श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 281 सलोकु ॥ तजहु सिआनप सुरि जनहु सिमरहु हरि हरि राइ ॥ एक आस हरि मनि रखहु नानक दूखु भरमु भउ जाइ ॥१॥ {पन्ना 281} पद्अर्थ: सिआनप = चतुराई, अक्ल का मान। सुरि जनहु = हे भले पुरुषो! ऐक आस हरि = ऐक हरि आस, एक प्रभू की आशा। मनि = मन में। भरमु = भुलेखा। भउ = डर। जाइ = दूर हो जाता है। अर्थ: हे भले मनुष्यो! चतुराई त्यागो और अकाल-पुरख को सिमरो। केवल एक प्रभू की आशा मन में रखो। हे नानक! (इस तरह) दुख वहिम और डर दूर हो जाता है।1। असटपदी ॥ मानुख की टेक ब्रिथी सभ जानु ॥ देवन कउ एकै भगवानु ॥ जिस कै दीऐ रहै अघाइ ॥ बहुरि न त्रिसना लागै आइ ॥ मारै राखै एको आपि ॥ मानुख कै किछु नाही हाथि ॥ तिस का हुकमु बूझि सुखु होइ ॥ तिस का नामु रखु कंठि परोइ ॥ सिमरि सिमरि सिमरि प्रभु सोइ ॥ नानक बिघनु न लागै कोइ ॥१॥ {पन्ना 281} पद्अर्थ: टेक = आसरा। ब्रिथी = व्यर्थ। जानु = समझ। ऐकै = एक ही। रहै अघाइ = संतुष्ट रहता है, तृप्त रहता है। बहुरि = दुबारा। हाथि = हाथ में, वश में। बूझि = समझ के। कंठि = गले में। रखु कंठि परोइ = हर समय याद कर। बिघनु = रुकावट। अर्थ: (हे मन!) (किसी) मनुष्य का आसरा बिल्कुल ही व्यर्थ समझ, एक अकाल-पुरख ही (सब जीवों को) देने वाला है (स्मर्थ है)। जिसके देने से (मनुष्य) तृप्त रहता है और दुबारा उसे लालच आ के नहीं दबाती। प्रभू खुद ही (जीवों को) मारता है (अथवा) पालता है, मनुष्य के वश में कुछ भी नहीं है। (इसलिए) उस मालिक का हुकम समझ के सुख होता है। (हे मन!) उसका नाम हर वक्त याद कर। उस प्रभू को सदा सिमर। हे नानक! (सिमरन की बरकति से) (जिंदगी के सफर में) कोई रुकावट नहीं पड़ती।1। उसतति मन महि करि निरंकार ॥ करि मन मेरे सति बिउहार ॥ निरमल रसना अम्रितु पीउ ॥ सदा सुहेला करि लेहि जीउ ॥ नैनहु पेखु ठाकुर का रंगु ॥ साधसंगि बिनसै सभ संगु ॥ चरन चलउ मारगि गोबिंद ॥ मिटहि पाप जपीऐ हरि बिंद ॥ कर हरि करम स्रवनि हरि कथा ॥ हरि दरगह नानक ऊजल मथा ॥२॥ {पन्ना 281} पद्अर्थ: उसतति = वडिआई, सिफत सालाह। सति = सच्चा। बिउहार = व्यवहार। रसना = जीभ से। सुहेला = आसान, सुखी। जीउ = जिंद। नैनहु = आँखों से। रंगु = तमाशा, खेल। साध संगि = साधुओं की संगति में। सभ संगु = और सब संग, अन्य सभी का संग, और सभ का मोह। चलउ = चलो। मारगि = रास्ते पर। बिंद = रक्ती भर, थोड़ा सा। कर = हाथों से। करम = काम। स्रवनि = कानों से। अर्थ: अपने अंदर अकाल-पुरख की सिफत सलाह कर। हे मेरे मन! ये सच्चा व्यवहार कर। जीभ से मीठा (नाम-) अमृत पी, (इस तरह) अपनी जान को सदा सुखी कर ले। आँखों से अकाल-पुरख का (जगत-) तमाशा देख, भलों की संगति में (टिकने से) और (कुटंब आदि का) मोह मिट जाता है। पैरों से ईश्वर के रास्ते पर चल। प्रभू को रक्ती भर भी जपें तो पाप दूर हो जाते हैं। हाथों से प्रभू (के राह) के काम कर और कानों से उसकी उपमा (सुन); (इस तरह) हे नानक! प्रभू की दरगाह में सुर्ख-रू हो जाते हैं।2। बडभागी ते जन जग माहि ॥ सदा सदा हरि के गुन गाहि ॥ राम नाम जो करहि बीचार ॥ से धनवंत गनी संसार ॥ मनि तनि मुखि बोलहि हरि मुखी ॥ सदा सदा जानहु ते सुखी ॥ एको एकु एकु पछानै ॥ इत उत की ओहु सोझी जानै ॥ नाम संगि जिस का मनु मानिआ ॥ नानक तिनहि निरंजनु जानिआ ॥३॥ {पन्ना 281} पद्अर्थ: ते जन = वे लोग। गाहि = गाते हैं। सो = वह मनुष्य। गनी = ग़नी, धनाढ। मुखी = चुनिंदा अच्छे लोग। ते = उन्हें। इत उत की = लोक परलोक की। मानिआ = पतीजा। तिनहि = तिन ही, उसी ने। जानिआ = समझा है। अर्थ: (जो मनुष्य) सदा ही प्रभू के गुण गाते हैं, वह मनुष्य जगत में बड़े भाग्यशाली हैं। वह मनुष्य जगत में धनवान हैं जो संतुष्ट हैं जो अकाल-पुरख के नाम का ध्यान धरते हैं। जो भले लोग मन तन और मुख से प्रभू का नाम उचारते हैं, उन्हें सदा सुखी जानो। जो मनुष्य केवल एक प्रभू को (हर जगह) पहिचानता है, उसे लोक परलोक की (भाव, जीवन के सारे सफर की) समझ पड़ जाती है। जिस मनुष्य का मन प्रभू के नाम से रच-मिच जाता है, हे नानक! उसने प्रभू को पहिचान लिया है।3। गुर प्रसादि आपन आपु सुझै ॥ तिस की जानहु त्रिसना बुझै ॥ साधसंगि हरि हरि जसु कहत ॥ सरब रोग ते ओहु हरि जनु रहत ॥ अनदिनु कीरतनु केवल बख्यानु ॥ ग्रिहसत महि सोई निरबानु ॥ एक ऊपरि जिसु जन की आसा ॥ तिस की कटीऐ जम की फासा ॥ पारब्रहम की जिसु मनि भूख ॥ नानक तिसहि न लागहि दूख ॥४॥ {पन्ना 281} पद्अर्थ: सूझै = सूझ जाए, समझ आ जाए। बुझै = मिट जाती है। जसु = यश, वडिआई। हरि जनु = प्रभू का सेवक। सरब रोग ते रहत = सारे रोगों से बचा हुआ। अनदिनु = हर रोज। बख्यानु = व्याख्यान, उच्चारण। निरबानु = निर्वाण, वासना से रहित। जिसु मनि = जिस मनुष्य के मन में। तिसहि = उस मनुष्य को। अर्थ: जिस मनुष्य को गुरू की कृपा से अपने आप की समझ आ जाती है, ये जान लो कि उसकी तृष्णा मिट जाती है। जो रॅब का प्यारा सत्संग में अकाल-पुरख की सिफत सालाह करता है, वह सारे रोगों से बच जाता है। जो मनुष्य हर रोज प्रभू का कीर्तन ही उचारता है, वह मनुष्य गृहस्त में (रहता हुआ भी) निर्लिप है। जिस मनुष्य की आस एक अकाल-पुरख पर है, उसके जमों की फासी काटी जाती है। जिस मनुष्य के मन में प्रभू (के मिलने) की तमन्ना है, हे नानक! उस मनुष्य को कोई दुख नहीं छूता। जिस कउ हरि प्रभु मनि चिति आवै ॥ सो संतु सुहेला नही डुलावै ॥ जिसु प्रभु अपुना किरपा करै ॥ सो सेवकु कहु किस ते डरै ॥ जैसा सा तैसा द्रिसटाइआ ॥ अपुने कारज महि आपि समाइआ ॥ सोधत सोधत सोधत सीझिआ ॥ गुर प्रसादि ततु सभु बूझिआ ॥ जब देखउ तब सभु किछु मूलु ॥ नानक सो सूखमु सोई असथूलु ॥५॥ {पन्ना 281} पद्अर्थ: सुहेला = सुखी। किस ते = किस से? द्रिसटाइआ = दृष्टि आया, नजर आया, दिखा। सोधत = विचार करते हुए। सीझिआ = कामयाबी हो जाती है, सफलता हो जाती है। ततु = अस्लियत (संस्कृत: तत्वं, The real nature of the human soul or the material world as being identical with the Supreme Spirit pervading the universe. 2. The supreme being)। सूखमु = सुक्ष्मं, the subtle all pervading spirit, the Supreme Soul, सर्व-व्यापक ज्योति। असथूलु = दृष्टमान जगत (सं: स्थुल = Gross Coarse, rough)। कारज = किया हुआ जगत। अर्थ: जिस मनुष्य को हरी प्रभू मन में सदा याद रहता है, वह संत है, सुखी है (वह कभी) घबराता नहीं। जिस मनुष्य पर प्रभू अपनी मेहर करता है, बताओ (प्रभू का) वह सेवक (और) किस से डर सकता है? (क्योंकि) उसे प्रभू वैसा ही दिखाई देता है, जैसा वह (असल में) है, (भाव, ये दिख पड़ता है कि) अपने रचे हुए जगत में स्वयं व्यापक है। नित्य विचार करते हुए (उस सेवक को विचार में) सफलता मिल जाती है, (भाव) गुरू की कृपा से (उसे) सारी अस्लियत की समझ आ जाती है। हे नानक! (मेरे ऊपर भी गुरू की मेहर हुई है, अब) मैं जग देखता हूँ तो हरेक चीज उस सब के आरम्भ (-प्रभू का रूप दिखती है), ये दिखता संसार भी वह स्वयं है और सब में व्यापक ज्योति भी खुद ही है।5। नह किछु जनमै नह किछु मरै ॥ आपन चलितु आप ही करै ॥ आवनु जावनु द्रिसटि अनद्रिसटि ॥ आगिआकारी धारी सभ स्रिसटि ॥ आपे आपि सगल महि आपि ॥ अनिक जुगति रचि थापि उथापि ॥ अबिनासी नाही किछु खंड ॥ धारण धारि रहिओ ब्रहमंड ॥ अलख अभेव पुरख परताप ॥ आपि जपाए त नानक जाप ॥६॥ {पन्ना 281-282} पद्अर्थ: चलितु = तमाशा, खेल। आवनु जावनु = जनम मरन। द्रिसटि = दिखता जगत, अस्थूल संसार। अनद्रिसटि = ना दिखता संसार, सूक्ष्म जगत। आगिआकारी = हुकम में चलने वाली। धारी = टिकाई है। जुगति = तरीकों से। उथापि = नाश करता है। खंड = टुकड़ा, नाश। धारण धारि रहिओ ब्रहमंड = ब्रहमंड (की) धारण धार रहिओ। अलख = जो बयान ना हो सके। अभेव = जिसका भेद ना पाया जा सके। त = तो। अर्थ: ना कुछ पैदा होता है ना कुछ मरता है; (ये जनम मरन का तो) प्रभू स्वयं ही खेल कर रहा है। पैदा होना, मरना, दिखाई देता और ना दिखाई देता- ये सारा संसार प्रभू ने अपने हुकम में चलने वाला बना दिया है। सारे जीवों में केवल खुद ही है, अनेकों ढंगों से (जगत को) बना बना के नाश भी कर देता है। प्रभू स्वयं अविनाशी है; उस का कुछ नाश नहीं होता, सारे ब्रहमंड की रचना भी स्वयं ही रच रहा है। उस व्यापक प्रभू के प्रताप का भेद नहीं पाया जा सकता, बयान नहीं हो सकता; हे नानक! अगर वह स्वयं अपना जाप कराए तो ही जीव जाप करते हैं।6। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |