ॥८॥१२॥ {पन्ना 279} पद्अर्थ: सति = सदा कायम रहने वाला। गुर परसादि = गुरू की कृपा से। किनै = किसी विरले ने। वखिआनी = बयान की है। सचु = सदा टिका रहने वाला, मुकंमल। चीना = पहिचाना है। अनूप = जिस जैसा और कोई नहीं। स्रवन = कानों (से)। बख्याणी = (जीभ से) बखान की जाती है। पुनीत = पवित्र। अर्थ: (सब का) मालिक प्रभू सदा ही कायम रहने वाला है– गुरू की मेहर से किसी विरले ने (ये बात) बताई है। जो कुछ उसने बनाया है वह भी मुकंमल है (संपूर्ण है, अधूरा नहीं) ये बात करोड़ों में से किसी विरले ने पहिचानी है। हे अत्यंत सुंदर, बेअंत और बेमिसाल प्रभू! तेरा रूप क्या प्यारा प्यारा है? तेरी बोली भी मीठी मीठी है, हरेक शरीर में कानों द्वारा सुनी जा रही है, और जीभ से उचारी जा रही है (भाव, हरेक शरीर में तू खुद ही बोल रहा है)। हे नानक! (जो ऐसे प्रभू का) नाम प्रीति से मन में जपता है, वह पवित्र ही पवित्र हो जाता है।8।12। सलोकु ॥ संत सरनि जो जनु परै सो जनु उधरनहार ॥ संत की निंदा नानका बहुरि बहुरि अवतार ॥१॥ {पन्ना 279} पद्अर्थ: जनु = मनुष्य। परै = पड़ता है। उधरनहारु = (माया के हमले से) बचने के लायक। बहुरि बहुरि = बार बार। अवतार = जनम। अर्थ: जो मनुष्य संतों की शरण पड़ता है, वह माया के बंधनों से बच जाता है; (पर) हे नानक! संतों की निंदा करने से बार बार पैदा होना पड़ता है (भाव, जनम मरन के चक्कर में पड़ जाते हैं)।1। असटपदी ॥ संत कै दूखनि आरजा घटै ॥ संत कै दूखनि जम ते नही छुटै ॥ संत कै दूखनि सुखु सभु जाइ ॥ संत कै दूखनि नरक महि पाइ ॥ संत कै दूखनि मति होइ मलीन ॥ संत कै दूखनि सोभा ते हीन ॥ संत के हते कउ रखै न कोइ ॥ संत कै दूखनि थान भ्रसटु होइ ॥ संत क्रिपाल क्रिपा जे करै ॥ नानक संतसंगि निंदकु भी तरै ॥१॥ {पन्ना 279} पद्अर्थ: दूखनि = दूखन से, निंदा से। आरजा = उम्र। छुटै = बच सकता। मलीन = मैली, बुरी। मति = अक्ल, समझ। हीन = वंचित, ना होना। हते कउ = मारे को, धिक्कारे को। रखै = रख सकता, सहायता करता। थान = (हृदय रूपी) जगह। भ्रसटु = गंदा। अर्थ: संत की निंदा करने से (मनुष्य की) उम्र (व्यर्थ ही) गुजर जाती है, (क्योंकि) संत की निंदा करने से जमों से बच नहीं सकता। संत की निंदा करने से सारा (ही) सुख (नाश हो) जाता है, और मनुष्य नरक में (भाव, घोर दुखों में) पड़ जाता है। संत की निंदा करने से (मनुष्य की) मति मैली हो जाती है, और (जगत में) मनुष्य शोभा से वंचित रह जाता है। संत के धिक्कारे हुए आदमी की कोई मनुष्य सहायता नहीं कर सकता, (क्योंकि) संत की निंदा करने से (निंदक का) हृदय गंदा हो जाता है। (पर) अगर कृपालु संत स्वयं कृपा करे तो, हे नानक! संत की संगति में निंदक भी (पापों से) बच जाता है।1। संत के दूखन ते मुखु भवै ॥ संतन कै दूखनि काग जिउ लवै ॥ संतन कै दूखनि सरप जोनि पाइ ॥ संत कै दूखनि त्रिगद जोनि किरमाइ ॥ संतन कै दूखनि त्रिसना महि जलै ॥ संत कै दूखनि सभु को छलै ॥ संत कै दूखनि तेजु सभु जाइ ॥ संत कै दूखनि नीचु नीचाइ ॥ संत दोखी का थाउ को नाहि ॥ नानक संत भावै ता ओइ भी गति पाहि ॥२॥ {पन्ना 279-280} पद्अर्थ: दूखन ते = निंदा करने से। मुखु भवै = मुंह धिक्कारा जाता है। काग जिउ = कौए की तरह। लवै = लब लब करता है, भाव निंदा करने की आदत पड़ जाती है। सरप = सर्प। त्रिगद = (संस्कृत: तिर्यच्) पशु पक्षी की जूनि। किरमाइ = कृमि आदि। त्रिसना = लालच। जलै = जलता है। सभु को = हरेक प्राणी को। छलै = धोखा देता है। नीचु नीचाइ = नीचों से नीच, बहुत बुरा। दोखी = निंदक। ओइ = निंदा करने वाले। पाहि = पा लेते हैं। अर्थ: संत की निंदा करने से (निंदक का) चेहरा ही भ्रष्ट हो जाता है, (और निंदक) (जगह जगह) कौए की तरह लब-लब करता है (निंदा के बचन बोलता फिरता है)। संत की निंदा करने से (खोटा स्वभाव बन जाने से) मनुष्य सांप की जोनि जा पड़ता है, और कृमि आदि छोटी जोनियों में भटकता है। संत की निंदा के कारण (निंदक) तृष्णा (की आग) में जलता भुनता है, और हरेक मनुष्य को धोखा देता फिरता है। संत की निंदा करने से सारा तेज प्रताप ही नष्ट हो जाता है और (निंदक) महा नीच बन जाता है। संत की निंदा करने वालों का कोई आसरा नहीं रहता; (हाँ) हे नानक! अगर संतों को भाए तो वे निंदक भी बढ़िया अवस्था में पहुँच जाते हैं।2। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |