श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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संत का निंदकु महा अतताई ॥ संत का निंदकु खिनु टिकनु न पाई ॥ संत का निंदकु महा हतिआरा ॥ संत का निंदकु परमेसुरि मारा ॥ संत का निंदकु राज ते हीनु ॥ संत का निंदकु दुखीआ अरु दीनु ॥ संत के निंदक कउ सरब रोग ॥ संत के निंदक कउ सदा बिजोग ॥ संत की निंदा दोख महि दोखु ॥ नानक संत भावै ता उस का भी होइ मोखु ॥३॥ {पन्ना 280}

पद्अर्थ: अतताई = अति करने वाला, सदा कोई ना कोई जुलम करने वाला। टिकनु = टिकाव। हतिआरा = हत्यारा, जालिम। परमेसुरि = ईश्वर की ओर से। मारा = धिक्कारा हुआ। हीनु = वंचित हुआ। दीन = कंगाल, आतुर। बिजोग = (ईश्वर की ओर से) विछोड़ा। दोख महि दोखु = बहुत बुरा काम। मोखु = मोक्ष, मुक्ति, (निंदा से) छुटकारा।

अर्थ: संत की निंदा करने वाला सदा अति किए रखता है, और एक पलक भर भी (अपनी अत्याचारी आदत) से बाज नहीं आता।

संत का निंदक बड़ा जालिम बन जाता है, और रॅब द्वारा धिक्कारा जाता है।

संत का निंदक राज (भाव, दुनिया के सुखों) से वंचित रहता है, (सदा) दुखी और आतुर रहता है।

संत की निंदा करने वाले को सारे रोग व्याप्ते हैं (क्योंकि) उसका (सुखों के श्रोत प्रभू से) सदा विछोड़ा बना रहता है।

संत की निंदा करनी बहुत ही बुरा काम है। हे नानक! अगर संतों को भाए तो उस (निंदक) का भी (निंदा से) छुटकारा हो जाता है।3।

संत का दोखी सदा अपवितु ॥ संत का दोखी किसै का नही मितु ॥ संत के दोखी कउ डानु लागै ॥ संत के दोखी कउ सभ तिआगै ॥ संत का दोखी महा अहंकारी ॥ संत का दोखी सदा बिकारी ॥ संत का दोखी जनमै मरै ॥ संत की दूखना सुख ते टरै ॥ संत के दोखी कउ नाही ठाउ ॥ नानक संत भावै ता लए मिलाइ ॥४॥ {पन्ना 280}

पद्अर्थ: अपवितु = मैले मन वाला, खोटा। डानु = दण्ड (धर्मराज का)। सभ तिआगै = सारे साथ छोड़ जाते हैं। बिकारी = बुरे कामों वाला। दूखना = निंदा। टरै = टलै, टल जाए, वंचित रह जाता है। ठाउ = स्थान, सहारा।

अर्थ: संत का निंदक सदा मैले मन वाला है (तभी) वह (कभी) किसी का सज्जन नहीं बनता। (अंत समय) संत के निंदक को (धर्मराज से) सजा मिलती है और सारे उसका साथ छोड़ जाते हैं।

संत की निंदा करने वाला बड़े गुरूर वाला (अकड़ वाला ) बन जाता है और सदा बुरे काम करता है।

(इन औगुणों में) संत का निंदक पैदा होता मरता रहता है, और संत की निंदा के कारण सुखों से वंचित रहता है।

संत के निंदक को कोई सहारा नहीं मिलता, (पर हाँ), हे नानक! अगर संत चाहे अपने साथ उस (निंदक) को मिला लेता है।4।

संत का दोखी अध बीच ते टूटै ॥ संत का दोखी कितै काजि न पहूचै ॥ संत के दोखी कउ उदिआन भ्रमाईऐ ॥ संत का दोखी उझड़ि पाईऐ ॥ संत का दोखी अंतर ते थोथा ॥ जिउ सास बिना मिरतक की लोथा ॥ संत के दोखी की जड़ किछु नाहि ॥ आपन बीजि आपे ही खाहि ॥ संत के दोखी कउ अवरु न राखनहारु ॥ नानक संत भावै ता लए उबारि ॥५॥ {पन्ना 280}

पद्अर्थ: अध बीच ते टूटे = आधे में से। कितै काजि = किसी काम काज में। उदिआन = जंगल। भ्रमाईअै = भटकाते हैं। उझड़ि = उजाड़ में, गलत रास्ते पर। थोथा = खाली। मिरतक = मुर्दा। जड़ = पक्की नींव, पाए। बीजि = बीज के,कमाई करके। खाहि = खाते हैं। संत भावै = संत को ठीक लगे। लऐ उबारि = उबार ले, बचा लेता है।

अर्थ: संत की निंदा करने वाले का कोई काम सिरे नहीं चढ़ता, आधे बीच में ही रह जाता है।

संत के निंदक को, (मानो) जंगलों में परेशान किया जाता है और (राह से विछोड़ के) उजाड़ में डाल देते हैं।

जैसे प्राणों के बिना मुर्दा शव है, वैसे ही संत का निंदक अंदर से (असली जिंदगी से जो मनुष्य का आधार है) खाली होता है।

संत के निंदकों की (नेक कमाई और सिमरन वाली) कोई पक्की नींव नहीं होती, खुद ही (निंदा की) कमाई करके खुद ही (उसका बुरा फल) खाते हैं।

संत की निंदा करने वाले को कोई और मनुष्य (निंदा की वादी से) बचा नहीं सकता, (पर) हे नानक! अगर संत चाहे तो (निंदक को निंदा के स्वभाव से) बचा सकता है।5।

संत का दोखी इउ बिललाइ ॥ जिउ जल बिहून मछुली तड़फड़ाइ ॥ संत का दोखी भूखा नही राजै ॥ जिउ पावकु ईधनि नही ध्रापै ॥ संत का दोखी छुटै इकेला ॥ जिउ बूआड़ु तिलु खेत माहि दुहेला ॥ संत का दोखी धरम ते रहत ॥ संत का दोखी सद मिथिआ कहत ॥ किरतु निंदक का धुरि ही पइआ ॥ नानक जो तिसु भावै सोई थिआ ॥६॥ {पन्ना 280}

पद्अर्थ: बिललाइ = बिलकता है। बिहून = बिना। तड़फड़ाइ = तड़फती है। भूखा = तृष्णालु, तृष्णा का मारा हुआ। राजै = तृप्त होता है। पावकु = आग। ध्रापै = तृप्त होती। ईधनि = ईधन से। छुटै = पड़ा रहता है। बूआड़ु = (सं: ब्युष्ट, Burnt) जला हुआ, जिसकी फली बीच में जली हुई हो। दुहेला = दुखी। मिथिआ = झूठ। किरतु = (संस्कृत) किए हुए काम का फल। धुरि ही = शुरू से ही (जब से कोई काम किया गया है)। तिसु = उस प्रभू को।

अर्थ: संत का निंदक ऐसे बिलकता है जैसे पानी के बिना मछली तड़फती है। संत का निंदक तृष्णा का मारा हुआ कभी संतुष्ट नहीं होता, जैसे आग ईधन से तृप्त नहीं होती (भाव, संत को शोभा का जला हुआ ईष्या के कारण निंदा करता है और ये ईरखा कम नहीं होती)।

जैसे अंदर से जला हुआ तिल का पौधा खेत में ही दुत्कारा सा पड़ा रहता है वैसे ही संत का निंदक भी अकेला त्यागा हुआ पड़ा रहता है (कोई उसके नजदीक नहीं आता)।

संत का निंदक धर्म से हीन होता है और सदा झूठ बोलता है। (पर) पहली की हुई निंदा का ये फल (-रूपी स्वभाव) निंदक का आरम्भ से ही (जब से उसने निंदा का काम पकड़ा) चला आ रहा है (सो, उस स्वभाव के कारण बिचारा और करे भी तो क्या?) हे नानक! (ये मालिक की रजा है) जो उसे ठीक लगता है वही होता है।6।

संत का दोखी बिगड़ रूपु होइ जाइ ॥ संत के दोखी कउ दरगह मिलै सजाइ ॥ संत का दोखी सदा सहकाईऐ ॥ संत का दोखी न मरै न जीवाईऐ ॥ संत के दोखी की पुजै न आसा ॥ संत का दोखी उठि चलै निरासा ॥ संत कै दोखि न त्रिसटै कोइ ॥ जैसा भावै तैसा कोई होइ ॥ पइआ किरतु न मेटै कोइ ॥ नानक जानै सचा सोइ ॥७॥ {पन्ना 280}

पद्अर्थ: बिगड़ रूपु = बिगड़े हुए रूप वाला, भ्रष्टा हुआ। सहकाईअै = सहकता है, तरले लेता है आतुर होता है। पुजै न = सिरे नहीं चढ़ती। त्रिसटै = संतुष्ट होता। जैसा भावै = जैसी भावना वाला होता है। पइआ किरतु = पिछले किए (बुरे कर्मों) का एकत्र हुआ फल।

अर्थ: संतों की निंदा करने वाला भ्रष्टा जाता है, प्रभू की दरगाह में उसको सजा मिलती है।

संत का निंदक सदा आतुर (सिसकता) रहता है, ना वह जीवितों में ना ही मरों में होता है।

संत के निंदक की आस कभी पूरी नहीं होती, जगत से निराश ही चला जाता है (भला संतों वाली शोभा उसे कैसे मिले?)।

जैसी मनुष्य की नीयति होती है, वैसा उसका स्वभाव बन जाता है (इस वास्ते) संत की निंदा करने कोई मनुष्य (निंदा की) इस प्यास से नहीं बचता।

(बचे भी कैसे?) पीछे की हुई (बुरी) कमाई के इकट्ठे हुए (स्वभाव रूपी) फल को कोई मिटा नहीं सकता। हे नानक! (इस भेद को) वह सच्चा प्रभू जानता है।7।

सभ घट तिस के ओहु करनैहारु ॥ सदा सदा तिस कउ नमसकारु ॥ प्रभ की उसतति करहु दिनु राति ॥ तिसहि धिआवहु सासि गिरासि ॥ सभु कछु वरतै तिस का कीआ ॥ जैसा करे तैसा को थीआ ॥ अपना खेलु आपि करनैहारु ॥ दूसर कउनु कहै बीचारु ॥ जिस नो क्रिपा करै तिसु आपन नामु देइ ॥ बडभागी नानक जन सेइ ॥८॥१३॥ {पन्ना 280-281}

पद्अर्थ: घट = शरीर। तिस के = उस प्रभू के। ओह = वह प्रभू। उसतति = महिमा, वडिआई। सासि गिरासि = साँस अंदर बाहर लेते हुए। थीआ = हो जाता है। दूसरु = दूसरा। बीचारु = ख्याल। जन सोइ = साई जन, वह मनुष्य (बहुवचन)। को = कोई, हरेक जीव।

अर्थ: सारे जीव जंतु उस प्रभू के हैं, वही सब कुछ करने के स्मर्थ हैं, सदा उस प्रभू के आगे सिर निवाओ।

दिन रात प्रभू के गुण गाओ, हर दम के साथ उसे याद करो।

(जगत में) हरेक खेल उसी की चलाई हुई चल रही है, प्रभू (जीव को) जैसा बनाता है वैसा ही हरेक जीव बन जाता है।

(जगत रूपी) अपनी खेल खुद ही करने के काबिल है। कौन कोई दूसरा उसे सलाह दे सकता है?

जिस जिस जीव पर मेहर करता है उस उस को अपना नाम बख्शता है; और, हे नानक! वह मनुष्य बड़े भाग्यशाली हो जाते हैं।8।13।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh